Thursday, September 4, 2014

कहां नहीं है ‘बखेड़ापुर’



वर्तमान की चापलूसी में 
तुम कभी भी अपने अतीत को व्यर्थ नहीं समझोगे
सारी दुर्घटनाएं सींचेगी
हरे-हरे पात लाएंगी
आने वाली पीढ़ियां सदा उर्वरा होंगी भारत की 
[ कमलेश ] 


युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय के उपन्यास ‘बखेड़ापुर’ का प्रत्येक अध्याय ज्ञात-अज्ञातकुलशील कवियों की काव्य-पंक्तियों के उद्धरणों के साथ आरंभ होता है। यह उपन्यास एक कवि का है इसलिए इसकी भाषा और प्रस्तुति को कुछ काव्यात्मक भी होना चाहिए... कवि इस दायित्व से प्रत्येक अध्याय से पहले दिए गए उद्धरणों के साथ मुक्त हो जाता है। ये उद्धरण उपन्यास की अंतर्वस्तु से असंपृक्त हैं। अपने कुल प्रभाव में ये उद्धरण केवल अध्याय का खत्म और शुरू होना सूचित करते हैं, वैसे ही जैसे इस उपन्यास पर लिए प्रस्तुत नोट्स में आए उद्धरण केवल एक अनुच्छेद का आना और जाना सूचित करते हैं। गद्य रच रहे एक कवि के लिए इस तरह एक कवियोचित दायित्व से मुक्त होना खेदजनक है। इस उपन्यास की भाषा और प्रस्तुति काव्यात्मक नहीं है। उद्धरण दूसरों के होते हैं, इसलिए उनसे आपका काम अंत तक नहीं चल सकता। 

वे कुछ नहीं करते
अपने आप प्रकट होता है उनसे
सुंदर और नश्वर 
[ ध्रुव शुक्ल ] 

भाषा और प्रस्तुति में औपन्यासिक काव्यात्मकता न होने के बावजूद यह उपन्यास आस्वाद के स्तर पर सशक्त है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां कवि अपने लोक में गहरे उतरा हुआ है। यहां लोक से उठकर आए अपरिष्कृत शब्दों का अर्थपूर्ण वैभव है और लोक से ही उठकर चले आए अंधयकीनों का वैभववंचित दर्प भी। पात्रों (जिनका कम न होना वैसे ही है, जैसे उनका बहुत न होना) के छोटे-छोटे जीवन-प्रसंगों के बीच चलती किस्सागोई गजब है। यह किस्सागोई और यह लोक-वैभव हिंदी उपन्यास में एक अर्से बाद लौटा है, यह कहने की जरूरत नहीं कि इस अर्थ में यह उपन्यास स्वागतयोग्य है।

मैं यहीं कहीं की गलियों से बाहर निकलने की राह खोजता हूं
नक्षत्रों पर उसकी उंगलियों से छूटे निशानों से 
मेरी नियति का नक्शा तैयार होता है 
जिसमें उलझकर न जाने कितने निर्दोष गिरते चले जाते हैं 
[ उदयन वाजपेयी] 

‘बखेड़ापुर’ में अनपढ़ बनाए रखने की साजिशों के बीच भी बोलियां अपना उल्लास और चुटीलापन नहीं खोती हैं। काहिली और सतही मनोरंजन से घिरे पात्र हाशिए की वर्णनात्मकता रचते रहते हैं। जीवन में इतना विलाप, इतना व्यंग्य, इतना क्रोध, इतनी करुणा, इतनी विवशताएं होती हैं कि इसके प्रकटीकरण के लिए औपन्यासिक काव्यात्मकता को खोकर भदेस होना पड़ता है :

‘काका सुनाइए तनी, का हुआ सुहागरात के दिन?’
‘अरे दुर, तोहनियो सब न रोज एके बतिया करता है।’
‘काका बतिया तो एके नू है, रतिया के बतिया, कि दू ठो है, तो दूनो सुनाइए।’
‘पैर दबाएगा न रे तेलिया?’
‘आरे काका शुरू न करिए, तेली रामा रोज दबाते हैं, आज कोई नया है?’

यह उपन्यास अपने कथ्य में विषयों को अतिक्रमित करता हुआ चलता है।

हम आहत थे और रुग्ण थे और हर बात मन में 
रंग की तरह लगाकर बैठ जाते थे
अपने अंग-संग दिन-रात रहने वाले शख्स की 
याद आने लगती थी और रोना आता था
कोई बहुत दूर था, उसकी गंध रंध्रों में फूट पड़ती थी
और सफेद रात घिर आती थी
[ तेजी ग्रोवर ] 

यहां यथार्थ जैसे-जैसे खुलता है, वैसे-वैसे और फैलता जाता है। यह आश्चर्यजनक नहीं कि यह उपन्यास खत्म भी एक फैलाव पर होता है। यहां मुक्तिबोध याद आते हैं जिनके सामने एक कदम रखते ही हजार राहें फूटती हैं : 

‘भीतर से कोई आवाज नहीं आती। बाहर से आवाज लगाने वाला कसमसाकर रह जाता है।
जितने भी ‘गिद्ध’ हैं और बहुत सारे ‘गिद्ध’ हैं, सब नजर गड़ाए हुए हैं।’

सरकारी योजनाएं, शिक्षा, चिकित्सा, यौन-मनोविज्ञान, अंधविश्वास, जाति-व्यवस्था, आर्थिकी के बदहाल वर्तमान के बीच ‘बखेड़ापुर’ में वह सब कुछ जो बहुत जरूरी है, अनिश्चितकाल के लिए अवकाश पर है। अपने केंद्रीय कथ्य और प्रकाश में यह कथा एक ऐसी स्थानीयता जो कहीं भी हो सकती है, की बदहाली को राजनीति की बदहाली से और राजनीति की बदहाली को शिक्षा की बदहाली से जोड़ती है। घटनाक्रम, चरित्र और व्यवस्था बदलते रहते हैं, लेकिन यह बदलाव बदहाली को बदल नहीं पाता।

अंधे बिल में अजन्मे शिशु की पसली टूटती है 
तो ईश्वर की हिचकी में गर्दन गिरे पेड़ सी लटक जाती है  
[ अनिरुद्ध उमट ]

यहां सच टूट रहा है और इस टूटन में यह उपन्यास बार-बार स्कूल की तरफ लौटता रहता है, लेकिन यहां तक आते-आते वहां :

‘बखेड़ापुर में रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय, पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था। स्कूल अब अस्थायी तौर पर ही लगता। बच्चे बहुत कम स्कूल आ पाते, शिक्षक भी कम आते या नहीं आते— कौन पूछने वाला था।’ 

तमाम (अ) मानवीय धत्तकर्मों, गालियों, हिंसा के समानांतर उभरती प्रतिहिंसा के साथ ‘बखेड़ापुर’ की भाषा और प्रस्तुति सिनेमाई प्रभाव लिए हुए है। यहां औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव न सही, लेकिन कहीं-कहीं एक ऐसी सांगीतिक लय है जो अपने असल असर में कुछ कचोटती हुई-सी है।

लकड़ीली दिल्लगी पर डेढ़ घड़ी दिन चढ़ा होता 
पर भाप छाया जैसे जमी रहती
दिन चिलका पड़ता फिर धूमिल धब्बे में बिखर जाता
[ पीयूष दईया ]  

‘बखेड़ापुर’ पढ़ चुकने के बाद हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की खोज नए सिरे से जारी होगी क्योंकि बकौल अखिलेश ‘बखेड़ापुर’ में जिंदगी भरपूर है और जिस जिंदगी की हरे प्रकाश ने जिस जरूरी तटस्थता और लेखकीय संलग्नता के साथ पुनर्रचना की है उसके कारण भी यह उपन्यास समकालीन सृजन संसार में समादृत होने का अधिकार हासिल करता है...’ 

निर्जन है, निस्पंद नहीं है 
अरण्य है तो आखेट तो होगा ही 
पैरों के नीचे तुम्हारा ही बिंब है 
अगले कदम पर कौन होगा तुम्हारे साथ
इसलिए अरण्य है तो आखेट तो होगा ही
[ शिरीष ढोबले ]

***
'बखेड़ापुर' पर यहां प्रस्तुत ये समीक्षापरक नोट्स ‘सदानीरा’ में शीघ्र प्रकाश्य 
युवा कवियों के उपन्यासों पर लिखे गए एक वृहत लेख से है

3 comments:

  1. Gyasu Shaikh said:

    अविनाश जी आपकी इस समीक्षा को पढ़-पढ़ते एक मआसरा या एक बस्ती ज़हन में
    उभर कर आई। आपकी ये समीक्षा उपन्यास की थाह को छूती सी लगे जो वह सब
    कुछ देख पाए जो उपन्यास में सहेतुक दर्ज है… यहाँ वह वास्तविक त्रासदी है जो अब
    तक हमारी नज़रों से ओझल रही है या हम जिसे देखना नहीं चाहते।

    हरे प्रकाश उपाध्याय जी का "बखेड़ापुर"उपन्यास भी पढ़ेंगे।

    कितना कुछ हम बचपन से ही बस्ती गांव कस्बों में या छोटे से शहरों में देखते चला
    आ रहे हैं जहाँ अब कभी किसी ख़ास प्रसंग पर ही जाना हो पाता है। आज भी सालों
    से सब कुछ वहां वैसा का वैसा ही है…जीवन शैली भी और कूड़ेदान भी और बेसिक
    इंफ्रास्ट्रक्चर का नितांत अभाव भी !

    कम से कम आज से तीस-चालीस साल पहले का कभी देखा वह दृश्य आज भी वही का
    वही है।बहरहाल रोज़मर्रा वहां अधमरी सी तो होती है पर वार-त्यौहार और ख़ास प्रसंग
    जैसे शादी-ब्याह इत्यादि पर वहां की जीवंतता और लोगों की पारस्परिक सहयोग
    की भावना और ख़ुशी देखते ही बनती है जो अब भी बनी हुई है। हां, वहां की बदहाली,
    सालों नहीं बदले वे जर्जरित घर बार,वो मोहल्ले, वह कूड़ेदान वो गंदगी फैलाते नीक-नाले
    जो बदबूदार पाखाने को अपने साथ दिन रात बहाते रहते हैं… जो चौबीसों घंटे अत्यंत तीव्र
    बदबू छोड़ते हैं, जो पूरे मोहल्ले को एक बदबूदार टॉयलेट में तब्दील कर देते है। यहां
    दिन-रात रहने वालों के लिए ये बदबू सहज सह्य भी हो जाती है जो उन्हें इतनी सहजता
    सरलता से वहां हिरते-फिरते, खाते-पीते देख कर ही लगे। कितने मोहल्ले है जहाँ आपको
    एक भी ग्रैजुएट लड़का न मिले। बीमारी, अर्ध भुखमरी, कुपोषण और मजबूरी-लाचारी
    अधमरापन और छोटे-छोटे तहखानो में जीने को मजबूर लोग और बच्चे-बूढ़े। और एक
    ऐसा अभिशाप उनके जीवन को लगा है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक उन पर नाज़िल
    रहे… कहीं कोई गुंजाईश नहीं यहां से निकल पाने की… सालों की आदत के बाद अब
    वहां कोई सुधार होने की जुम्बिश तक नहीं दिखती। महीने-दो महीने में एकाद बाद
    नगरपालिका वाले मोहल्ले की सिर्फ दिखावे की ही कुछ साफ़-सफाई कर जाए। और हर मौसमों
    की मार झेलती ये बस्तियां मोहल्ले और उसमें जीते सिकुड़ते-अलसाते लोग आदि
    अनादि काल का सा जीवन व्यतीत करते हैं। शिक्षा जागृति का अभाव, शिक्षा प्राप्त करना
    उतना मंहगा की असंभव सा हो उनके लिए। पढ़ाई खर्च का ख़याल आते ही पेरेंट्स के
    हाथ-पैर फूल से जाए कि पढ़ाई के नाम से ही कुंद-कुंठित मनोदशा के शिकार हो जाए और
    तब दोबारा कभी भी अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के बारे में न सोचे और एक तरह का
    सहज पलायन कर जाए यह कहते हुए की 'क्या पढ़ने से भी कोई नौकरी मिलती है …!'

    पांच साल में एक दिन इलेक्शन की गहमागहमी रहे यहां । स्थानीय नेता जी कुछ
    स्थानिक लोगों के साथ सफ़ेदपोश में यहाँ आए (जिन्हें यहां की और लोगों की बदहाली पर
    कोई करूणा न हो !)। . अपने लोग, अपनी जाती का अपनापन-बड़प्पन जताते हुए…कुछ मुर्दाहाल
    लोगों के कंधों पर हाथ रखते-फेरते रहे और उन्हें भावविभोर करते रहे । फिर भला वे
    कैसे पूछे उनसे कि पांच साल में तो आपने हमें कभी याद ही नहीं किया और अपने स्वयं
    के विकास में ही लगे रहे !

    लगता है सदियों की या सालों की बे आवाज़ इस सदा को आवाज़ मिली है 'बखेडापुर,
    में साहित्य की नवीन उपलब्धियों और चौंकाती झलकियों के साथ…अनछुए कितने ही
    जिए जा रहे लमहे उपन्यास में उजागर है… और हाँसिए पर पड़े लोगों के जीवन का उत्स भी
    है यहाँ एक नयी सी शब्दावली में… (अविनाश जी आपकी समीक्षा से ही प्रतीत हुआ है)।

    और अविनाश जी फिर से कहूं आप जो देख पाते हो वह जैसे हमारे समय
    का वर्तमान सा बोध होता है, एक टीस लिए। आपकी साहित्यिक प्रतिबद्धता बेजोड़ है और
    आपके साहित्यिक और जीवन से वाबस्ता सरोकार जीवन और साहित्य दोनों का ही
    सिंचन करे। अपनी साहित्यिक समीक्षा में आप जिस किसी भी कृति लेखक-कवि की
    विवेचना या मूल्यांकन करो तो पूरे दिल से करो और न्याय के साथ भी… जहाँ आपकी तटस्थता
    और निष्पक्षता साहित्य के पक्ष में ही रहे। आपकी समीक्षा से एक तरह की ऑथेन्टिसिटी भी
    मिले संकूल लेखन और सर्जनात्मकता को। और समीक्षा में ऊबाऊपन या रूढ़िगत बद्धता
    तो कोसो दूर… समीक्षा कुछ नवसंचार सा भी करे कृति में ।

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    1. जितनी बातें अपने ऊपर कहीं हैं ... उन सबका जवाब आपको इस उपन्यास में मिल जायेगा . ये समीक्षा इस अर्थ में `ऑथेंटिक ` ही है GyasuShaikh ji ...

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  2. jra is baat ki bhi padtaal kriye patrkaar cum saahiykaar cum aalochak ji ki Darasal 200 prishhon ki yogyta vale nvlekhn upnyaas pratiyogia me yah sahs aur samjhdaari lekhk ke paas kahan se aayi ki usne apni kriti ko pratiyogita me bhej diya aur uspe turrm ye ki vah puraskar bhi jeet gaye ! vaah re sahitya ke maafiyaon tumhara gorakhdhandha...!!!

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