‘तद्भव’ के 30वें अंक में वरिष्ठ कवि अरुण कमल अपने आत्मकथात्मक-वृत्तांत में कहते हैं, ‘‘बहुत से लोग आते हैं, कोई विज्ञप्ति चाहता है, कोई प्रशंसा, कोई लोकार्पण। इनमें से अधिसंख्य ने मेरी एक भी पंक्ति नहीं पढ़ी होती। …अगले जन्म में अगर मैं कुत्ता हुआ तो इनको जरूर काटूंगा। इस जन्म में तो कुछ न कर सका। वाल्टर बेन्यामिन ने ऐसे ही लोगों को लक्ष्य करके कहा था कि इनके साथ इनके प्रकाशकों को भी दंडित किया जाना चाहिए। लिखना और छपना इतना आसान भी नहीं होना चाहिए।’’
प्रस्तुत उद्धरण के प्रकाश में अगर वर्ष 2014 के हिंदी साहित्य पर निगाह डाली जाए तो नजर आएगा कि लिखना और छपना इतना आसान यहां कभी भी नहीं था। इन दिनों नए-नए ट्रेंड आ रहे हैं और लोकप्रियता पर नए सिरे से बहस जारी है। इस लोकप्रियता में निश्चित तौर पर धंधेबाजी के सूत्र भी हैं, लेकिन फिलहाल इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। हिंदी में ऐसे रचनाकारों की एक भीड़ आ गई है जो हिंदी की कथित मुख्यधारा से बाहर के हैं, लघु पत्रिकाओं में छपकर जिन्होंने अपनी पहचान अर्जित नहीं की। ये रचनाकार विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों और लेखक-संगठनों से निकलकर नहीं आए। वैचारिकता और जन-सरोकारों का कोई ताप भी इनमें नहीं है। इनके पीछे नए प्रकाशन-विकल्प, तकनीक और बाजार का वह सम्मिश्रण है जो मुख्यधारा के लिए दूषित है। यह सम्मिश्रण इन्हें आगे लाया है और लग रहा है कि आगामी वक्त में और भी आगे ले जाएगा। यह अलग बात है कि वास्तविक और गंभीर कृतियां अब तक इनके पास नहीं हैं। लेकिन ये वह पुल बना सकते हैं जो टी.वी. चैनल्स और इंटरनेट की बाढ़ में लुगदी साहित्य की अप्रासंगिकता के बाद टूट गया और जिसके रास्ते बहुत सारे पाठक देश-दुनिया के वास्तविक और गंभीर साहित्य तक आते थे। इन रचनाकारों की प्रासंगिकता फिलहाल पुल बनाने में ही है। इसमें ही इनका और उस साहित्य का भविष्य है जो अब तक रस्सी जल गई, लेकिन बल नहीं गया वाले में मुहावरे में जीता है।
इस टूटे पुल की निर्माणाधीनता में इस वर्ष जयपुर से रायपुर तक, भारत भवन से रवींद्र भवन तक और प्रगति मैदान से गांधी मैदान तक साहित्य और साहित्येतर चर्चाएं होती रहीं। पत्रिकाओं, ब्लॉग्स और ‘फेसबुक’ पर विवाद और सूचनाएं आती-जाती रहीं। नए पुरस्कारों का गठन हुआ और पुराने प्रतिवर्ष प्रदान करने की बाध्यता से ग्रस्त रहे। कुछ संस्थानों के निदेशक और कुछ पत्रिकाओं के संपादक बदल गए। कुछ नई पत्रिकाएं शुरू हुईं तो कई पुरानी पत्रिकाएं बंद हो गईं। कुछ नए प्रकाशन सामने आए तो पुराने और प्रतिष्ठित प्रकाशनों ने अपने नए उपक्रम लॉन्च किए। कुछ नए रचनाकारों ने मुहावरे में कहें तो भीड़ में अपनी अलग पहचान बनाई और कई नए रचनाकारों ने ‘हिंदीसाहित्यसंसार’ में प्रवेश लिया तो देश-दुनिया और हमारी भाषा के कई रचनाकारों का रचा ही अब शेष रह गया, जैसे : गैब्रियल गार्सिया मार्केज, नादिन गॉर्डिमर, तादेऊष रोजेविच, माया एंजेलो, यू आर अनंतमूर्ति, नवारुण भट्टाचार्य, नामदेव ढसाल, अमरकांत, खुशवंत सिंह, जगदंबा प्रसाद दीक्षित, मदनलाल मधु, अशोक सेकसरिया, ज्योत्स्ना मिलन, मधुकर सिंह, रॉबिन शॉ पुष्प, तेज सिंह, सुरेश पंडित, आनंद संगीत, नंद चतुर्वेदी...।
इस परिदृश्य में मैं हिंदी साहित्य से वर्ष 2014 की 14 किताबें चुनना चाहता हूं। ‘‘प्रत्येक चुनाव में व्यक्तिगत सीमाएं और रुचियां जरूरी भूमिका निभाती हैं’’— ऐसे अवसरों पर बहुधा उद्धृत इस वाक्य के बाद यह कहने से कि यह चयन भी अंतिम और निर्दोष नहीं है, मेरा काम कुछ कम मुश्किल हो जाता है।
उपन्यास
‘चलती है गाड़ी उड़ती है धूल’ वाले अंदाज में हिंदी में इस वर्ष बहुत सारे उपन्यास आए और गए, लेकिन यहां चर्चा-योग्य मैं सिर्फ दो ही उपन्यासों को पा रहा हूं— काशीनाथ सिंह का ‘उपसंहार’ और अखिलेश का ‘निर्वासन’। ये दोनों ही उपन्यासकार वरिष्ठ हैं। दरअसल, कई युवा कवि और कहानीकार गए कुछ वर्षों में उपन्यास-लेखन की ओर प्रवृत्त तो हुए हैं, लेकिन यह एकदम स्पष्ट है कि यह विधा अभी उनसे सध नहीं रही। बात करें ‘उपसंहार’ की तो यह कृष्ण के अंतिम दिनों की कथा है। यह कथा ईश्वर के बहाने मनुष्य की कथा कहती है और सत्ता और युद्ध के दुष्प्रभावों के बीच संवेदनाओं और प्रेम के संकट और व्याख्या को उकेरती है।
‘निर्वासन’ को लेकर बहुत बहस चली और इस पर हुई चर्चाओं के साहित्येतर निहितार्थ भी खोजे गए। इसे बगैर पढ़े या अधूरा पढ़कर भी इस पर टीका-टिप्पणी का आलम रहा। लेकिन आसान बातें कैसे मकसद बन जाती हैं, यह जानने के लिए इस उपन्यास के नजदीक जाना चाहिए। यह कुछ देर के लिए अवसाद में ले जाता है तो जो पहले से ही अवसाद में हैं, उन्हें कुछ देर के लिए अवसाद से बाहर लाता है। यह भावुक करता है और कहता है कि तुम मुझे बुरा कैसे कह सकते हो मैंने तुम्हें रुलाया है। मैं तुम्हारी स्थानीयताओं का विश्लेषण हूं, मैं तुम्हारी स्मृतियों की अभिव्यक्ति हूं।
कहानी
‘हॉर्न दीजिए, साइड लीजिए’ वाले अंदाज में इस वर्ष बहुत सारे कहानी-संग्रह भी आए और गए, लेकिन चर्चा-योग्य मैं सिर्फ चार को ही पा रहा हूं— योगेंद्र आहूजा का ‘पांच मिनट और अन्य कहानियां’, पंकज मित्र का ‘जिद्दी रेडियो’, मनोज कुमार पांडेय का ‘पानी’ और आशुतोष का ‘मरें तो उम्र भर के लिए’।
‘पांच मिनट और अन्य कहानियां’ से बेहतर कहानी-संग्रह इस वर्ष हिंदी में ढूंढ़े नहीं मिलेगा। त्रासदी यह है कि इस संग्रह की कोई समीक्षा नहीं आई— ‘फेसबुक’ पर एक टिप्पणी तक नहीं। आयोजन, चर्चाएं, समीक्षाएं और टिप्पणियां... हिंदी में आजकल जनसंपर्क, ताकत और पैसे का खेल होती जा रही हैं, ऐसे में योगेंद्र आहूजा जैसे आत्मप्रचार और जनसंपर्क से दूर ईमानदार व्यक्ति/लेखक के कहानी-संग्रह पर चुप्पी स्वभाविक है। ‘एक्यूरेट पैथोलॉजी’, ‘स्त्री विमर्श’, ‘पांच मिनट’ और ‘खाना’ जैसी कहानियों के साथ-साथ इस संग्रह में योगेंद्र आहूजा का आत्मकथ्य भी है।
‘जिद्दी रेडियो’ में टिपिकल पंकज मित्र टाइप कहानियां हैं। वह आगे नहीं बढ़े हैं, लेकिन उनकी कहानियां अब भी उल्लेखनीय, महत्वपूर्ण और पढ़े जाने लायक हैं।
‘पानी’ की कहानियों में लोक और प्रतीक कथाओं का परिवेश है। ‘पानी’, ‘पुरोहित जिसने मछलियां पाली’, ‘पत्नी चेहरा’ और ‘जींस’ इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानियां हैं।
‘मरें तो उम्र भर के लिए’ की कहानियां भी इस बात की तस्दीक करती हैं कि हिंदी में युवा रचनाकार अब भी उपन्यास की तुलना में लंबी कहानी बेहतर लिख रहे हैं।
कविता
‘होश आया भी तो कह दूंगा कि मुझे होश नहीं’ वाले अंदाज में इस वर्ष बहुत सारे कविता-संग्रह भी आए और गए, लेकिन चर्चा-योग्य मैं सिर्फ चार को ही पा रहा हूं— केदारनाथ सिंह का ‘सृष्टि पर पहरा’, ऋतुराज का ‘फेरे’, अजंता देव का ‘घोड़े की आंखों में आंसू’ और प्रभात का ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’।
केदारनाथ सिंह ने जो मुहावरा साधा है उस मुहावरे से बाहर जाने की उन्होंने कभी कोई कोशिश नहीं की है। एक ऐसे हिंदी कविता-समय में जब खुद को क्रास करने के चक्कर में केदारनाथ सिंह से उम्र में कम कई वरिष्ठ कवियों की सांस फूलने लगी हैं। केदारनाथ सिंह बहुत आराम और शाइस्तगी से चल रहे हैं, हालांकि देख वह वही सब रहे हैं जो पहले देख चुके हैं। इस देख चुके को देखने के लिए ही वह बार-बार देखी जा चुकी जगहों पर लौटते हैं। ‘सृष्टि पर पहरा’ की कविताएं पढ़ते हुए कहीं ऐसा नहीं लगता कि इस प्रक्रिया और चाल-चलन ने उन्हें बिलकुल भी थकाया है।
ऋतुराज का कवि-व्यक्तित्व केदारनाथ सिंह से बिलकुल फर्क है। संग्रह-दर-संग्रह उनके कवि का दायरा बढ़ता जाता है। ‘फेरे’ में मौजूद कविताएं भी इसकी बानगी हैं।
‘घोड़े की आंखों में आंसू’ अजंता देव का तीसरा कविता-संग्रह है और यह उनके काव्य-विस्तार का प्रमाण है। इस संग्रह की कविताएं फार्मूलों से इस कदर दूर हैं कि यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि हिंदी की कई वरिष्ठ लेखिकाओं को इनके पास शऊर मांगने जाना चाहिए।
‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ में अपनी तरह का लोक और संवेदनाएं हैं। बहुत सारे अवसाद के बीच बहुत सारी आशा का स्वर इन कविताओं को विशिष्ट बनाता है।
[‘‘असद जैदी के तीनों पूर्व प्रकाशित कविता-संग्रह भी इस वर्ष एक जिल्द में ‘सरे-शाम’ नाम से शाया हुए’’— इस वाक्य को यहां सारी गणनाओं से बाहर पढ़ा जाए।]
आलोचना
हिंदी में अकादमिक आलोचना बहुत सारे उद्धरणों को एक जगह रख देने का नाम है, लेकिन फिर भी ‘यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए’ वाले अंदाज में आलोचना की भी कई पुस्तकें इस वर्ष आईं और गईं। मैं यहां कोई टिपिकल आलोचना-पुस्तक न चुनकर दो ऐसी किताबों का उल्लेख करूंगा जिन्होंने इस वर्ष हिंदी आलोचना को नई छवि दी। इनमें पहली है डायरीनुमा आलोचना— अनुराग वत्स के संपादन में आई कुंवर नारायण की ‘रुख’ और दूसरी है विनिबंधीय आलोचना— ‘रघुवीर सहाय’ पर पंकज चतुर्वेदी का द्वारा लिखा गया मोनोग्राफ।
संस्मरण
केवल एक— मालचंद तिवाड़ी कृत ‘बोरूंदा डायरी’। यह पुस्तक विजयदान देथा उर्फ बिज्जी का विदा-गीत है। डायरी शैली में लिखे गए इन संस्मरणों को पढ़कर बिज्जी से संबद्ध सारे संसारों को जाना जा सकता है।
विविध
मैं यहां ‘उद्भ्रांत’ हो गया हूं, अब मुझे केवल एक पुस्तक चुननी है और मेरे पास तीन विकल्प हैं— मंगलेश डबराल के साक्षात्कारों का संचयन ‘उपकथन’, कृष्ण कुमार की पुस्तक ‘चूड़ी बाजार में लड़की’ और प्रमोद सिंह की गद्य के कई रंग दिखाने वाली ‘अजाने मेलों में’। ‘‘प्रत्येक चुनाव में व्यक्तिगत सीमाएं और रुचियां जरूरी भूमिका निभाती हैं’’— इसलिए मैं चाहता हूं इन पंक्तियों को पढ़ने वाले इन सीमाओं और रुचियों का अतिक्रमण कर इस स्थान पर इन तीन में से कोई भी एक पुस्तक रख सकते हैं। मुझे रखना होगा तो मैं ‘अजाने मेलों में’ को रखूंगा। यह पुस्तक एकालाप और सुख की प्रतीक्षा के असंख्य ढंग सिखाती है।
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...और आखिर मैं यह कहना आवश्यक है कि मैंने यह सब उस छात्र की तरह लिखा है जिसे सारे उत्तर पता होते हैं, लेकिन वक्त की कमी के चलते जो पर्चा पूरा कर नहीं पाता।
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[ ‘दि संडे पोस्ट’ में प्रकाशित ]
तस्वीर : Christine Ellger
तस्वीर : Christine Ellger
फिर भी उसके अधूरे पर्चे से सारी संभावनाएं झलक जाती है और योग्य अध्यापक उसकी परख कर लेता है।
ReplyDeleteआपकी लेखनी का जादू अब चढ़ रहा है। आपकी नज़र कमाल तो है हीं
सुन्दर!!
ReplyDeleteप्रस्तुत आलेख प्रकाशक के लिए यहाँ सुखद अनुभूति है पर वर्षभर में मात्र 14 पुस्तक चुनकर उसपर जो त्वरित टिप्पणी दी गई है वह पाठक और लेखक को असहज प्रतीत होती है l कृतियों पर चाबुक जड़ा गया है l
ReplyDeleteबड़े ही सुलझे हुए तरीके से साल भर का साहित्यिक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। इस दुरूह कार्य के लिए आपको बधाई ।
ReplyDeleteइतने संतुलित और सहज तरीके से कृतियों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है कि पढ़कर कुछ को पढ़ने की उत्सुकता जाग गयी है।
ReplyDeleteShaandaar parichay...Jyadatar ki ruchi inhi kitabon mein rhi...
ReplyDeleteJyadatar ki pasand ki kitaaben yahi rhi...Achchha lekha jokha . Avinaash Ji Dhanyavaad!!
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