...मैंने सोचा और संस्कार के वर्जित इलाकों में
अपनी आदतों का शिकार होने के पहले ही बाहर चला आया
बाहर हवा थी धूप थी घास थी
मैंने कहा आजादी…
मुझे अच्छी तरह याद है मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली दौड़ रही थी
उत्साह में खुद मेरा स्वर मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा- आ जा दी...
मैं सोचता रहा और घूमता रहा टूटे हुए पुलों के नीचे
वीरान सड़कों पर आंखों के अंधे रेगिस्तानों में
फटे हुए पालों की अधूरी जल-यात्राओं में
टूटी हुई चीजों के ढेर में
मैं खोई हुई आजादी का अर्थ ढूंढ़ता रहा
अपनी पसलियों के नीचे अस्पतालों के बिस्तरों में
नुमाइशों में बाजारों में गांवों में जंगलों में पहाडों पर
नुमाइशों में बाजारों में गांवों में जंगलों में पहाडों पर
देश के इस छोर से उस छोर तक
उसी लोक-चेतना को बार-बार टेरता रहा जो मुझे दोबारा जी सके
जो मुझे शांति दे और मेरे भीतर-बाहर का जहर खुद पी सके
मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के एक शर्मनाक दौर से गुजर रहा हूं
अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई
किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता
है
अब न तो कोई किसी का खाली पेट देखता है न थरथराती हुई टांगें
और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कंधा' देखता है
हर आदमी सिर्फ अपना धंधा देखता है
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
वे मुस्कराते हैं और दूसरे की आंख में
झपटती हुई प्रतिहिंसा करवट बदलकर सो जाती है
मैं देखता रहा… देखता रहा…
हर तरफ ऊब थी संशय था नफरत थी
लेकिन हर आदमी अपनी जरूरतों के आगे असहाय था
उसमें सारी चीजों को नए सिरे से बदलने की बेचैनी थी रोष था
उसमें सारी चीजों को नए सिरे से बदलने की बेचैनी थी रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था आग और आंसू और हाय का
इस तरह एक दिन जब मैं घूमते-घूमते
थक चुका था
मेरे खून में एक काली आंधी दौड़ लगा रही थी
मेरी असफलताओं में सोए हुए वहसी
इरादों को झकझोरकर जगा रही
थी...
धूमिल की एक लंबी कविता 'पटकथा'से कुछ अंश
चित्राकृति : अर्पणा कौर
चित्राकृति : अर्पणा कौर