Sunday, December 4, 2016

सविता सिंह की कविता-सृष्टि पर एकाग्र



स्वप्न का अनुकरण


वरिष्ठ कवयित्री सविता सिंह की कविता-सृष्टि के रहस्य अब बहुत हद तक अनावृत हैं! शीर्षस्थानीय व्यक्तित्वों से लेकर प्रथम श्रेणी के टिप्पणीकारों तक ने उनके कविता-कर्म को विश्लेषित करने की कोशिश और जुर्रत की है। इन कोशिशों और जुर्रतों के समानांतर एक सेतु पर कुछ आस्वादकनुमा आवारा भी गुजरते रहे हैं। इस कविता-सृष्टि पर कुछ कहने के लिए पर्याप्त वैचारिक उपकरण न होने का रोना इस कविता-सृष्टि में आंखें खोलते ही रोया जाता रहा है। यह उस सद्य:जात शिशु का शिल्प है जो प्रसव नहीं समझता। जन्मने-रचने की पीड़ा-प्रक्रिया नहीं समझता। यों विश्लेषण की विकासशीलता वाली सविता सिंह की कविता-सृष्टि आवाजाहियों से गुलजार रही है। लेकिन यह चहल-पहल मचाती चेष्टाएं अंतत: शाब्दिक भंगिमा भर में गर्क होकर रह जाएंगी, इसका अनुमान कैसे कवयित्री ने अपनी एक प्रारंभिक कविता में ही लगा लिया था, यह जानने के लिए उस कविता से ही कुछ पंक्तियों को यहां उद्धृत करना प्रासंगिक होगा :

कविता रही है गुमसुम
अपनी परिचित असहायता में
छल-छद्म से बुने जा रहे शब्दों के तंत्र में
इन नगरों के साथ निर्मित की गई एक स्त्री भी
जिसकी आत्मा बदल गई उसकी देह में

[ परंपरा में ]

प्रस्तुत उद्धरण के बाद यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि शोखि-ए-तहरीर को समझने में कभी-कभी कागजी पैरहन उतर भी जाते हैं। वे खुल जाते हैं, लेकिन कुछ खोल नहीं पाते न द्वार, न मर्म। आलोचनात्मक विश्लेषण के लक्ष्य से सविता सिंह की कविता-सृष्टि की तरफ एकाग्र होना जोखिम से शुरू करके एक तनाव वाले विस्तार की तरफ बढ़ना है। ये राहें आस्वादक या विश्लेषक का  अगर वह ईमानदार है तो स्त्रीकरण करती हैं। रात यहां यथार्थ है। नींद यहां जागरूकता है। स्वप्न यहां संघर्ष है, और इस सबसे गुजरती स्त्री अपनी मुक्ति का घोषणापत्र है। बहुत तटस्थता यहां कोई सूत्र उपलब्ध नहीं करवाती, क्योंकि सविता सिंह का चुनाव बहुत प्रतिबद्ध है।


[1]
चुनाव

‘‘कविता-कर्म एक जीवन जीने की तरह है। यह नहीं कि वह जीवन का हिस्सा है। वह जीवन ही है। सुख-दुःख, हार-जीत, यातनाएं और निराशाएं सब इस वजह से ही हैं। कविता का अंतिम पुरस्कार त्रासदी है और यह मुझे मिला है। ...मैंने अपनी कविताओं को पुकारा कि मेरे पास आओ। मेरे संसार में अपनी उपस्थिति जाहिर करो। यह जीवन जो मैं जी रही हूं एक उपनिवेशात्मक अर्थ-व्यवस्था और एक पितृ-सत्तात्मक समाज में अगर इसमें तुम्हारा सहयोग न मिला तब जीना मुश्किल है।’’         

सविता सिंह के पहले कविता-संग्रह ‘अपने जैसा जीवन’ का आगमन हिंदीकवितासंसार में एक नई तरह की कविता के जन्म की सूचना की तरह लिया गया। वह इस सदी का बिल्कुल शुरुआती वक्त था और योगेंद्र आहूजा की एक कहानी ‘स्त्री-विमर्श’ के इशारे से बात करें तब कह सकते हैं कि औरतों के बारे में एक जाली और वृथा विमर्श अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली से धूल की तरह उठकर हमारी भाषा को गंदला कर रहा था। इस प्रकार के स्त्री-विमर्श का एकांगीपन और छल हिंदी पर जाहिर हो चुका था। इस दृश्य में ‘कैसे मुक्त होऊं’ जैसे एक जरूरी प्रश्न के साथ एक स्त्री-कवि का संसार कैसा हो सकता है, इसकी जानकारी सविता सिंह की कविताओं ने एक बहुत ही नायाब ढंग-ढांचे में दी। केवल स्त्री की देह ही पितृसत्ता के जाल में नहीं है बल्कि उसकी मन:स्थितियां, उसकी भाषा, उसकी सामाजिकता, उसकी दार्शनिकता, उसकी अर्थ-व्यवस्था, उसकी जीवेषणा, उसका सब कुछ पितृसत्ता के जाल में है... इस सत्य की अभिव्यक्ति के लिए सविता सिंह का काम मौजूदा स्त्री-भाषा से नहीं चला। कविताओं की उनकी पुकार उन्हें एक नई स्त्री-भाषा के अन्वेषण तक ले गई। इस चुनाव का मार्ग बहुत जटिल था और मानचित्र बहुत धुंधला। न समझे जाने के संकट भी इसमें अनुस्यूत थे।

हंसल मेहता की फिल्म ‘अलीगढ़’ का नायक एक जगह कहता है : ‘‘कविता शब्दों में कहां होती है! कविता शब्दों के अंतराल में मिलती है साइलेंसेज में, पॉजेज में फिर लोग अपने-अपने हिसाब से अपना-अपना अर्थ निकालते रहते हैं एकॉर्डिंग टू दि एज, मैच्योरिटी...।’’ सविता सिंह की कविता-सृष्टि में ‘रात’, ‘नींद’, ‘नीला’ और ‘स्वप्न’ जैसे शब्द अपनी आवृत्तियों में अर्थ के कई संस्तरों के साथ आते हैं। बार-बार का इनका दुहराव आस्वादक में एक ऊब भी उत्पन्न कर सकता है, कवयित्री को इसका कोई डर नहीं है क्योंकि यहां कविता इन शब्दों के अंतराल में है। इन शब्दों से निर्मित प्रतीक-योजना में है। अंतर्वस्तु की सघनता और उसके संस्पर्श में है। इस विनिर्मिति में कविता सोचने का स्थान बनती है। कुछ इस प्रकार का स्त्री-केंद्रित, कठिन-कठोर और सुचिंतित स्थान जहां ‘मनोकामनाओं जैसी स्त्रियां’ हैं :

मैं पहचानती हूं आखिर उनका वह झुरमुट
जिसमें मैंने भी चुना है अपना एक कोना
जहां जाकर ठहरती हैं पृथ्वी से लौटी उन्मुक्त हवाएं
ऋतुएं जहां जाकर सोचती हैं अपना होना

[ मनोकामनाओं जैसी स्त्रियां ]

कुसुम, सुप्रिया, विमला, फ्रैंचेस्का, रोजमरी, रूथ, एलेन की दोस्त, सिल्विया प्लाथ, ललिता, सुमन, नीता, शिल्पी, नसरीन... ये उन स्त्रियों के नाम हैं जिनकी कथाएं सविता सिंह की कविताएं कहती हैं। ये कविताएं इन स्त्रियों के यातनामय इतिहास और आकुल यथार्थ को एक नई गत्यात्मकता और स्वप्नमयता में विन्यस्त करती हैं :

याद रखना नीता
एक कामयाब आदमी समझदारी से चुनता है अपनी स्त्रियां
बड़ी आंखों सुंदर बांहों लंबे बालों सुडौल स्तनों वाली प्रेमिकाएं
चुपचाप घिस जाने वाली सदा घबराई धंसी आंखों वाली मेहनती
कम बोलने वाली पत्नियां

कामयाब आदमी यूं ही नहीं बनता कामयाब
उसे आता है अपने पूर्वजों की तरह चुनना
भेद करना
और इस भेद को एक भेद
बनाए रखना

[ याद रखना नीता ]

‘अपने जैसा जीवन’ की कविताओं में मौजूद ‘विमर्शमूलकता’ पर खासा जोर देते हुए सुधीश पचौरी बेहद गहन अर्थ में सविता सिंह की कविता को स्त्रीत्व की राजनीति की कविता बताते हैं जो अपने स्वत्व और पहचान की स्थापना चाहने से आगे उसे साक्षात संभव करती है। विष्णु नागर के शब्दों में : ‘‘सविता सिंह की कविता यह एहसास सबसे पहले कराती है कि यह एक स्वाधीन होती स्त्री की कविता है, न कि ठेठ हिंदी के ठाठ की कविता। लेकिन यह स्वाधीन स्त्री भारतीय समाज की स्थिति से बेखबर नहीं है, बल्कि उसी में बन रही स्त्री है। इसलिए सविता सिंह अपनी कविता में बहुत-सी स्त्रियों को चीन्हती हैं जो उनकी कविता की स्त्री की स्थिति में नहीं हैं, जो संघर्ष और पीड़ा की विभिन्न स्थितियों से गुजर रही हैं। इसमें सत्तर-पचहत्तर साल की भी स्त्री है जो साथ में रेल में सफर कर रही है और जो सविता सिंह की कविता की स्त्री से पूछती है कि वह किसकी औरत है।’’

सविता सिंह की कविताओं में स्त्री-यातना के वे तमाम आयाम हैं जो एक प्रचलित राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ में स्त्रीवादी नजरिए के साथ बहुत कम अभिव्यक्त होते आए हैं। इन कविताओं में वैचारिक ताप एक सामूहिक पीड़ा की अनुभूति से उत्पन्न होता है। मुक्ति का सौंदर्य सविता सिंह की कविता-सृष्टि का स्वप्न है। स्त्री-मुक्ति तो इसमें शामिल है ही, लेकिन महज वही नहीं। अस्तित्व का उल्लास इन कविताओं का बुनियादी द्वंद्व है। इनकी रचयित्री का चुनाव दरअसल कविता में एक ऐसी स्त्री को केंद्रीयता देने का चुनाव है जो ‘पूर्वजों के शाप और अभिलाषाओं से दूर पूर्णतया अपनी’ है।                  
      

[2]
मार्ग

‘‘मुझे वह संसार चाहिए जो एक स्त्री-कवि का संसार हो सकता है। यह वह संसार नहीं है जिसे हम बहुत ऑब्जेक्टिविली जीते हैं। एक बहुत तरल और नीला-नीला-सा वह संसार है। उस संसार में उतरना यानी एक ऐसे अंधेरे में उतरना जिससे आपका परिचय अवचेतन के स्तर पर है। कविता के लिए वह बहुत उर्वर प्रदेश है। उसे व्यक्त करने के लिए एक दूसरी ही भाषा दरकार थी एक उपयुक्त भाषा। मैं यह तो नहीं कहूंगी कि मैंने इस भाषा को गढ़ा, लेकिन यह जरूर कहूंगी कि मैंने इस भाषा का अन्वेषण किया।’’

सविता सिंह की कविता-सृष्टि का रंग नीला है। नीला जन्मों-जन्मों की यातनाओं का रंग है। इस रंग को इस रूप में प्रथमत: सविता सिंह की कविता-सृष्टि में ही पहचाना गया है। अवचेतन-संसार में मौजूद यातनाओं का संचित-कोष अवचेतन-संसार में ही एक क्रमबद्ध बिंबात्मकता की रचना करता चलता है। सविता सिंह की कविताओं का नीला संसार इस अवचेतन-संसार के समानांतर गति करता है। एक भाषा में अब तक अकथित स्त्री-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए यह एक नए स्त्रीवादी सौंदर्यशास्त्र का निर्माण है। पिछली सदी के नवें दशक तक इस बाबत सोचना भी कुफ्र था। आठवें दशक की हिंदी कविता में किसी प्रमुख स्त्री-हस्ताक्षर का न होना भी दरअसल स्त्री-अनुभवों और आकांक्षाओं को एक पुरुष-भाषा में व्यक्त करने की पितृ-सत्तात्मक साजिश का ही निष्कर्ष है। नवें दशक में इस संरचना के विखंडित होते ही हिंदी कविता में स्त्री-हस्ताक्षरों के अभाव का द्वार टूटता है। वय-संचालित तथ्यों को परे कर दें और इस बहाव में शुभा को भी शरीक करें जिनकी कविताएं नवें दशक में ही सामने आईं तब कह सकते हैं कि कम-से-कम दस प्रमुख स्त्री-हस्ताक्षर शुभा, कात्यायनी, गगन गिल, अनीता वर्मा, अनामिका, नीलेश रघुवंशी, निर्मला गर्ग, तेजी ग्रोवर, अजंता देव और सविता सिंह इस अर्थ में नवें दशक की हिंदी कविता को एक झटके में आठवें दशक की कविता से ज्यादा वैधता, विविधता और वैशिष्ट्य प्रदान करते हैं। लेकिन जैसे कि गगन गिल ने अपनी एक कविता में कहा है कि ‘‘एक उम्र के बाद मांएं/ खुला छोड़ देती हैं लड़कियों को/ उदास होने के लिए!’’ कुछ इस तरह ही एक उम्र के बाद नवें दशक की हिंदी कविता ने इनमें से कई कवयित्रियों को बर्बाद होने के लिए खुला छोड़ दिया। इस बर्बादी के पीछे अपनी-अपनी राजनीतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक, साहित्यिक और असाहित्यिक वजहें थीं। एक उम्र के बाद अपनी कविता को एक उल्लेखयोग्य और प्रासंगिक विकास-क्रम की राह में बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्यभार है, दु:खद है कि नवें दशक की कुछ प्रमुख कवयित्रियां इसमें कामयाब नहीं हो पाईं। इस वैफल्यग्रस्त प्रमुखता से बचकर सविता सिंह ने एक बहुत मूलगामी राह ली। यह राह मुक्ति के स्वप्न के अनुकरण की राह है :

एक अद्वितीय दृश्य था वह
एक औरत अपनी जगह द्रुत गति से गोल-गोल घूम रही थी
जैसे यह उसका अपना कोई विशेष नृत्य हो
उसके शरीर से लगातार कुछ झर रहा था
शायद वे मान्यताएं जिनसे वह निर्मित हुई थी

[ अद्वितीय नाच ]

इस विशिष्ट नृत्य में प्रकृति का वह ऐतिहासिक मंथन उपस्थित है जिसमें अपनी प्राचीन, परंपरागत और रूढ़ छवि से स्वतंत्र होकर निरंतर नई होती जाती स्त्री है। रात और नींद से निर्मित सविता सिंह का मार्ग एक नीले विस्तार में अपने मुक्ति के सामूहिक स्वप्न के अनुकरण में सतत है। यह स्वप्न जागरूकता के लिए है, प्रचलित और स्वीकृत अर्थ वाली नींद के लिए नहीं। इस प्रकार की नींद में तो यह बाधा है, क्योंकि इस प्रकार की नींद तो पितृसत्ता को संज्ञायित करेगी। अंधकार की परखनली और अस्तित्व की नीली खाई में मुक्ति के लिए सतत संघर्ष इस स्वप्न का अंतर्निहित कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम के लिए नए आयुध और नए सौंदर्यशास्त्र का अन्वेषण और उसकी रचना सविता सिंह की कविता-सृष्टि को एक दार्शनिकता प्रदान करता है।


[3]
संघर्ष

‘‘...‘स्वप्न-समय’ तक आते-आते कविता मेरी वासना बन चुकी थी। ...और वासना का कोई एक ही अर्थ तो है नहीं। लेकिन यह भी नहीं कि वह अर्थ यहां नहीं है। लैंगिकता यहां जरूर है। हमारी लैंगिकता हमें अवश करती है। इस कदर हम उसकी गिरफ्त में आ जाते हैं कि अगर हम उस प्रवाह में न जाएं, जो वह चाहती है अगर हम उसे न प्राप्त करें तो यह मृत्यु के समान है। मेरी एक कविता है ‘सुंदर मृत्यु’। पोएटिक डेथ एक ब्यूटीफुल डेथ है। जब कविता समाप्त होती है, तब आप कैसे मर जाते हैं... इसका अनुमान भी बाहर के लोग नहीं लगा सकते। वासना एक इस प्रकार की सघनता है जो मृत्यु तक ले जाती है। कोई नहीं जानता कि मैं अभी कहां जा रही हूं, लेकिन अगर इस धार से मैंने हटने की कोशिश की, बीच नदी अपनी नाव रोककर रेत पर उतरने की कोशिश की तो यह मेरे लिए बहुत घातक होगा। जैसा कि कार्ल मार्क्स कहते हैं कि अब तक हमने जो भी कहा, जो भी उत्पादन किया या संस्कृति बनाई वह मनुष्य की, सभ्यता की प्री-हिस्ट्री है। हिस्ट्री तो तब शुरू होगी जब हम कम्युनिज्म को स्टैब्लिश कर लेंगे। वैसे ही मुझे लगता है कि अभी तक मैंने जो भी किया वह मेरी कविताओं का पूर्वार्द्ध है, प्री-हिस्ट्री है।’’                       

सविता सिंह की एक शुरुआती कविता का शीर्षक है : ‘रात नींद सपने और स्त्री’। यह शीर्षक उनकी समग्र कविता-सृष्टि का भी शीर्षक हो सकता है, क्योंकि इस कविता-सृष्टि को इसमें उपस्थित स्वप्नमयता ही संभाले हुए है। यों भी कह सकते हैं कि स्वप्नमयता इस कविता-सृष्टि की रीढ़ है। यह इसका संगीत भी है और केंद्रीय तत्व भी। यथार्थ इसके इर्द-गिर्द परिक्रमारत है। इसमें बहुत सजग होकर प्रवेश करना पड़ता है बहुत ध्यानपूर्वक। बकौल आशुतोष कुमार : ‘‘सविता सिंह के यहां स्वप्न एक बार-बार दुहराया जाने वाला विषय है। ...सपने से वंचित ‘स्त्री’ के लिए सपना देखना मुक्ति की रणनीति है।’’ स्वप्न पर एक अटूट यकीन और उसका बेबाक प्रकटीकरण सविता सिंह की कविताओं में साहस का सर्जनात्मक प्रसार करता है :

मैं खुश हूं कि
मेरे साथ चलते हैं मेरे सपने
शामिल मेरी खुशी में
हताशा में मेरी
थकान में भी अनवरत एक चिंता से
बताते मुझे नक्षत्रों में घूमती आत्माओं के रहस्य
समझाते पृथ्वी पर जन्म लेने के दायित्व

मैं खुश हूं कि
मैं समझ सकती हूं यह सभी कुछ
और यह भी कि सपने
सच से ज्यादा सुंदर होते हैं
और वे प्राय: स्त्री के साथ होते हैं

[ नींद में रुदन ]

यहां आकर सविता सिंह की कविताएं स्त्री-मन के मौलिक विमर्श की कविताएं बनती हैं। ये मुखौटों और एकायामी होने से बचकर मुमकिन हुई हैं। स्त्री-विमर्श का मूल संघर्ष, संशय और प्रतिध्वनियां इस कविता-सृष्टि के केंद्र तक आ रही हैं, उस देह-केंद्रित शोर को अनसुना करती हुईं जो अपने विवादमय होने की वजह से बहुत सरलता से स्त्री-विमर्श में गति कर गया। संभवत: इसलिए ही विजय कुमार सविता सिंह को लिखे एक पत्र में सविता सिंह के द्वारा देह को एक बुनियादी मेटाफर बनाए जाने की बात करते हैं, ‘‘और उसी के आधार पर तमाम तरह के रहस्यों, पार्थिव कामनाओं, गतिशीलताओं, द्वंद्वों, एहिकताओं, जकड़नों, स्वप्नों, मुक्ति की अभीप्साओं, राग-विराग की सघनताओं को रचना, ठहरना, उनका गहन पर्यवेक्षण और उनके पार चले जाने की विकलता। सदियों से स्त्री ने अपनी इस देह के ऑब्सेशन को कला में रचा है, क्योंकि इसी से गुजरकर वह वास्तव में देहहीन हो जाना चाहती है।’’                 

इस तरह देखें तो सविता सिंह की कविता अपने ही बनाए गुप्त-मार्गों में फंसती हुई कविता नहीं है। वीर भारत तलवार ने अपने एक वक्तव्य में हिंदी में मौजूद स्त्री-विमर्श के विचलनों की तरफ इशारा करते हुए कहा है कि वह महज कुछ स्त्रियों के अपने पूर्वाग्रहों, विश्वासों और मांगों का विस्फोट बनकर रह गया है। यहां यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि सविता सिंह की कविताएं इस विस्फोट के विलाप की कविताएं नहीं हैं, वे इस विस्फोट के प्रतिकार की कविताएं हैं एक दीर्घ प्रतीक्षित प्रतिकार की

विश्व-बाजार में नई स्त्री कैसे एक उत्पाद में तब्दील हो रही है और उसकी देह की मुक्ति का छद्म कैसे स्त्रीत्व के मूल संघर्ष को विपथगामी बना रहा है, सविता सिंह इस सारे कार्य-व्यापार को भेदती हैं। इस छल को बदरंग और बेहिस करती हैं :

कुछ लोग अब समझ रहे हैं
नारी-मुक्ति के हैं कुछ फायदे भी
कहते हैं देखिए किस तरह ढो रही हैं औरतें
पहले से आठगुना भार
पैदा कर रही हैं पाल रही हैं बच्चे अकेले ही
चला रही हैं देश और समाज
कमा रही हैं खा रही हैं अपना
मुक्त कर चुकी हैं पुरुषों को अपने से पहले ही

सोचकर लगता है कि कितना निरर्थक था
बांधकर उन्हें रखना गायों की तरह
और खुद मरते रहना दाना-पानी के लिए सबके
वैसे भी कब चाहिए थीं औरतें प्रेम के लिए किसी को
जिनके साथ करना पड़ता था साझा तन से ज्यादा धन का
अच्छा है मुक्त हो रही हैं मिल सकेंगी स्वच्छंद संभोग के लिए अब
एक समय जैसे मुक्त हुआ था श्रम पूंजी के लिए

[ मुक्ति के फायदे ]

सविता सिंह की कविता-सृष्टि की अंतर्योजना दरअसल उस संघर्ष से संचालित है जिसकी मूल प्रतिज्ञा उन विमर्शों की भयावहता को उजागर करना भी है जो ‘फेमिनिन’ होने का दावा करते हैं, लेकिन पितृ-सत्तात्मक और सामंती प्रभावों से मुक्त नहीं हैं और इसलिए इस प्रकार के सब विमर्श महज भ्रम हैं। यह संघर्ष इस प्रकार परंपरा और आधुनिकता दोनों में ही ‘पौरुष’ की दृश्य-अदृश्य मौजूदगी की पड़ताल का संघर्ष भी है। शमशेर बहादुर सिंह की प्रसिद्ध कविता ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ का सविता सिंह कृत स्त्रीवादी पाठ भी इस संघर्ष का ही एक अंश प्रतीत होता है, जहां वह रीटा फेलस्की की पुस्तक ‘बियोंड फेमिनिस्ट एस्थेटिक्स’ के हवाले से कहती हैं : ‘‘स्त्रीवाद सामाजिक यथार्थवाद को पूरी तरह खारिज नहीं करना चाहता, जिस तरह मॉडर्निज्म ने किया, न ही वह आधुनिकतावादी दौर के उस परिवर्तनकारी प्राप्य को ही गंवाना चाहता है जो उसने अपने अतिवादी दौर में पैदा किया। वैसे चूंकि ये सारे कलात्मक कार्य पितृ-सत्ता की जकड़नों पर कभी पूरी गहराई से प्रहार नहीं कर सके इसलिए हम जूलिया क्रिस्तेवा और तमाम बाकी पोस्टमॉडर्न फेमिनिस्टों के संदर्भ में यही कह सकते हैं कि परंपराओं को तोड़ना भी एक परंपरा बन सकती है।’’

[4]
मुक्ति

‘‘...अवचेतन के संसार का जो धुंधलका है, वह मुझे बहुत नीला-नीला दिखता है। इस नीले में बहुत सारा लाल भी है। इसमें काला और सफेद भी है। इसमें नीले के भी कई शेड्स हैं। नीले रंग का मतलब है एक दूसरी दुनिया, एक अलग संभावना जीवन के लिए, भाषा के लिए, संस्कार के लिए, संस्कृति के लिए, प्रेम के लिए... कोई क्या सोच भी सकता है कि प्रेम का एक बहुत अलग रूप भी हो सकता है जिसमें स्त्री-पुरुष का होना ही सबसे केंद्रीय बात न हो। वह बिल्कुल दूसरी ही तरह की भावनाओं पर आधारित हो और जहां हमारी लैंगिकता बिल्कुल चूक जाए। उसके लिए कोई विशिष्ट जगह न हो। जैसे फूलों की महक की क्या लैंगिकता है? मैं कुछ इस तरह महसूस करती हूं कि आने वाले वक्त में संबंध कुछ इस तरह के होंगे कि उनका प्रभाव, उनकी व्याप्ति, उनका लक्ष्य और उनकी प्राप्ति इस वक्त से कुछ अलग होंगे। बहुत मुमकिन है कि उसमें पुरुष का कोई रेफरेंस ही न हो। एक अलग स्वायत्त दुनिया हो।’’

सविता सिंह का तीसरा कविता-संग्रह ‘स्वप्न समय’ अपनी पूरी बनत में मुक्ति के लिए एक नए सौंदर्यशास्त्र के प्रस्ताव सरीखा है। यहां आकर यह भी लगता है कि इन कविताओं ने अब वह कर दिखाया है जिसका स्वप्न इनकी पूर्ववर्ती कविताओं ने देखा था :

आखिरकार अपनी भाषा में हूं सुकून से
मुझे खोजने आ सकते हैं मेरे प्रेमी
मैं मिलूंगी भी अब शायद उन्हें सजी-धजी
उनका स्वागत करती
अब मुझमें कोई संशय नहीं
न भीरुता पहले वाली
जरा भी रहस्यमय नहीं रहूंगी अब मैं
जैसे मैं थी जब नहीं समझती थी भाषा के तिलिस्म को
उसके विस्तार को

[ नया एकांत ]

इस संग्रह में पूर्वानुभव और पूर्वानुमान की अचरज में डाल देने वाली कविताएं भी हैं एक स्वप्नकाल में संभव ये कविताएं अपना सत्य साथ लेकर आई हैं। ‘सपने और तितलियां’, ‘शैटगे : जहां जिंदगी रिसती जाती है’, ‘चांद तीर और अनश्वर स्त्री’ और ‘स्वप्न के ये राग’ जैसी चार लंबी कविताओं में मौजूद यथार्थ पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैश्विक स्तर पर भविष्य में घटा या घटेगा यों प्रतीत होता है। यह घटनात्मकता ही सविता सिंह की कविता-सृष्टि की वह राजनीति है जो मुक्ति के स्वप्न का अनुकरण करती है। इस स्वतंत्र देश में/ यह आवाज उनकी है जिनकी आवाज बद से बदतर होती गई है/ इस आवाज में एक रोष है... यहां तक आते-आते सविता सिंह की कविताएं अंतत: उन यातनाओं के पार चली जाती हैं जिनका स्वप्न उन्होंने अपने ही एक शीर्षक ‘रात का दरवाजा’ में देखा था यह पारगमन शक्ति-विमर्श को खारिज कर स्त्री-स्वातंत्र्य की स्थापना करता है। इस स्वायत्त संसार में पुरुष का रेफरेंस न होने की जो बात सविता सिंह ने ऊपर की है, वह प्रेम के संसार को मृत्यु से आक्रांत मानते हुए की गई है और प्रेम के मध्य में मौजूद हिंसा से उत्पन्न ऊब का निष्कर्ष है। सविता सिंह की कविता-सृष्टि में प्रेम मुक्ति में बाधा की तरह उपस्थित है। वह स्त्री के लिए परतंत्रता के प्रमाणपत्र सरीखा है। उसमें उपस्थित प्रतिज्ञा-दुर्बलता, अकारण बंधुत्व, सभ्य चरित्रहीनता और संघर्षशून्यता की वजह से सविता सतत अपनी काव्य-स्त्री को प्रेम से सचेत करती हुई चलती हैं। ‘नींद थी और रात थी’ की कुछ कविताओं से कुछ पंक्तियां यहां इस बात को थोड़ा और स्पष्ट करेंगी :

क्रूरता को कोमलता के लिहाफ में छिपाने की कला भी
एक कला है
यातना की कविता प्रेम की कविता के बरअक्स तभी
खड़ी कर दी जाती है
ताकि पता न चले प्रेम करने वाला
यातना देने वाला है या खुद पाने वाला

[ प्रेम और यातना की कविता ]


कितना कठिन है उस स्त्री के जीवन का रास्ता
जो किसी पुरुष से कहे
‘मेरा जन्म ही तुमसे प्रेम करने के लिए हुआ है’

[ वह खुद तक पहुंचे ]

यह सच है पुरुषों के हमेशा काम आई हैं औरतें
आज भी प्रेम के बहाने उन्हें ले जाया जा सकता है अंधेरों में

[ मुक्ति के फायदे ]

कितना मिलता-जुलता है झूठ भी सच से आखिर
मृत्यु ज्यों प्रेम से

[ पसंद की जाने वाली स्त्री ]

प्रेम को एक द्वंद्वात्मकता में बरतती हुई सविता सिंह की कविताओं में मौजूद स्त्री-मुक्ति का एजेंडा किसी विचारधारा से आक्रांत प्रतीत नहीं होता है। संसार में वास्तविक परिवर्तन के लिए विश्व भर के सर्वहारा के स्त्रीकरण पर जोर दिया गया है। अस्तित्वगत जीवन की स्त्री-विवशताएं एक संवेदनशील मस्तिष्क को स्त्रीधर्मी या स्त्री-पक्ष बनने के लिए बाध्य करेंगी ही। साम्यवादी विचारधारा से इस मस्तिष्क का प्रकटत: कोई विरोध मुमकिन नहीं है, लेकिन फिर भी ‘‘सविता सिंह की कविता किसी एक सूझ या निर्दिष्ट ‘आइडिया’ की कविता नहीं है’’ प्रभात त्रिपाठी की इस बात से असहमति की गुंजाइश नहीं है, तब तो और भी नहीं जब वह इस बात को आगे यों विश्लेषित करते हैं : ‘‘वह वस्तु-जगत की सदेह उपस्थिति को एक विशिष्ट व्यक्ति के स्तर पर जानती हैं, और जबरन के आत्म-विस्तार के चक्कर में भाषिक दौड़ लगाने के बजाए आत्म के उस रूप को देखती हैं जो प्रकृति के विस्तार में, उसकी जीवंत उपस्थिति में, आत्मेतर से एक अधिक गहरा रिश्ता बनाती है। शायद यह किसी भी सच्ची-खरी और आत्मस्थ कविता की बुनियादी शर्त है। इसलिए जब हम उनकी कविता में स्त्री की आवाज की बात करते हैं तो उसे प्रकृति की और कविता की आवाज से अलगाकर पढ़ना, उसकी संश्लिष्टता से ही नहीं, उसकी मूलभूत वेदना से भी कट जाने जैसा है। शुरू से ही स्त्री-पक्ष की कविता लिखते हुए उन्होंने अपनी आत्मस्थता को पूरी ईमानदारी से लिखा है, और उनका सामान्य सहज अर्थ ही यह सूचित करता है कि स्त्रियों को मुक्त ‘कराने’ या उन्हें मुक्ति की सिर्फ प्रेरणा देने के इरादे से, या फिर किसी ऊंचाई से लिखी गई भाषा यह नहीं है।’’

सविता सिंह की वर्गीय स्थिति उनकी कविता-सृष्टि को सीमित नहीं करती है। वह इस बोध से युक्त है कि मुक्ति अकेले में नहीं है। प्रेम को सतत द्वंद्व की निगरानी में रखने के बावजूद यह कविता-सृष्टि ‘सौंदर्य का आश्चर्यलोक’ लगती है, क्योंकि इसके केंद्र में मुक्ति के स्वप्न का अनुकरण है। सविता सिंह की असंकलित कविताएं भी उनके इस अनुकरण का विस्तार करती हैं। इन कविताओं में भाषा पर आ रही आपदाओं और व्यक्तिगत यातनाओं की अभिव्यक्ति एकमेक होकर उम्मीद और साहसिकता से भरे स्वर को रच रही है :

तुम्हें सामंतों को सामंत
और दमन को दमन ही कहना है
भूलना नहीं है अपना कठिन व्याकरण

हम इस दुनिया को बदल सकते हैं
अपनी इस सख्ती से
हमें किसी के पांवों पर गिरने की क्या जरूरत

[ हिंदी मेरी भाषा ]

अब तलक अवसाद के तीरे-तीरे चलती हुई इन कविताओं में इस वसुधा की नई रंगतें हैं। मुक्ति को एक संदिग्ध शब्द और ताकत को असली मुद्दा मानने वाले संसार में अवसाद का साथ न छूटना, मनुष्यता और मुक्ति के स्वप्न का साथ नहीं छूटने जैसा ही है।

***

...बस कुछ और वाक्यों के बाद एक कविता-सृष्टि में एक एकाग्रता भंग होगी। एक अलंघ्य प्यास को लांघने का एक स्त्री-स्वप्न एक अपूर्णता में टूटेगा। संशय होगा उस स्पष्टता के संदर्भ में जो इस कथ्य की आकांक्षा है कि स्वप्न और स्त्री इस कविता-सृष्टि में एक ही हैं। स्वप्नातीत यहां कुछ भी नहीं है। सब कुछ स्वप्नवत है। संसार को बदलने का स्वप्न यहां ईश्वर की भूमिका से नहीं, स्त्री की कामना से गतिशील है। स्त्री जो कवयित्री की भाषा में रात में स्वप्न है एक नीला विस्तार, अज्ञात है जिसका ज्यादातर हिस्सा... 

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संदर्भ :

प्रस्तुत आलेख में सविता सिंह के अब तक प्रकाशित तीन कविता-संग्रहों ‘अपने जैसा जीवन’ (2001), ‘नींद थी और रात थी’ (2005), ‘स्वप्न समय’ (2013) को आधार बनाया गया है इससे अलग ‘संवेद’ (जुलाई-2013) और ‘जनसत्ता’ (13 मार्च 2016) में प्रकाशित उनकी असंकलित कविताओं और ‘उद्भावना’ के शमशेर विशेषांक के शेषांक में प्रकाशित उनके आलेख ‘शमशेर बहादुर सिंह का काव्य-रहस्य और सौंदर्य के भयावह फूल : टूटी हुई बिखरी हुई का एक स्त्रीवादी पाठ’, ‘आलोचना’ में प्रकाशित उनके आलेख ‘हिंदी साहित्य में स्त्री आलोचना : आरंभिक प्रयास’ के साथ-साथ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में और इंटरनेट पर मौजूद उनके वक्तव्यों और टिप्पणियों से भी पर्याप्त मदद ली गई है आलेख के प्रत्येक खंड के प्रारंभ में प्रस्तुत उद्धरण सविता सिंह से हुई एक अन्यत्र अप्रकाशित बातचीत (रिकॉर्डेड) के चुनिंदा अंश हैं यह बातचीत इस आलेख की रचना के दरमियान ही मुमकिन हुई सुधीश पचौरी को उद्धृत करने के लिए ‘जनसत्ता’ (17 जून 2001) में प्रकाशित समीक्षा ‘वह किसकी औरत है’, विष्णु नागर को उद्धृत करने के लिए ‘पहल’ में प्रकाशित ‘अपने जैसा जीवन’ पर केंद्रित समीक्षात्मक आलेख ‘पिछली सदी के अंत से बनती हुई औरत की कविता’, आशुतोष कुमार को उद्धृत करने के लिए tirchhispelling.wordpress.com पर 4 जनवरी 2015 को प्रकाशित आलेख ‘यथार्थ का दुस्स्वप्न और आखेटक स्त्री’, विजय कुमार को उद्धृत करने के लिए streekaal.com पर 28 जनवरी 2015 को प्रकाशित पत्र और प्रभात त्रिपाठी को उद्धृत करने के लिए उनकी पुस्तक में ‘तुमुल कोलाहल कलह में’ शामिल प्रदीर्घ आलेख ‘सविता सिंह का स्वप्न समय’ को पढ़ा गया है इसके अतिरिक्त गए पंद्रह बरस में सविता सिंह के कविता-संग्रहों और उनके कविता-संसार पर केंद्रित प्रथम श्रेणी के टिप्पणीकारों की तमाम टिप्पणियों को भी नजर में लाया गया है, यह अलग कथ्य है कि प्रयोग में नहीं...।  

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पहल के 105वें अंक और pahalpatrika.com पर पूर्वप्रकाशित. 
सविता सिंह की तस्वीर सुघोष मिश्र  के कैमरे से.