‘‘सूक्ष्म अंतर्दृष्टि।
संयत कला। अनुशासन और आत्मीयता।’’ यह अशोक वाजपेयी का निर्णायक मत है। यह उन्होंने
आज से करीब पैंतीस वर्ष पहले अरुण कमल को उनकी कविता ‘उर्वर प्रदेश’ के लिए प्रथम भारत भूषण अग्रवाल स्मृति युवा कविता
पुरस्कार से नवाजते हुए दिया था।
‘‘बिलकुल अप्रत्याशित
मुहावरे। समय का आख्यान। गहन इतिहासबोध। आवृत मार्मिकता। जटिल अनुभव और स्थितियों
का समाहार।’’ यह अरुण कमल का निर्णायक मत है। यह उन्होंने करीब पच्चीस दिन पहले
आस्तीक वाजपेयी को पैंतीसवें भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता पुरस्कार से नवाजते हुए
दिया।
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार अशोक वाजपेयी के घर का पुरस्कार है और आस्तीक वाजपेयी अशोक वाजपेयी के घर के हैं। भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के सारे निर्णायक अशोक वाजपेयी-ग्रुप के हैं या उनसे असहमत हो पाने की क्षमता के बाहर के...। आस्तीक वाजपेयी की कविताएं ‘समास’, ‘पूर्वग्रह’ और ‘सदानीरा’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आस्तीक बहुत खराब कविताएं लिखते हैं। अशोक वाजपेयी वाम-विरोधी हैं। अरुण कमल ‘वामपंथी’ हैं। भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समारोह का आयोजन पांच वर्ष में एक बार होता है। गए पैंतीस वर्षों में भारत ने कई मध्यावधि चुनाव देखे हैं, लेकिन भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार ने एक भी मध्यावधि आयोजन नहीं देखा। यहां आकर अब मुझे इन छोटे-छोटे वाक्यों से कुछ बड़े वाक्यों की ओर बढ़ना चाहिए...।
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार अशोक वाजपेयी के घर का पुरस्कार है और आस्तीक वाजपेयी अशोक वाजपेयी के घर के हैं। भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के सारे निर्णायक अशोक वाजपेयी-ग्रुप के हैं या उनसे असहमत हो पाने की क्षमता के बाहर के...। आस्तीक वाजपेयी की कविताएं ‘समास’, ‘पूर्वग्रह’ और ‘सदानीरा’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आस्तीक बहुत खराब कविताएं लिखते हैं। अशोक वाजपेयी वाम-विरोधी हैं। अरुण कमल ‘वामपंथी’ हैं। भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समारोह का आयोजन पांच वर्ष में एक बार होता है। गए पैंतीस वर्षों में भारत ने कई मध्यावधि चुनाव देखे हैं, लेकिन भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार ने एक भी मध्यावधि आयोजन नहीं देखा। यहां आकर अब मुझे इन छोटे-छोटे वाक्यों से कुछ बड़े वाक्यों की ओर बढ़ना चाहिए...।
तीन अगस्त 2014, रविवार की
शाम भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समारोह का आयोजन नई दिल्ली के तानसेन मार्ग पर स्थित
त्रिवेणी सभागार में हुआ। पुरस्कृत कवि : व्योमेश शुक्ल (2010), अनुज लुगुन (2011), कुमार अनुपम (2012), प्रांजल
धर (2013), आस्तीक वाजपेयी (2014)। मंचासीन निर्णायक : उदय
प्रकाश, अनामिका। अध्यक्ष : केदारनाथ सिंह।
संचालन : अशोक वाजपेयी। संयोजक : अन्विता अब्बी।
इस तथ्य को प्रतिवर्ष एक
दिन और पांचवें वर्ष में दो दिन बहुत गहराई से महसूस किया जाता है कि अगर भारत
भूषण अग्रवाल पुरस्कार न होता तो भारत भूषण अग्रवाल का क्या होता। यकीनन उन्हें
वैसे ही भुला दिया गया होता जैसे ‘तार सप्तक’ के बहुत सारे कवियों को...। वक्त
बहुत वक्त तक प्रभावहीनता को बर्दाश्त नहीं करता। लेकिन ‘स्मृति-उपक्रम’ कुछ भी
संभव कर सकते हैं। नवीनतम उपक्रम की शुरुआत बहुत भद्दी रही। भारती
शर्मा के निर्देशन में रंग-संस्था ‘क्षितिज’ द्वारा दी गई भारतभूषण अग्रवाल की
कविताओं की नाट्य-प्रस्तुति में न नाट्य था, न प्रस्तुति। ‘मांसल’ को मासल और
‘रुचि’ को रूची पढ़ते अभिनय या कहें पाठ ने भारत भूषण अग्रवाल की कविताओं के प्रति
बहुत घृणा उत्पन्न की। उनके सड़े हुए तुक्तकों की दुर्गंध तब और मुखर हो गई जब इस
रंग-समूह ने दर्शकों को चौंकाने के लिए अपना आखिरी या कहें एकमात्र दांव खेला। इन
तुक्तकों को ‘रैप’ करके कलाकारों या कहें विदूषकों ने सभागार में अरुण कमल की तरह
ही नामौजूद यो यो हनी सिंह की कमी को भर दिया। तकरीबन पैंतीस मिनट लंबी इस यातना के बाद अन्विता अब्बी ने कविता-प्रस्तुति
के संदर्भ में हुई इस ‘आधुनिक पहल’ को सराहते हुए भारती शर्मा का आभार प्रकट किया
और विषयांतर करते हुए कहा कि अरुण कमल पटना से रवाना तो हुए थे, लेकिन पता नहीं
दिल्ली क्यों नहीं पहुंचे...।
इसके बाद जब संयोजक द्वारा मंचस्थ होने
के लिए अध्यक्ष, निर्णायकों और संचालक को आमंत्रित किया गया तो केदारनाथ सिंह
केंद्र ढूंढ़ने लगे, अशोक वाजपेयी ने उन्हें केंद्र बताया तब वह उदय प्रकाश के बगल
में बैठे जो तब तक अनामिका के बगल में बैठ चुके थे। केदारनाथ सिंह का इस तरह बैठना
अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश के बीच में बैठना था। उनका इस तरह बैठना अनामिका से कुछ दूर
बैठना था।
‘‘अब तक पैंतीस कवियों को
यह पुरस्कार मिल चुका है। यह प्रतिवर्ष प्रकाशित एक श्रेष्ठ कविता पर दिया जाता
है, सर्वश्रेष्ठ कविता पर नहीं।’’ यह कहते हुए अशोक वाजपेयी माइक पर थे। उन्होंने
युवा कवियों का आत्मविश्वास तोड़ने वाले कुछ अर्थवंचित वाक्य कहे। इन वाक्यों का
प्रसार और न बढ़े इस दृष्टि से मैं इन्हें यहां उद्धृत नहीं कर रहा हूं। उन्होंने इस
बात को बहुत शान से शाया किया कि इस पुरस्कार की ज्यूरी और प्रक्रिया सार्वजानिक
है। उन्होंने कहा कि हिंदी के बहुत सारे पुरस्कारों पर एक अजब किस्म की गोपनीयता
का आतंक हावी है। अशोक वाजपेयी की बातों और कार्यकलापों पर उनकी उम्र का असर अब साफ
दिखने लगा है। यह कहते हुए कि आज आपको पांच कवियों को पुरस्कृत होते हुए देखने का
ऐतिहासिक सौभाग्य मिलेगा, उन्होंने व्योमेश शुक्ल का परिचय और उनकी कविता ‘बहुत सारे संघर्ष
स्थानीय रह जाते हैं’ पर स्वरचित निर्णायक मत पढ़ा। व्योमेश शुक्ल से जुड़े अपने
फैसलों पर उनका कहना था कि उन्हें इन पर कोई संकोच नहीं है।
व्योमेश शुक्ल ने पुरस्कृत
कविता और ‘जस्ट टियर्स’ शीर्षक एक लंबी कविता पढ़ी। इस कविता का आखिरी वाक्य, ‘तब
से मैंने कुछ नहीं कहा है’ पढ़ने के बाद वह श्रोताओं को स्तब्ध और इस इंतजार में छोड़
कि वह अगला वाक्य कब कहेंगे, अपने स्थान पर लौट गए।
अशोक वाजपेयी द्वारा अनुज
लुगुन का पुराना परिचय पढ़ने के बाद, ‘‘कविता में होना और हिंदी कविता में होना
बहुत मुश्किल है’’— यह कहते हुए उदय प्रकाश ने अपनी लटपटाती जुबान में अनुज लुगुन
की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ पर अपना निर्णायक मत पढ़ा।
कभी उदय प्रकाश के पास एक और भाषा हुआ करती थी जिसमें अविनाश दास का जिक्र नहीं
हुआ करता था। जिसमें पैतीस साल के पूरे हो रहे कवि उन्हें कॉल करके भारत भूषण अग्रवाल
पुरस्कार देने के लिए डिस्टर्ब नहीं करते थे। यहां असद जैदी की कविता-पंक्तियां
याद आती हैं कि ‘परिस्थितियां खराब हैं/ परिस्थितियां बहुत अच्छी तरह खराब हैं।’
अनुज लुगुन ने जोहार किया।
उन्होंने पतलून और सैंडिल बहुत अच्छे पहन रखे थे। उन्होंने पुरस्कृत कविता और
‘चिड़ियाघर में जेब्रा की मौत’ शीर्षक कविता पढ़ी। इस पाठ में कुछ बुराइयां खासकर
लक्षित की गईं, इनमें प्रमुख थी— ‘हिंदी विभागीय ट्रेनिंग’।
इस आयोजन में यह देखना भी
‘ऐतिहासिक सौभाग्य’ के अंतर्गत था कि अनुज लुगुन की कविता पर अनामिका ने जमुहाई ली।
यह जमुहाई अनामिका की आवाज की तरह ही आकर्षक थी। और क्यों न हो जब वह भी उनके होंठ
खुलने पर ही बाहर आती है। वैसे
यह देखना भी ‘ऐतिहासिक सौभाग्य’ के अंतर्गत ही था कि जब परिचय और निर्णायक मत पढ़ा
जा रहा होता तब पुरस्कृत कवि कागज के एक टुकड़े की प्रतीक्षा में मंच के एक कोने
में सिर झुकाए खड़ा रहता। यह तब और भी मूर्खतापूर्ण रहा जब इस दफा इस कागज के टुकड़े
पर पांच में से तीन निर्णायकों के ही हस्ताक्षर हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल बल्गारिया
में हैं और अरुण कमल पता नहीं कहां हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल बल्गारिया में हैं, यह
पता नहीं चलता अगर सभागार के एक कोने से सुमन केशरी और दूसरे से अजित राय इस बात
को चिल्लाकर न बताते।
अशोक वाजपेयी के यह कहने
के बाद, ‘‘कुमार अनुपम का परिचय बहुत बड़ा है, इसे क्या बताया जाए आप सब जानते ही
होंगे...’’ अनामिका माइक पर थीं। उन्होंने कुमार अनुपम की कविता ‘कुछ न समझे खुदा करे कोई’ पर अपने निर्णायक मत में
क्या पढ़ा, मैं कुछ भी सुन नहीं पाया। अनामिका जब भी कुछ बोलती
हैं, मैं सुन नहीं पाता। उनकी आवाज अपने सौंदर्य में खो जाने के लिए मुझे बाध्य
करती है, मैं कई बार खो चुका हूं। जब तक कोई दूसरी आवाज नहीं आती, मैं खोया रहता
हूं। मैं इसे सार्वजनिक रूप से कहना चाहता हूं कि मैं कभी आमने-सामने बैठकर
अनामिका का इंटरव्यू नहीं कर पाऊंगा। देह-भाषा और वाणी की अद्भुत मधुरता के सघन
सामंजस्य में मैं अपने मूल लक्ष्य से वैसे ही भटक जाऊंगा जैसे इस रपटनुमा आलेख
में...।
कुमार अनुपम ने पुरस्कृत
लंबी कविता के कुछ अंश और एक या शायद दो छोटी कविताएं पढ़ीं। वह प्रकाशक अशोक आजमी
और समन्वय-संयोजक गिरिराज किराडू को मिस कर रहे हैं, ऐसा उनकी आवाज से साफ लग रहा था।
छिट-पुट या कहें पिट-पुट तालियों के बीच वह जहां से उठे थे वहीं बैठ गए।
अशोक वाजपेयी ने प्रांजल
धर का परिचय और उनकी कविता ‘कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं’ पर पुरुषोत्तम अग्रवाल
रचित निर्णायक
मत पढ़ा। प्रांजल धर ने पुरस्कृत कविता और दो अन्य कविताएं
पढ़ने का अभिनय किया। खराब कविताएं अच्छी तरह से कैसे पढ़ी जाती हैं, यह तकनीक युवा
कवियों के साथ-साथ कई वरिष्ठ कवियों को भी प्रांजल धर से सीखनी चाहिए।
‘आस्तीक वाजपेयी अट्ठाइस साल के हैं और
उन्हें जानकी-‘पूल’ सम्मान भी मिल चुका है।’ इस ‘जरूरी जानकारी’ से भरा परिचय
पढ़ने के बाद अशोक वाजपेयी को शर्म आने लगी, इसलिए अन्विता अब्बी ने अरुण कमल रचित
और अशोक वाजपेयी द्वारा प्रायोजित — आस्तीक वाजपेयी की कविता— ‘विध्वंस की शताब्दी’ पर निर्णायक मत पढ़ा। मैं
चाहता हूं कि इस कविता पर मेरा भी मत पढ़ा जाए— ‘‘असंतुलित स्फीति। रूढ़ भाषा। बासी
बिंब। पुरातन कथ्य। पूर्ववर्ती कवियों की खराब नकल और ऊब की पराकाष्ठा।’’
‘‘अशोक जी गलत कह रहे हैं,
मैं अट्ठाइस नहीं सत्ताईस साल का हूं। यह बात कम से कम उन्हें तो नहीं ही भूलनी चाहिए क्योंकि मैं पैदा होकर उनके ही घर गया था।’’ ‘आस्तीकलीक्स’ के इस खुलासे के बाद
जैसे कोई बटन दब गई हो और उसमें से पुरस्कृत कविता और ‘भाषा’ व ‘नक्षत्र’ शीर्षक
दो छोटी कविताएं बाहर आई हों। अ आ इ ई उ ऊ भा भा भू भू थू थू... आस्तीक वाजपेयी अभी
सीख रहे हैं। यह अमर वाक्य जैसे उनके लिए ही है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती...
अ आ इ ई उ ऊ भा भा भू भू थू थू...।
केदारनाथ सिंह जब अशोक
वाजपेयी के कानों के पास अपने होंठ ले गए तब मुझे लगा कि शायद वह कह रहे हैं कि
आपके घर में एक ‘जीनियस’ पैदा हो गया है। इसके बाद अशोक वाजपेयी ने वक्तव्य पर
नहीं संक्षेप पर जोर देते हुए केदारनाथ सिंह को माइक पर आमंत्रित किया और केदारनाथ
सिंह ने अपना अमूल मक्खन टाइप वक्तव्य दिया। इसमें उन्होंने दो बार भारत भूषण
अग्रवाल की स्मृति को नमन किया और इतनी ही बार अन्विता अब्बी की उपस्थिति को
धन्यवाद दिया। भारत भूषण अग्रवाल का मित्र होने से इंकार करते हुए उन्होंने उनसे
जुड़ा एक बोरिंग संस्मरण सुनाया। अब बारी थी एक बड़े खुलासे की। केदारनाथ सिंह ने
कहा, ‘‘मैंने इस पुरस्कार से पांच नहीं छह कवियों को पुरस्कृत किया है। वह इस तरह
कि मैंने अनुज लुगुन की नियुक्ति एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में केवल इसलिए होने
दी क्योंकि इस कवि को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिल चुका था।’’ अंत में उन्होंने
कहा कि पैंतीस वर्षों में हिंदी कविता ‘अ’ (अरुण कमल) से ‘आ’ (आस्तीक वाजपेयी) तक
की ‘लंबी’ यात्रा कर चुकी है।
अशोक वाजपेयी ने यह कहते
हुए कि एक समय कोई भी भारत भूषण अग्रवाल का मित्र हो सकता था, उनसे जुड़ा एक भूल
जाने लायक संस्मरण सुनाया। उन्होंने यह भी कहा कि शाम काफी लंबी हो चुकी है।
सभागार के बाहर आकर मैंने भी इस बात को महसूस किया कि अंधेरा काफी घना हो चुका था।
अभी सफर बहुत था और आधी रात बीतने पर बारिश होनी थी।
***
हिंदी कविता के लिए यह सचमुच एक दुर्भाग्यपूर्ण दिन था। खराब
कविता का इतना सम्मान। उसे इतना महत्वपूर्ण मंच, इतना स्थान। ऐसी बेहूदा बयानबाजी।
यह बताता है कि अब हिंदी पट्टी में कहीं कोई हाशिए पर नहीं है— न दलित, न स्त्री, न
अल्पसंख्यक, न आदिवासी... आज हाशिए पर है सिर्फ सच्ची हिंदी कविता। कवियों के पास
बढ़िया कुर्ते, बढ़िया जींस, बढ़िया चश्मे, बढ़िया घड़ियां, बढ़िया स्मार्टफोन और बढ़िया जूते हैं, लेकिन सुनाने लायक
कविताएं नहीं हैं, न ही सुनाने का शऊर। मैं महज शाब्दिक निष्कर्षों पर यकीन नहीं
करता, लेकिन कहना चाहता हूं कि हिंदी में प्रचलित और पुरस्कृत निकृष्ट कविता के
प्रतिपक्ष में हमें अपनी काव्यात्मक चिंताएं और गतिविधियां बढ़ानी होंगी। यह कोई नई
और अनूठी बात नहीं है, लेकिन इसे बराबर दोहराते और अमल में लेते रहने
के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। संभवत: ऐसा करके ही हिंदी में परवान चढ़ते कुछ
वरिष्ठों के भ्रष्ट कारनामों से बचा जा सकता है। भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता
पुरस्कार के निर्णायक सर्वश्री अशोक वाजपेयी, अरुण कमल,
उदय प्रकाश, पुरुषोत्तम अग्रवाल और अनामिका नई
बनती हिंदी कविता को अवसादग्रस्त कर कुचलने की पूरी तैयारी में हैं। इन सबकी समझ
और व्यवहार साहित्यिक राजनीति से संचालित और गठजोड़ से प्रेरित है। इनके अब तक के
फैसलों ने हिंदी में अयोग्यों को स्थापित कर इसके लिए बाध्य किया है कि हिंदी में गैरजरूरी
बहसें पनपें। अब हिंदी में असल युवा कवि वही होगा जो इन्हें बेईमान मानकर चलेगा।
इसके अतिरिक्त भी उन तमाम समितियों-संस्थाओं-अकादमियों —जो पैतीस वर्ष से कम के
रचनाकारों को पुरस्कृत करती हैं— के दृश्य-अदृश्य निर्णायकों को भी हिंदी के
वास्तविक युवा कवियों को बेईमान मानकर चलना होगा...।
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार पर मुझे कुछ नहीं कहना है, सभी कवियों को एक अनिवार्य बधाई के सिवा - कहना अविनाश मिश्र की रिपोर्टिंग पर है, वो भी बस इतना कि यदि मनोहरश्याम जोशी और साप्ताहिक हिन्दुस्तान का ज़माना आज होता तो अविनाश के पास बहुत अच्छे वेतन वाली एक शानदार नौकरी होती। रिपोर्ट के निष्कर्षों पर ख़ूब बहस हो सकती है पर इस शिल्प का क्या कीजे..... यह काशीनिवासी वाचस्पति जी के शिल्प का ही नया खुलता और खिलता हुआ रूप है - शायद कुछ पुराने लोगों को 'सन्नाटा शहर में कि साहित्य में' का स्मरण हो।
ReplyDeletekya kahu. ek minute ka maun.
ReplyDeleteयह रिपोर्ट पढ़कर बस एक गहरी सांस लेने का मन कर रहा है.... हम्म्म्म्म्म्म्म्म
ReplyDeleteएक अहम्मन्य रिपोर्ट। यह जोड़ना भी उचित होगा- हमेशा की तरह।
ReplyDeleteह्म्म्मम्म..............................सच कहा दीपिका ने !!
ReplyDeleteअनुलता
हिंदी कविता की दुनिया को 'धो डालने' के तुम्हारे प्रयास तुम्हारी भाषा में शुरू से ही थे अविनाश हाँ, जो हिंदी की हाट के अनुरागी है वे इन संयोजित बुटीकों का रास्ता तक नहीं पूछते !
ReplyDeleteहिंदी साहित्य में पाठक के सिवा स्थाई बाहरी हूँ और अनुज लुगुन, कुमार अनुपम और प्रांजल धर की कुछ अच्छी कवितायेँ पढ़ना याद है. (हो सकता है कि मेरे पास आलोचकीय दृष्टि न हो, सहज अच्छा लगने वाली चीजें अच्छी लग जाती हों और तुम यहाँ भी निर्णय में सही हो). हाँ, तुम्हारा शिल्प सचमुच अद्भुत है, ऊपर शिरीष कुमार मौर्या की कही बात से सहमत हूँ. मनोहर श्याम जोशी की याद दिलाने वाला शिल्प, न पढ़े होने तक बेचैन करने वाला शिल्प.
ReplyDeleteऔर सब कह चुके होने के बाद- अनुज लुगुन की पतलून का जिक्र बहुत खटक गया. यह लोगों को ठीक ही सवाल खड़े करने का मौका देगा.
aankh kholne wali report .
ReplyDeleteहिंदी कविता और ईमानदारी की चिंता है इस रिपोर्ट में ,परंतु अनामिका( जो एक स्त्री भी हैं) के प्रति अनुदार रूख चिंतित करती है ।
ReplyDeleteअविनाश मिश्र की रिपोर्ट का एक नमूना देखें
ReplyDeleteइस आयोजन में यह देखना भी ‘ऐतिहासिक सौभाग्य’ के अंतर्गत था कि अनुज लुगुन की कविता पर अनामिका ने जमुहाई ली। यह जमुहाई अनामिका की आवाज की तरह ही आकर्षक थी। और क्यों न हो जब वह भी उनके होंठ खुलने पर ही बाहर आती है।
अनामिका माइक पर थीं। उन्होंने कुमार अनुपम की कविता ‘कुछ न समझे खुदा करे कोई’ पर अपने निर्णायक मत में क्या पढ़ा, मैं कुछ भी सुन नहीं पाया। अनामिका जब भी कुछ बोलती हैं, मैं सुन नहीं पाता। उनकी आवाज अपने सौंदर्य में खो जाने के लिए मुझे बाध्य करती है, मैं कई बार खो चुका हूं। जब तक कोई दूसरी आवाज नहीं आती, मैं खोया रहता हूं। मैं इसे सार्वजनिक रूप से कहना चाहता हूं कि मैं कभी आमने-सामने बैठकर अनामिका का इंटरव्यू नहीं कर पाऊंगा। देह-भाषा और वाणी की अद्भुत मधुरता के सघन सामंजस्य में मैं अपने मूल लक्ष्य से वैसे ही भटक जाऊंगा जैसे इस रपटनुमा आलेख में...।
(भारत भूषण पुरस्कार समारोह पर अविनाश मिश्र की रिपोर्ट "पैंतीस वर्ष कम नहीं होते बेवकूफियों के लिए" का अंश।)
मैं यह समझने में अक्षम हूँ कि किसी प्रतिष्ठित लेखिका के सम्मुख किसी भाषावीर रिपोर्टर के अपने लक्ष्य से भटक जाने पर हिंदी को कितना शोक मनाना चाहिए।
शुद्ध व्यंग्य समझना हो तो कोई इसे पढ़े, जो उपजाता तो स्थितियों पर रोष से है किन्तु पाठक को हँसाता है...। इसे पढ़ते-पढ़ते तुम्हारी व्यंग्य प्रतिभा और चित्रात्मक स्मृति + बिंबविधान :) का सुख तो मिला ही साथ ही यह सुख भी मिला कि नई पीढ़ी में स्वार्थान्धता को हवाई क्रांतिकारिता के मुलम्मे में लपेट हल्ला करने वाले हड़कुल्लुओं के बीच एक स्वर ऐसा भी है जो सच में क्रांतिकारी है। सर्जनात्मकता से लबरेज़ इस रपट (+समीक्षा) को पढ़कर आनन्द आ गया। कलम और स्वर दोनों बरकरार रहें। जबरदस्त जा रहे हो !
ReplyDeleteकृपया उपजाता* के स्थान पर उपजता* पढ़ा जाए।
ReplyDeleteसुना है स्वामी हितार्थ शहादत तत्पर सद्यजात बौद्धिकों का क्रोध हमारे ऊपर इस बात पर है कि हम कायर हैं और हम कुछेक लेखिकाओं ने अविनाश के एक स्त्री विरोधी वक्तव्य पर ध्यान न देते हुए उसे शाबाशी दी है । पहली बात साफ़ साफ़ लिख दूँ कि मुझे 'वहाँ' कोई अश्लीलता नजर नहीं आई , यह अतिरेकी उत्साह जनित नटखटपन है, उद्धत लड़कपन लिए शरारत है और ये वाक्य अविनाश द्वारा कवयित्री के लेखन का सम्पूर्ण आकलन घोषित नहीं कर दिया गया है, निस्संदेह इस से बचाना चाहिए था , वैसे ये सत्य है ही कि अनामिका जी सौन्दर्य और प्रतिभा का आदर्श मेल है, यदि इस सम्मोहन को 'कह' भी दिया गया है तो इसमें पहाड़ टूट पड़ने जैसी कोई बात कतई नहीं हो गई, बेशक वे हमारी वरिष्ठ हैं, आदरणीय हैं,
ReplyDeleteयदि अविनाश सार्वजानिक तौर पर यह मानते भी हैं कि वे उनके सघन सौन्दर्य से सम्मोहित हो उठते हैं तो यहाँ वे उन चिरकुटों, लम्पटों, धूर्तों मक्कारों से कहीं अधिक निर्मल स्वीकार लिए युवा हैं जो स्त्रियों की पीठ घूमते ही उन्हें लेकर आशु दंत कथाएं प्रचारित-प्रसारित करते हों, fb k इनबॉक्स में कलुष बिखेरते हों, नकली प्रोफाइल से लम्पटई में रत हों या जन्मजात भक्ति विमुख लेखिकाओं को रोकने के बेचैन और दयनीय शीर्षासनों में जुटे हों ... हाँ मेरी आपत्ति रिपोर्ट में उस उल्लेख पर भी बाकायदा दर्ज़ की जाये जहाँ केदार जी बैठने की सुविचारित तरकीब में लगे उद्ध्रत हुए हैं अविनाश को यहाँ मर्यादित रहना चाहिए था.... खैर, तो अरे बालक भक्तो ! हमें न बताओ 'हिम्मत' किसे कहते हैं , तुम्हे अर्थ का अनर्थ करते हुए समूह गान करना ही है तो बेहयाई से लगे रहो, हिंदी कविता में गैंगबाजी की गंद को बेशर्मी से फैलाओ, न हम महान लेखिका हैं न ही बड़ी कवयित्री हाँ हम आज़ाद जरुर हैं तुम्हारी तरह मानसिक गुलामियत में उद्वेलित फतवेबाज या वध तत्पर नहीं ..