...यह रिपोर्टिंग मैंने आज ही की तारीख में गत वर्ष की थी। इसमें इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि यह किसी दैनिक अखबार या किसी पत्रिका में प्रकाशित हो सके। इसके लिए इसकी सही जगह थी इंटरनेट, जहां यह प्रकाशित होने के बाद प्रशंसित और विवादित हुई। यह 'जानकीपुल' पर आई और तमाम प्रतिपक्षों और स्पष्टीकरणों के बावजूद अपनी हत्या से पहले एक सप्ताह तक सबसे पॉपुलर पोस्ट बनी रही। हिंदी साहित्य के शीर्ष आलोचक नामवर सिंह के एक पत्र की वजह से इसके 'जानकीपुल' से हट जाने के बाद मैंने इसे अपने फेसबुक नोट के रूप में बचा लिया। आज इसकी बरसी पर इसे उस स्पष्टीकरण के साथ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं, ताकि सनद रहे…। हालांकि तब से अब तक काफी साहित्य-जल बह चुका है। इस बहाव ने इस रिपोर्टिंग को कम से कम मेरे लिए और ज्यादा जरूरी बना दिया है। यह बहाव न भी होता तब भी व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए इस रिपोर्टिंग का बड़ा महत्व है। मैं 'प्रिकॉसिटी' की कद्र करता हूं और वह इस रिपोर्टिंग में है। मैंने साहित्य में साहित्येतर दबावों और दुरभिसंधियों को इसके बाद बहुत गहराई से समझा और अनुभव किया। मैंने ऐसी लातें देखीं जो मेरे पेट पर लगने वाली थीं, मैंने उन्हें मरोड़ दिया और उनके व्यक्तित्व के लूलेपन पर हंसा। मुझे समझ में आ गया कि हिंदी साहित्य के वर्तमान पर अब गंभीर और सृमद्ध भाषा में बेफिक्र होकर हंसे जाने की जरूरत है। मुझे लगा कि मेरे पास केवल एक और एकमात्र यही विकल्प है कि मैं इनके विमर्श, इनके मुहावरों और इनकी भाषा को नकार दूं। दिल दुखाना हमेशा दुखी करता है, मैं यह काम क्यों करूंगा, जबकि मेरे पास खुद एक टूटा हुआ दिल है। लेकिन आपके शब्द आपकी पवित्रता, सच्चाई और ईमानदारी को जाहिर कर देते हैं। भाषाई कहन ने झूठों को कभी पर्याप्त अवसर नहीं दिए। उनके कुकृत्य उनकी कहन से पहले ही उनके चेहरों पर नुमायां हो गए। मैं आक्रोश को अवसाद में बदलने का हुनर जानता हूं, लेकिन मैंने ऐसा कभी किया नहीं , ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि हरदम मुझे पता था कि मैं अकेला नहीं हूं, मैं वह कह रहा हूं, जो कई लोग कहना चाहते हैं, लेकिन चाहकर भी कह नहीं पाते।
[ अ. मि.]
'ट्रिगर' दबाना बहुत आसान है, लेकिन जरूरी नहीं कि हर बार सामने वाला मरेगा या घायल ही होगा और तब तो और भी नहीं जब आपके हाथ भी कांपते हों। 'जानकीपुल' पर गए शनिवार (2 मार्च 2013) आई मेरी रिपोर्टिंग अब वहां मौजूद नहीं है। कई दबावों और दुरभिसंधियों के बीच वह वहां से हटा दी गई। फिलहाल अब यह मेरे फेसबुक नोट के रूप में सुरक्षित है और जो इसे अब तक नहीं पढ़ पाए हैं, वे अब इसे वहां पढ़ सकते हैं। और अंत में इनसे डरने की कोई जरूरत नहीं है क्यूंकि वे ताकतवर जरूर हैं, लेकिन इस बात से अब भी डरते हैं कि सारे कमजोर लोग एक दिन उनसे डरना छोड़ देंगे।
समय : 1 मार्च 2013, शुक्रवार की शाम।
स्थान : नई दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटाट सेंटर के बेसमेंट में अमलतास ऑडीटोरियम।
विषय : युवा लेखिका ज्योति कुमारी के वाणी प्रकाशन से प्रकाशित कहानी संग्रह ‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ का ‘पुन: विमोचन’ और इस बहाने ‘युवा हस्ताक्षर : पहली उड़ान’ पर परिचर्चा (परीचर्चा नहीं)।
संचालन : मज्कूर आलम
वक्ता : विभास वर्मा, रमणिका गुप्ता, संजीव कुमार, जयंती रंगनाथन।
अध्यक्ष द्वय : राजेंद्र यादव और नामवर सिंह।
दृश्य : मज्कूर आलम के अनाड़ी संचालन ने जब इस कार्यक्रम के सब वक्ताओं और अध्यक्षों को मंच पर अवतरित कर दिया, तब राजेंद्र जी ने संचालक महोदय से कहा, 'लेखिका कहां है??'
इसके बाद जब ज्योति कुमारी, विभास वर्मा के बगल में जाकर बैठ गईं तब विभास वर्मा उठकर माइक पर आए और कहा कि हिंदी साहित्य में इस तरह युवा लेखन को तवज्जो पहले कभी नहीं मिली। उन्होंने कहा कि आज युवा लेखन में कहानी विधा का दखल बहुत ज्यादा है। जहां एक तरफ तमाम नए लेखक उभरकर आ रहे हैं, वहीँ महानगरीय जरूरतों के हिसाब से खुद को नहीं ढाल पाने वाले कई युवा पीछे भी छूट रहे हैं।
रमणिका गुप्ता ने कहा कि उन्होंने एक कहानी छोड़कर ज्योति की सारी कहानियां पढ़ी हैं। हालांकि कहानियों के शीर्षक उन्हें ठीक से याद नहीं आ रहे थे, लेकिन किताब उन्होंने ठीक से और पूरी पढ़ी है (एक कहानी छोड़कर) यह जताने के लिए उन्होंने प्रकाशक अरुण महेश्वरी का ध्यान इस ओर दिलाया कि इस किताब में ‘कहां’ की जगह कई जगह ‘कहा’ छप गया है। कुछ अंतर्कथाओं और विवादों के चलते महज तीन दिनों के अंदर छापी गई इस किताब में मौजूद गलतियों के लिए न प्रकाशक दोषी है और न ही लेखिका, सारा दोष उस बेचारे प्रूफरीडर का है, जो पता नहीं इस मौके पर मौजूद था या नहीं। बहरहाल ‘एनी हाऊ’ और ‘डिफर’ जैसे शब्दों का बार-बार प्रयोग करते और मंचासीन लोगों की तरफ बार-बार देखते हुए रमणिका जी ने क्रमवार ढंग से ज्योति की कहानियों में क्या है, यह समझाया और इसके बाद वे इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के लिए पलायन कर गईं, जहां अमेरिका से आ रहे अपने बेटे को उन्हें रिसीव करना था।
इसके बाद नामवर जी संचालक पर थोड़ा-सा लाउड हुए और इसके बाद शेष वक्ताओं के बोलने के लिए 10-10 मिनट निर्धारित हुए और इसके बाद ‘आज भरी महफिल में कोई बदनाम होगा...’ के इरादे से अपने हिस्से की बात शुरू करते हुए युवा आलोचक संजीव कुमार ने कहा कि बहुत तरक्कीपसंद महफिलों में मैं रूपवादी हो जाने की तलब रखता हूं। बेहद गर्मजोशी और शानदार ढंग से अपनी बात रखते हुए संजीव ने आगे कहा कि साहित्य कोई डेटा नहीं है, हमें साहित्य और गजेटियर में फर्क करना आना चाहिए। उन्होंने नामवर सिंह और राजेंद्र यादव दोनों को निशाने पर लेते हुए कहा कि इन दोनों को अपनी-अपनी भूमिका में ज्योति की कहानियों की बड़ी कमियों की बात न करने के लिए कभी माफ नहीं किया जाएगा। यह कहने के बाद उन्होंने न्यू क्रिटिसिज्म के ट्रिक्स एंड टूल्स अपनाते और आजमाते हुए एक ‘डिटेक्टिव रीडर’ की तरह ज्योति की कहानियों की बड़ी कमियों को सार्वजनिक कर दिया। इन कहानियों के अंतर्पाठ में उतरते हुए उन्होंने कहा कि इनमें कोई 'कोहरेंट मैसेज' नहीं है और न ही ये अपने परिवेश, वार्तालाप और अंत से अपने पाठक को कन्विंस कर पाती हैं। अंत में संजीव ने कहा कि उन्होंने उस डॉन को पकड़ लिया, जिसे पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है, यह अलग बात है कि डॉन जेल तोड़कर भाग भी सकता है।
परिचर्चा (परीचर्चा नहीं) में आई यह गर्मजोशी कुछ और बढ़ पाती इससे पहले ही जयंती रंगनाथन ने बिलकुल...बिलकुल...बिलकुल...बिलकुल... कह-कहकर महफिल ‘बिलकुल’ खराब कर दी। इसमें उनकी कोई गलती नहीं क्योंकि बकौल उनके ही जैसे हम हर ‘शरीफ लड़की’ से यह उम्मीद नहीं करते कि वह कंप्रोमाइज करेगी ही, वैसे ही हम हर वक्ता से यह उम्मीद नहीं करते कि वह संजीव कुमार की तरह ही बोलेगा।
मंचासीन ‘सरों’ और मैडमों और सीनियरों का शुक्रिया अदा करने और संजीव कुमार का नाम छोड़ने के बाद ज्योति कुमारी ने अपने आत्मवक्तव्य में कहा कि उन्हें कहानियां लिखना नहीं आता है, लेकिन उनके पास कहानियां हैं और वे कहानियों को जीती हैं, साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वे कहानी कला के सिद्धांत नहीं जानतीं। हिंदी में प्रकाशिकाएं न होने की बात उठाते हुए उन्होंने कहा कि हालांकि अब सारे विवाद शांत हो गए हैं, लेकिन इस किताब के प्रकाशन के चलते वे काफी परेशान हो गई थीं। अपनी रचना-प्रक्रिया, कहानियों और संघर्षों पर देर तक बोलने के बाद जब वे अपनी सीट की तरफ लौट रही थीं, तब राजेंद्र जी ने उनसे कहा कि वे अच्छा लेकिन कुछ ज्यादा ही बोल गईं।
इसके बाद 20 दिन पहले विश्व पुस्तक मेले में हो चुका ‘पुस्तक विमोचन’ एक दफे यहां और हुआ। अब बारी राजेंद्र जी की थी, उन्होंने माइक संभालते और हरिशंकर परसाई की एक कहानी का संदर्भ देते हुए, उसे नामवर सिंह से जोड़ दिया। ‘बड़े घर के बेटे हैं, जब से हुए लेटे हैं' वाले मजाहिया लहजे में उन्होंने ज्योति को बड़े घर की बेटी बताते हुए कहा कि वह ‘छोटी सी बात’ का भी ‘मलीदा’ बना देती है। उन्होंने यह भी कहा कि उनका आशीर्वाद सदा ज्योति के साथ है और वह आगे इससे बेहतर कहानियां लिखेगी।
‘मैं इसलिए खड़े होकर बोल रहा हूं ताकि जान सकूं कि अब भी खड़े होकर बोल सकता हूं या नहीं’ यह कहा भारतीय आलोचना के शिखर पुरुष नामवर सिंह ने। नामवर जी ने भी मजाहिया लहजा अपनाते हुए ज्योति को ‘शरीफ’ नहीं ‘हरीफ’ लड़की बताया। ‘उगते हुए पौधे को नापते नहीं बाढ़ रुक जाती है’ यह कहते हुए नामवर जी ने एक बड़ा खुलासा किया। उन्होंने कहा कि वे वाचिक परंपरा के आलोचक हैं और उन्होंने ‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ की कोई भूमिका नहीं लिखी है, लेखिका ने पांडुलिपि पर बोली गई उनकी बातों को दर्ज कर लिया था, इन बातों को ही भूमिका के रूप में छापा गया है। यह बताते हुए कि ‘शरीफ लड़की’ की जगह इस किताब का शीर्षक ‘दस्तखत’ रखने की सलाह उन्होंने ही ज्योति को दी थी और इस वजह से ही यह किताब आनी कहीं से थी और आ कहीं से गई। इन कहानियों की भाषा पर नामवर जी ने कहा कि इनमें उर्दू शब्दों की बहुतायत है, और इस वजह इन कहानियों ने 'हिंदुस्तानी' प्रभाव ग्रहण कर लिया है। उन्होंने आगे कहा कि उन्हें ज्योति की कहानियां उसके संघर्षों को जानने के बाद बड़ी लगती हैं, ज्योति शादीशुदा है और परित्यक्ता भी, यह कहकर मैं किसी के मन में कोई करुणा उपजाना नहीं चाहता, लेकिन ज्योति की ये कहानियां इस अर्थ में वाकई बेजोड़ हैं। अंत में उन्होंने इस पूरी गोष्ठी को समीक्षात्मक कहने के बजाए 'प्रोत्साहन गोष्ठी' कहने पर जोर दिया।
फेडआउट : मज्कूर आलम ने कहा कि अब धर्मेंद्र सुशांत आकर सबका आभार प्रकट करने की परंपरा अदा करें, क्योंकि हम परंपरा को आगे ले जाने में यकीन रखते हैं। बाहर पूरे परिवार सहित पधारे एक आदमी ने मज्कूर आलम से कहा, 'ऐसे प्रोग्राम हुआ करें तो बता दिया करिए महराज...।'