...विस्थापन को समझने के
लिए अब बहुत दूर जाना नहीं पड़ता है। बहुत दूर तो बहुत देर हुई हम चले आए। अब
बस रहे आना है। इन आरंभिक पंक्तियों के बीच में कहीं ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ शब्द आना
चाहिए, लेकिन हम सचमुच इतनी दूर चले आए हैं कि हमारे दुर्भाग्य की शुरुआत कहां से
हुई— अब यह स्पष्ट नहीं है। घर से कार्यालय तक जाना भी एक विस्थापन लगता है। ‘रेजिडेंस
ऑन अर्थ’ (पाब्लो नेरूदा) और ‘आउट ऑफ प्लेस’ (एडवर्ड सईद) पढ़ चुकने के बाद भी इस
तथ्य से मुक्त नहीं हुआ जा सकता कि विस्थापन अब एक दैनिक दुःख है और अगर रघुवीर
सहाय की एक काव्य-पंक्ति का आश्रय लेकर कहें तब कह सकते हैं कि इस दुःख को रोज
समझना पड़ता है। मेरे सुदूर की स्थिति यह है कि वह स्थिर रहा और विस्थापित हो गया, मैं
गतिवान रहा और...
‘यह तथाकथित
अज्ञानपूर्ण अंधेरे युगों की ओर लौटने का प्रयास नहीं है बल्कि यह स्वैच्छिक
सरलता, निर्धनता और धीमेपन में सुंदरता देखने का प्रयास है। मैंने इसे अपने आदर्श
के रूप में देखा है। मैं खुद इस तक कभी नहीं पहुंच पाऊंगा और इसलिए देश से ऐसी कोई
उम्मीद नहीं कर सकता, लेकिन विविधता की हवा में उड़ने, जरूरतों की अनेकता की आधुनिक
बदहवास दौड़ में शामिल होने का मुझे कोई आकर्षण नहीं है। वे हमारे अंतस को मार देते
हैं। जिस चकराने वाली ऊंचाइयों को पाने का प्रयास मनुष्य की प्रतिभा कर रही है, वह
हमें हमारे उस विधाता से दूर ले जाएगी जो चमड़ी को ढंकने वाले नाखून से भी अधिक
हमारे करीब है...’
[ ‘हिंद स्वराज’ को समझने की कुंजी बताते
हुए मोहनदास करमचंद गांधी ]
रघु राय |
‘तद्भव’ के 28वें
अंक में प्रकाशित युवा कहानीकार शिवेंद्र की लंबी कहानी ‘चांदी चोंच मढ़ाएब ए कागा
उर्फ चाकलेट फ्रेंड्स’ को पढ़ते हुए बहुत स्वाभाविक रूप से ‘हिंद स्वराज’ की याद
आती है। कहानी की एक पात्र कलकतिया चाची को नहीं मालूम बाहर की दुनिया कैसी है—
‘अठवा जइसे भईस की देह में पड़े रहते हैं वैसे ही हम लोग जी रही हैं... बाहरी
दुनिया की बस एक पापिन को हम जानती हैं— बैरन रेल को। वह हमारे गांव में बस एक पल
को रुकती है और हमारा संसार समेटकर न जाने कहां उगल आती है...।’ रेल की ‘धड़क...
धड़... धड़...’ इस कहानी का संगीत है और ‘लोक’ इसका गीत—
‘मोरा रे अंगनमा चनन केर गछिया,
ताहि चढ़ी कुररय काग रे
सोने चोंच मढ़ाय देब बायस
जआं पिया आओत आज रे!’
विद्यापति की इन पंक्तियों से शुरू होने
वाली यह लंबी कहानी एक अद्भुत विस्थापन-वृत्तांत है। इसे पढ़कर ऐसा लगता है जैसे
संसार की बहुत सारी कहानियों ने इस एक कहानी को संभव किया है। सब कहानियां इस तरह
संभव नहीं होतीं। वे अपनी प्रगति के लिए दूर तक नहीं जातीं, जैसे उनके पूर्वज गए
थे—
‘पियवा गइलन कलकतवा ए सजनी,
तूरी दिहलन पति-पत्नी-नतवा ए सजनी!
किरिन भीतरे परतवा ए सजनी,
गोड़वा में जूता नइखे, सिरवा पर छतवा ए
सजनी!
कइसे चलिहन रहतवा ए सजनी,
सोचत-सोचत बीतत बाटे दिन-रतवा ए सजनी!
कतहूं लागत नइखे पतवा ए सजनी,
लिखत ‘भिखारी’ खोजिकर बही-खतवा ए सजनी!’
हमें चले गए पूर्वजों को खोजना होता है,
उनके पद-चिन्हों पर चलते हुए— विस्मृति से बचते हुए। शिवेंद्र का कहानीकार बहुत
अध्यवसाय से यह कार्य करता है क्योंकि वह जानता है कि लौटने से बढ़कर और कोई जादू
नहीं। और यह भी कि जितने भी वादे थे सब लौटती बेर के थे और उमर खत्म हो रही थी और
किसी का भी लौटना हो नहीं रहा था।
यह कहानी हिंदी में एक ऐसे वक्त में
नुमायां हुई है, जब कहानियां हमें फरेब दे रही हैं और संसार में कहानियों का वक्त
गुजर चुका है, बावजूद इसके कि गई हाल में ही एलिस मुनरो को साहित्य का नोबेल
पुरस्कार दिया गया। यह कहानी बताती है कि सच्चाइयां सबसे लंबे दिनों तक सिर्फ
कहानियों में ही जीवित रह सकती हैं। इस कहानी का मुख्य पात्र एक जादूगर है जो जन्म
से विस्थापन की त्रासदी झेलने के लिए अभिशप्त है। वह एक ऐसे गांव में पैदा हुआ है
जहां के लगभग सारे मर्द कमाने के लिए बाहर गए हुए हैं और लौट नहीं रहे हैं। गांव
में एक इंतजारघर है, जहां आकर गांव की सारी स्त्रियां सामूहिक प्रतीक्षा और विलाप
करती हैं। इससे ज्यादा इस कहानी को उद्घाटित करना इस कहानी के साथ अन्याय होगा...।
‘अद्भुत’ एक रूढ़ शब्द है और इस कहानी के
संदर्भ में अपर्याप्त भी, लेकिन फिर भी इस कहानी के जिक्र में वह यहां आया है। किसी
रचना के तात्कालिक प्रभाव से मुक्त होने के लिए, जब उसका आस्वाद शेअर किया जाता है
तब संबंधित रचना के संदर्भ में ‘अद्भुत’ एक समीचीन शब्द होता है। इस प्रभाव या
कहें दबाव से मुक्त होने के बाद जब मैं शिवेंद्र की कहानी के बारे में पुन: सोचता
हूं तो पाता हूं कि असल जादू वहां नहीं है जहां हम अपनी आवश्यकताओं और
महत्वाकांक्षाओं के लिए विस्थापित हो जाते हैं, बल्कि वहां है जहां से हम
विस्थापित होते हैं। हमारे अभाव, विवशताएं और नादानियां हमें हमारे आस-पास घटता हुआ
जादू अनुभव नहीं करने देते और यह दुनिया एक इंतजारघर बन जाती है। इसे विस्थापन और
विलाप से राहत देने के लिए चाकलेट की जरूरत पड़ती है। चाकलेट और कुछ नहीं— प्रेम,
बंधुत्व, सहअस्तित्व और उम्मीद का एक रूपक है। अलका सरावगी के उपन्यास ‘कलि-कथा
वाया बाइपास’ में हैमिल्टन साहब को समझाते हुए रामविलास कहता है— ‘देखिए साहब हमें
दुःख भी उन्हीं बातों से होता है जिनसे हमें कभी सुख मिला था। अभाव उन्हीं चीजों
का महसूस होता है जिनके प्रति कोई भाव रहा था। आदमी छटपटाता है इन विपरीतों के
अंतिम सिरों से मुक्त होने के लिए...।’
शिवेंद्र की कहानी कहती है— ‘सदियों से
यही होता आया है कि कहानियां, नदियां और लोग अलग-अलग कारणों से अपनी पैदाइश छोड़कर
आगे बढ़ते रहे हैं। यह आगे बढ़ना कभी-कभी उड़ने की आकांक्षा और ऊब की अकुलाहट से संभव
होता है, लेकिन अक्सर यह जन्मता है उजड़ने की मजबूरी से...।’
विस्थापन के विषय में ऊपर उद्धृत वाक्यों
के बाद इसी कहानी से अंत में कुछ और पंक्तियां भी:
‘जब गांव छूटता है, सबसे पहले नदी याद आती
है।’
‘घर मां के बाद दुनिया का सबसे प्यारा
शब्द है और मां सभी प्यारे शब्दों की दुनिया है।’
‘जब भी जलना चुप रहना... जो आज जल रहा है
वह कल बुझ जाएगा।’
‘मरते हुए आदमी का वक्त उसकी हथेली पर
होता है और वह किसी भी वक्त में आ जा सकता है।’
‘चांद पर जाने का कोई वक्त नहीं होता, बस
आपके साथ कोई जाने वाला होना चाहिए।’
‘एक समय के बाद हर कोई बूढ़ा हो जाता है।’
‘सभी मांएं झूठ गढ़ती हैं।’
‘मनुष्य की अमरता है कि वह अपनी संतान में
स्वयं को बचा लेता है।’
‘जब कोई अन्यमनस्क होता है, दरअसल स्मृतियों
में होता है।’
‘रो लेने से भीतर का इंतजार शांत हो जाता है— कुछ देर
के लिए ही सही।’