Saturday, December 27, 2014

2014 की चौदह किताबें



‘तद्भव’ के 30वें अंक में वरिष्ठ कवि अरुण कमल अपने आत्मकथात्मक-वृत्तांत में कहते हैं, ‘‘बहुत से लोग आते हैं, कोई विज्ञप्ति चाहता है, कोई प्रशंसा, कोई लोकार्पण। इनमें से अधिसंख्य ने मेरी एक भी पंक्ति नहीं पढ़ी होती। …अगले जन्म में अगर मैं कुत्ता हुआ तो इनको जरूर काटूंगा। इस जन्म में तो कुछ न कर सका। वाल्टर बेन्यामिन ने ऐसे ही लोगों को लक्ष्य करके कहा था कि इनके साथ इनके प्रकाशकों को भी दंडित किया जाना चाहिए। लिखना और छपना इतना आसान भी नहीं होना चाहिए।’’ 

प्रस्तुत उद्धरण के प्रकाश में अगर वर्ष 2014 के हिंदी साहित्य पर निगाह डाली जाए तो नजर आएगा कि लिखना और छपना इतना आसान यहां कभी भी नहीं था। इन दिनों नए-नए ट्रेंड आ रहे हैं और लोकप्रियता पर नए सिरे से बहस जारी है। इस लोकप्रियता में निश्चित तौर पर धंधेबाजी के सूत्र भी हैं, लेकिन फिलहाल इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। हिंदी में ऐसे रचनाकारों की एक भीड़ आ गई है जो हिंदी की कथित मुख्यधारा से बाहर के हैं, लघु पत्रिकाओं में छपकर जिन्होंने अपनी पहचान अर्जित नहीं की। ये रचनाकार विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों और लेखक-संगठनों से निकलकर नहीं आए। वैचारिकता और जन-सरोकारों का कोई ताप भी इनमें नहीं है। इनके पीछे नए प्रकाशन-विकल्प, तकनीक और बाजार का वह सम्मिश्रण है जो मुख्यधारा के लिए दूषित है। यह सम्मिश्रण इन्हें आगे लाया है और लग रहा है कि आगामी वक्त में और भी आगे ले जाएगा। यह अलग बात है कि वास्तविक और गंभीर कृतियां अब तक इनके पास नहीं हैं। लेकिन ये वह पुल बना सकते हैं जो टी.वी. चैनल्स और इंटरनेट की बाढ़ में लुगदी साहित्य की अप्रासंगिकता के बाद टूट गया और जिसके रास्ते बहुत सारे पाठक देश-दुनिया के वास्तविक और गंभीर साहित्य तक आते  थे। इन रचनाकारों की प्रासंगिकता फिलहाल पुल बनाने में ही है। इसमें ही इनका और उस साहित्य का भविष्य है जो अब तक रस्सी जल गई, लेकिन बल नहीं गया वाले में मुहावरे में जीता है।

इस टूटे पुल की निर्माणाधीनता में इस वर्ष जयपुर से रायपुर तक, भारत भवन से रवींद्र भवन तक और प्रगति मैदान से गांधी मैदान तक साहित्य और साहित्येतर चर्चाएं होती रहीं। पत्रिकाओं, ब्लॉग्स और ‘फेसबुक’ पर विवाद और सूचनाएं आती-जाती रहीं। नए पुरस्कारों का गठन हुआ और पुराने प्रतिवर्ष प्रदान करने की बाध्यता से ग्रस्त रहे। कुछ संस्थानों के निदेशक और कुछ पत्रिकाओं के संपादक बदल गए। कुछ नई पत्रिकाएं शुरू हुईं तो कई पुरानी पत्रिकाएं बंद हो गईं। कुछ नए प्रकाशन सामने आए तो पुराने और प्रतिष्ठित प्रकाशनों ने अपने नए उपक्रम लॉन्च किए। कुछ नए रचनाकारों ने मुहावरे में कहें तो भीड़ में अपनी अलग पहचान बनाई और कई नए रचनाकारों ने ‘हिंदीसाहित्यसंसार’ में प्रवेश लिया तो देश-दुनिया और हमारी भाषा के कई रचनाकारों का रचा ही अब शेष रह गया, जैसे : गैब्रियल गार्सिया मार्केज, नादिन गॉर्डिमर, तादेऊष रोजेविच, माया एंजेलो, यू आर अनंतमूर्ति, नवारुण भट्टाचार्य, नामदेव ढसाल, अमरकांत, खुशवंत सिंह, जगदंबा प्रसाद दीक्षित, मदनलाल मधु, अशोक सेकसरिया, ज्योत्स्ना मिलन, मधुकर सिंह, रॉबिन शॉ पुष्प, तेज सिंह, सुरेश पंडित, आनंद संगीत, नंद चतुर्वेदी...। 

इस परिदृश्य में मैं हिंदी साहित्य से वर्ष 2014 की 14 किताबें चुनना चाहता हूं। ‘‘प्रत्येक चुनाव में व्यक्तिगत सीमाएं और रुचियां जरूरी भूमिका निभाती हैं’’— ऐसे अवसरों पर बहुधा उद्धृत इस वाक्य के बाद यह कहने से कि यह चयन भी अंतिम और निर्दोष नहीं है, मेरा काम कुछ कम मुश्किल हो जाता है। 

उपन्यास

‘चलती है गाड़ी उड़ती है धूल’ वाले अंदाज में हिंदी में इस वर्ष बहुत सारे उपन्यास आए और गए, लेकिन यहां चर्चा-योग्य मैं सिर्फ दो ही उपन्यासों को पा रहा हूं— काशीनाथ सिंह का ‘उपसंहार’ और अखिलेश का ‘निर्वासन’। ये दोनों ही उपन्यासकार वरिष्ठ हैं। दरअसल, कई युवा कवि और कहानीकार गए कुछ वर्षों में उपन्यास-लेखन की ओर प्रवृत्त तो हुए हैं, लेकिन यह एकदम स्पष्ट है कि यह विधा अभी उनसे सध नहीं रही। बात करें ‘उपसंहार’ की तो यह कृष्ण के अंतिम दिनों की कथा है। यह कथा ईश्वर के बहाने मनुष्य की कथा कहती है और सत्ता और युद्ध के दुष्प्रभावों के बीच संवेदनाओं और प्रेम के संकट और व्याख्या को उकेरती है।

‘निर्वासन’ को लेकर बहुत बहस चली और इस पर हुई चर्चाओं के साहित्येतर निहितार्थ भी खोजे गए। इसे बगैर पढ़े या अधूरा पढ़कर भी इस पर टीका-टिप्पणी का आलम रहा। लेकिन आसान बातें कैसे मकसद बन जाती हैं, यह जानने के लिए इस उपन्यास के नजदीक जाना चाहिए। यह कुछ देर के लिए अवसाद में ले जाता है तो जो पहले से ही अवसाद में हैं, उन्हें कुछ देर के लिए अवसाद से बाहर लाता है। यह भावुक करता है और कहता है कि तुम मुझे बुरा कैसे कह सकते हो मैंने तुम्हें रुलाया है। मैं तुम्हारी स्थानीयताओं का विश्लेषण हूं, मैं तुम्हारी स्मृतियों की अभिव्यक्ति हूं।

कहानी

‘हॉर्न दीजिए, साइड लीजिए’ वाले अंदाज में इस वर्ष बहुत सारे कहानी-संग्रह भी आए और गए, लेकिन चर्चा-योग्य मैं सिर्फ चार को ही पा रहा हूं— योगेंद्र आहूजा का ‘पांच मिनट और अन्य कहानियां’, पंकज मित्र का ‘जिद्दी रेडियो’, मनोज कुमार पांडेय का ‘पानी’ और आशुतोष का ‘मरें तो उम्र भर के लिए’।

‘पांच मिनट और अन्य कहानियां’ से बेहतर कहानी-संग्रह इस वर्ष हिंदी में ढूंढ़े नहीं मिलेगा। त्रासदी यह है कि इस संग्रह की कोई समीक्षा नहीं आई— ‘फेसबुक’ पर एक टिप्पणी तक नहीं। आयोजन, चर्चाएं, समीक्षाएं और टिप्पणियां... हिंदी में आजकल जनसंपर्क, ताकत और पैसे का खेल होती जा रही हैं, ऐसे में योगेंद्र आहूजा जैसे आत्मप्रचार और जनसंपर्क से दूर ईमानदार व्यक्ति/लेखक के कहानी-संग्रह पर चुप्पी स्वभाविक है। ‘एक्यूरेट पैथोलॉजी’, ‘स्त्री विमर्श’, ‘पांच मिनट’ और ‘खाना’ जैसी कहानियों के साथ-साथ इस संग्रह में योगेंद्र आहूजा का आत्मकथ्य भी है।

‘जिद्दी रेडियो’ में टिपिकल पंकज मित्र टाइप कहानियां हैं। वह आगे नहीं बढ़े हैं, लेकिन उनकी कहानियां अब भी उल्लेखनीय, महत्वपूर्ण और पढ़े जाने लायक हैं। 

‘पानी’ की कहानियों में लोक और प्रतीक कथाओं का परिवेश है। ‘पानी’, ‘पुरोहित जिसने मछलियां पाली’, ‘पत्नी चेहरा’ और ‘जींस’ इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानियां हैं।

‘मरें तो उम्र भर के लिए’ की कहानियां भी इस बात की तस्दीक करती हैं कि हिंदी में युवा रचनाकार अब भी उपन्यास की तुलना में लंबी कहानी बेहतर लिख रहे हैं।

कविता

‘होश आया भी तो कह दूंगा कि मुझे होश नहीं’ वाले अंदाज में इस वर्ष बहुत सारे कविता-संग्रह भी आए और गए, लेकिन चर्चा-योग्य मैं सिर्फ चार को ही पा रहा हूं— केदारनाथ सिंह का ‘सृष्टि पर पहरा’, ऋतुराज का ‘फेरे’, अजंता देव का ‘घोड़े की आंखों में आंसू’ और प्रभात का ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’।

केदारनाथ सिंह ने जो मुहावरा साधा है उस मुहावरे से बाहर जाने की उन्होंने कभी कोई कोशिश नहीं की है। एक ऐसे हिंदी कविता-समय में जब खुद को क्रास करने के चक्कर में केदारनाथ सिंह से उम्र में कम कई वरिष्ठ कवियों की सांस फूलने लगी हैं। केदारनाथ सिंह बहुत आराम और शाइस्तगी से चल रहे हैं, हालांकि देख वह वही सब रहे हैं जो पहले देख चुके हैं। इस देख चुके को देखने के लिए ही वह बार-बार देखी जा चुकी जगहों पर लौटते हैं। ‘सृष्टि पर पहरा’ की कविताएं पढ़ते हुए कहीं ऐसा नहीं लगता कि इस प्रक्रिया और चाल-चलन ने उन्हें बिलकुल भी थकाया है।

ऋतुराज का कवि-व्यक्तित्व केदारनाथ सिंह से बिलकुल फर्क है। संग्रह-दर-संग्रह उनके कवि का दायरा बढ़ता जाता है। ‘फेरे’ में मौजूद कविताएं भी इसकी बानगी हैं। 

‘घोड़े की आंखों में आंसू’ अजंता देव का तीसरा कविता-संग्रह है और यह उनके काव्य-विस्तार का प्रमाण है। इस संग्रह की कविताएं फार्मूलों से इस कदर दूर हैं कि यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि हिंदी की कई वरिष्ठ लेखिकाओं को इनके पास शऊर मांगने जाना चाहिए।

‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ में अपनी तरह का लोक और संवेदनाएं हैं। बहुत सारे अवसाद के बीच बहुत सारी आशा का स्वर इन कविताओं को विशिष्ट बनाता है।

[‘‘असद जैदी के तीनों पूर्व प्रकाशित कविता-संग्रह भी इस वर्ष एक जिल्द में ‘सरे-शाम’ नाम से शाया हुए’’—  इस वाक्य को यहां सारी गणनाओं से बाहर पढ़ा जाए।] 

आलोचना

हिंदी में अकादमिक आलोचना बहुत सारे उद्धरणों को एक जगह रख देने का नाम है, लेकिन फिर भी ‘यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए’ वाले अंदाज में आलोचना की भी कई पुस्तकें इस वर्ष आईं और गईं। मैं यहां कोई टिपिकल आलोचना-पुस्तक न चुनकर दो ऐसी किताबों का उल्लेख करूंगा जिन्होंने इस वर्ष हिंदी आलोचना को नई छवि दी। इनमें पहली है डायरीनुमा आलोचना— अनुराग वत्स के संपादन में आई कुंवर नारायण की ‘रुख’ और दूसरी है विनिबंधीय आलोचना— ‘रघुवीर सहाय’ पर पंकज चतुर्वेदी का द्वारा लिखा गया मोनोग्राफ। 

संस्मरण

केवल एक— मालचंद तिवाड़ी कृत ‘बोरूंदा डायरी’। यह पुस्तक विजयदान देथा उर्फ बिज्जी का विदा-गीत है। डायरी शैली में लिखे गए इन संस्मरणों को पढ़कर बिज्जी से संबद्ध सारे संसारों को जाना जा सकता है।

विविध  

मैं यहां ‘उद्भ्रांत’ हो गया हूं, अब मुझे केवल एक पुस्तक चुननी है और मेरे पास तीन विकल्प हैं— मंगलेश डबराल के साक्षात्कारों का संचयन ‘उपकथन’, कृष्ण कुमार की पुस्तक ‘चूड़ी बाजार में लड़की’ और प्रमोद सिंह की गद्य के कई रंग दिखाने वाली ‘अजाने मेलों में’। ‘‘प्रत्येक चुनाव में व्यक्तिगत सीमाएं और रुचियां जरूरी भूमिका निभाती हैं’’— इसलिए मैं चाहता हूं इन पंक्तियों को पढ़ने वाले इन सीमाओं और रुचियों का अतिक्रमण कर इस स्थान पर इन तीन में से कोई भी एक पुस्तक रख सकते हैं। मुझे रखना होगा तो मैं ‘अजाने मेलों में’ को रखूंगा। यह पुस्तक एकालाप और सुख की प्रतीक्षा के असंख्य ढंग सिखाती है। 

***
...और आखिर मैं यह कहना आवश्यक है कि मैंने यह सब उस छात्र की तरह लिखा है जिसे सारे उत्तर पता होते हैं, लेकिन वक्त की कमी के चलते जो पर्चा पूरा कर नहीं पाता। 

***
[ ‘दि संडे पोस्ट’ में प्रकाशित ]
तस्वीर : Christine Ellger

Thursday, September 4, 2014

कहां नहीं है ‘बखेड़ापुर’



वर्तमान की चापलूसी में 
तुम कभी भी अपने अतीत को व्यर्थ नहीं समझोगे
सारी दुर्घटनाएं सींचेगी
हरे-हरे पात लाएंगी
आने वाली पीढ़ियां सदा उर्वरा होंगी भारत की 
[ कमलेश ] 


युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय के उपन्यास ‘बखेड़ापुर’ का प्रत्येक अध्याय ज्ञात-अज्ञातकुलशील कवियों की काव्य-पंक्तियों के उद्धरणों के साथ आरंभ होता है। यह उपन्यास एक कवि का है इसलिए इसकी भाषा और प्रस्तुति को कुछ काव्यात्मक भी होना चाहिए... कवि इस दायित्व से प्रत्येक अध्याय से पहले दिए गए उद्धरणों के साथ मुक्त हो जाता है। ये उद्धरण उपन्यास की अंतर्वस्तु से असंपृक्त हैं। अपने कुल प्रभाव में ये उद्धरण केवल अध्याय का खत्म और शुरू होना सूचित करते हैं, वैसे ही जैसे इस उपन्यास पर लिए प्रस्तुत नोट्स में आए उद्धरण केवल एक अनुच्छेद का आना और जाना सूचित करते हैं। गद्य रच रहे एक कवि के लिए इस तरह एक कवियोचित दायित्व से मुक्त होना खेदजनक है। इस उपन्यास की भाषा और प्रस्तुति काव्यात्मक नहीं है। उद्धरण दूसरों के होते हैं, इसलिए उनसे आपका काम अंत तक नहीं चल सकता। 

वे कुछ नहीं करते
अपने आप प्रकट होता है उनसे
सुंदर और नश्वर 
[ ध्रुव शुक्ल ] 

भाषा और प्रस्तुति में औपन्यासिक काव्यात्मकता न होने के बावजूद यह उपन्यास आस्वाद के स्तर पर सशक्त है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां कवि अपने लोक में गहरे उतरा हुआ है। यहां लोक से उठकर आए अपरिष्कृत शब्दों का अर्थपूर्ण वैभव है और लोक से ही उठकर चले आए अंधयकीनों का वैभववंचित दर्प भी। पात्रों (जिनका कम न होना वैसे ही है, जैसे उनका बहुत न होना) के छोटे-छोटे जीवन-प्रसंगों के बीच चलती किस्सागोई गजब है। यह किस्सागोई और यह लोक-वैभव हिंदी उपन्यास में एक अर्से बाद लौटा है, यह कहने की जरूरत नहीं कि इस अर्थ में यह उपन्यास स्वागतयोग्य है।

मैं यहीं कहीं की गलियों से बाहर निकलने की राह खोजता हूं
नक्षत्रों पर उसकी उंगलियों से छूटे निशानों से 
मेरी नियति का नक्शा तैयार होता है 
जिसमें उलझकर न जाने कितने निर्दोष गिरते चले जाते हैं 
[ उदयन वाजपेयी] 

‘बखेड़ापुर’ में अनपढ़ बनाए रखने की साजिशों के बीच भी बोलियां अपना उल्लास और चुटीलापन नहीं खोती हैं। काहिली और सतही मनोरंजन से घिरे पात्र हाशिए की वर्णनात्मकता रचते रहते हैं। जीवन में इतना विलाप, इतना व्यंग्य, इतना क्रोध, इतनी करुणा, इतनी विवशताएं होती हैं कि इसके प्रकटीकरण के लिए औपन्यासिक काव्यात्मकता को खोकर भदेस होना पड़ता है :

‘काका सुनाइए तनी, का हुआ सुहागरात के दिन?’
‘अरे दुर, तोहनियो सब न रोज एके बतिया करता है।’
‘काका बतिया तो एके नू है, रतिया के बतिया, कि दू ठो है, तो दूनो सुनाइए।’
‘पैर दबाएगा न रे तेलिया?’
‘आरे काका शुरू न करिए, तेली रामा रोज दबाते हैं, आज कोई नया है?’

यह उपन्यास अपने कथ्य में विषयों को अतिक्रमित करता हुआ चलता है।

हम आहत थे और रुग्ण थे और हर बात मन में 
रंग की तरह लगाकर बैठ जाते थे
अपने अंग-संग दिन-रात रहने वाले शख्स की 
याद आने लगती थी और रोना आता था
कोई बहुत दूर था, उसकी गंध रंध्रों में फूट पड़ती थी
और सफेद रात घिर आती थी
[ तेजी ग्रोवर ] 

यहां यथार्थ जैसे-जैसे खुलता है, वैसे-वैसे और फैलता जाता है। यह आश्चर्यजनक नहीं कि यह उपन्यास खत्म भी एक फैलाव पर होता है। यहां मुक्तिबोध याद आते हैं जिनके सामने एक कदम रखते ही हजार राहें फूटती हैं : 

‘भीतर से कोई आवाज नहीं आती। बाहर से आवाज लगाने वाला कसमसाकर रह जाता है।
जितने भी ‘गिद्ध’ हैं और बहुत सारे ‘गिद्ध’ हैं, सब नजर गड़ाए हुए हैं।’

सरकारी योजनाएं, शिक्षा, चिकित्सा, यौन-मनोविज्ञान, अंधविश्वास, जाति-व्यवस्था, आर्थिकी के बदहाल वर्तमान के बीच ‘बखेड़ापुर’ में वह सब कुछ जो बहुत जरूरी है, अनिश्चितकाल के लिए अवकाश पर है। अपने केंद्रीय कथ्य और प्रकाश में यह कथा एक ऐसी स्थानीयता जो कहीं भी हो सकती है, की बदहाली को राजनीति की बदहाली से और राजनीति की बदहाली को शिक्षा की बदहाली से जोड़ती है। घटनाक्रम, चरित्र और व्यवस्था बदलते रहते हैं, लेकिन यह बदलाव बदहाली को बदल नहीं पाता।

अंधे बिल में अजन्मे शिशु की पसली टूटती है 
तो ईश्वर की हिचकी में गर्दन गिरे पेड़ सी लटक जाती है  
[ अनिरुद्ध उमट ]

यहां सच टूट रहा है और इस टूटन में यह उपन्यास बार-बार स्कूल की तरफ लौटता रहता है, लेकिन यहां तक आते-आते वहां :

‘बखेड़ापुर में रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय, पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था। स्कूल अब अस्थायी तौर पर ही लगता। बच्चे बहुत कम स्कूल आ पाते, शिक्षक भी कम आते या नहीं आते— कौन पूछने वाला था।’ 

तमाम (अ) मानवीय धत्तकर्मों, गालियों, हिंसा के समानांतर उभरती प्रतिहिंसा के साथ ‘बखेड़ापुर’ की भाषा और प्रस्तुति सिनेमाई प्रभाव लिए हुए है। यहां औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव न सही, लेकिन कहीं-कहीं एक ऐसी सांगीतिक लय है जो अपने असल असर में कुछ कचोटती हुई-सी है।

लकड़ीली दिल्लगी पर डेढ़ घड़ी दिन चढ़ा होता 
पर भाप छाया जैसे जमी रहती
दिन चिलका पड़ता फिर धूमिल धब्बे में बिखर जाता
[ पीयूष दईया ]  

‘बखेड़ापुर’ पढ़ चुकने के बाद हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की खोज नए सिरे से जारी होगी क्योंकि बकौल अखिलेश ‘बखेड़ापुर’ में जिंदगी भरपूर है और जिस जिंदगी की हरे प्रकाश ने जिस जरूरी तटस्थता और लेखकीय संलग्नता के साथ पुनर्रचना की है उसके कारण भी यह उपन्यास समकालीन सृजन संसार में समादृत होने का अधिकार हासिल करता है...’ 

निर्जन है, निस्पंद नहीं है 
अरण्य है तो आखेट तो होगा ही 
पैरों के नीचे तुम्हारा ही बिंब है 
अगले कदम पर कौन होगा तुम्हारे साथ
इसलिए अरण्य है तो आखेट तो होगा ही
[ शिरीष ढोबले ]

***
'बखेड़ापुर' पर यहां प्रस्तुत ये समीक्षापरक नोट्स ‘सदानीरा’ में शीघ्र प्रकाश्य 
युवा कवियों के उपन्यासों पर लिखे गए एक वृहत लेख से है

Monday, August 4, 2014

पैंतीस वर्ष कम नहीं होते बेवकूफियों के लिए


‘‘सूक्ष्म अंतर्दृष्टि। संयत कला। अनुशासन और आत्मीयता।’’ यह अशोक वाजपेयी का निर्णायक मत है। यह उन्होंने आज से करीब पैंतीस वर्ष पहले अरुण कमल को उनकी कविता उर्वर प्रदेश के लिए प्रथम भारत भूषण अग्रवाल स्मृति युवा कविता पुरस्कार से नवाजते हुए दिया था।

‘‘बिलकुल अप्रत्याशित मुहावरे। समय का आख्यान। गहन इतिहासबोध। आवृत मार्मिकता। जटिल अनुभव और स्थितियों का समाहार।’’ यह अरुण कमल का निर्णायक मत है। यह उन्होंने करीब पच्चीस दिन पहले आस्तीक वाजपेयी को पैंतीसवें भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता पुरस्कार से नवाजते हुए दिया। 

भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार अशोक वाजपेयी के घर का पुरस्कार है और आस्तीक वाजपेयी अशोक वाजपेयी के घर के हैं। भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के सारे निर्णायक अशोक वाजपेयी-ग्रुप के हैं या उनसे असहमत हो पाने की क्षमता के बाहर के...। आस्तीक वाजपेयी की कविताएं ‘समास’, ‘पूर्वग्रह’ और ‘सदानीरा’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आस्तीक बहुत खराब कविताएं लिखते हैं। अशोक वाजपेयी वाम-विरोधी हैं। अरुण कमल ‘वामपंथी’ हैं। भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समारोह का आयोजन पांच वर्ष में एक बार होता है। गए पैंतीस वर्षों में भारत ने कई मध्यावधि चुनाव देखे हैं, लेकिन भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार ने एक भी मध्यावधि आयोजन नहीं देखा। यहां आकर अब मुझे इन छोटे-छोटे वाक्यों से कुछ बड़े वाक्यों की ओर बढ़ना चाहिए...।

तीन अगस्त 2014, रविवार की शाम भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समारोह का आयोजन नई दिल्ली के तानसेन मार्ग पर स्थित त्रिवेणी सभागार में हुआ। पुरस्कृत कवि : व्योमेश शुक्ल (2010), अनुज लुगुन (2011), कुमार अनुपम (2012), प्रांजल धर (2013), आस्तीक वाजपेयी (2014) मंचासीन निर्णायक : उदय प्रकाश, अनामिका। अध्यक्ष : केदारनाथ सिंह। संचालन : अशोक वाजपेयी। संयोजक : अन्विता अब्बी।

इस तथ्य को प्रतिवर्ष एक दिन और पांचवें वर्ष में दो दिन बहुत गहराई से महसूस किया जाता है कि अगर भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार न होता तो भारत भूषण अग्रवाल का क्या होता। यकीनन उन्हें वैसे ही भुला दिया गया होता जैसे ‘तार सप्तक’ के बहुत सारे कवियों को...। वक्त बहुत वक्त तक प्रभावहीनता को बर्दाश्त नहीं करता। लेकिन ‘स्मृति-उपक्रम’ कुछ भी संभव कर सकते हैं। नवीनतम उपक्रम की शुरुआत बहुत भद्दी रही। भारती शर्मा के निर्देशन में रंग-संस्था ‘क्षितिज’ द्वारा दी गई भारतभूषण अग्रवाल की कविताओं की नाट्य-प्रस्तुति में न नाट्य था, न प्रस्तुति। ‘मांसल’ को मासल और ‘रुचि’ को रूची पढ़ते अभिनय या कहें पाठ ने भारत भूषण अग्रवाल की कविताओं के प्रति बहुत घृणा उत्पन्न की। उनके सड़े हुए तुक्तकों की दुर्गंध तब और मुखर हो गई जब इस रंग-समूह ने दर्शकों को चौंकाने के लिए अपना आखिरी या कहें एकमात्र दांव खेला। इन तुक्तकों को ‘रैप’ करके कलाकारों या कहें विदूषकों ने सभागार में अरुण कमल की तरह ही नामौजूद यो यो हनी सिंह की कमी को भर दिया। तकरीबन पैंतीस मिनट लंबी इस यातना के बाद अन्विता अब्बी ने कविता-प्रस्तुति के संदर्भ में हुई इस ‘आधुनिक पहल’ को सराहते हुए भारती शर्मा का आभार प्रकट किया और विषयांतर करते हुए कहा कि अरुण कमल पटना से रवाना तो हुए थे, लेकिन पता नहीं दिल्ली क्यों नहीं पहुंचे...।

इसके बाद जब संयोजक द्वारा मंचस्थ होने के लिए अध्यक्ष, निर्णायकों और संचालक को आमंत्रित किया गया तो केदारनाथ सिंह केंद्र ढूंढ़ने लगे, अशोक वाजपेयी ने उन्हें केंद्र बताया तब वह उदय प्रकाश के बगल में बैठे जो तब तक अनामिका के बगल में बैठ चुके थे। केदारनाथ सिंह का इस तरह बैठना अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश के बीच में बैठना था। उनका इस तरह बैठना अनामिका से कुछ दूर बैठना था।

‘‘अब तक पैंतीस कवियों को यह पुरस्कार मिल चुका है। यह प्रतिवर्ष प्रकाशित एक श्रेष्ठ कविता पर दिया जाता है, सर्वश्रेष्ठ कविता पर नहीं।’’ यह कहते हुए अशोक वाजपेयी माइक पर थे। उन्होंने युवा कवियों का आत्मविश्वास तोड़ने वाले कुछ अर्थवंचित वाक्य कहे। इन वाक्यों का प्रसार और न बढ़े इस दृष्टि से मैं इन्हें यहां उद्धृत नहीं कर रहा हूं। उन्होंने इस बात को बहुत शान से शाया किया कि इस पुरस्कार की ज्यूरी और प्रक्रिया सार्वजानिक है। उन्होंने कहा कि हिंदी के बहुत सारे पुरस्कारों पर एक अजब किस्म की गोपनीयता का आतंक हावी है। अशोक वाजपेयी की बातों और कार्यकलापों पर उनकी उम्र का असर अब साफ दिखने लगा है। यह कहते हुए कि आज आपको पांच कवियों को पुरस्कृत होते हुए देखने का ऐतिहासिक सौभाग्य मिलेगा, उन्होंने व्योमेश शुक्ल का परिचय और उनकी कविता ‘बहुत सारे संघर्ष स्थानीय रह जाते हैं’ पर स्वरचित निर्णायक मत पढ़ा। व्योमेश शुक्ल से जुड़े अपने फैसलों पर उनका कहना था कि उन्हें इन पर कोई संकोच नहीं है।

व्योमेश शुक्ल ने पुरस्कृत कविता और ‘जस्ट टियर्स’ शीर्षक एक लंबी कविता पढ़ी। इस कविता का आखिरी वाक्य, ‘तब से मैंने कुछ नहीं कहा है’ पढ़ने के बाद वह श्रोताओं को स्तब्ध और इस इंतजार में छोड़ कि वह अगला वाक्य कब कहेंगे, अपने स्थान पर लौट गए।

अशोक वाजपेयी द्वारा अनुज लुगुन का पुराना परिचय पढ़ने के बाद, ‘‘कविता में होना और हिंदी कविता में होना बहुत मुश्किल है’’— यह कहते हुए उदय प्रकाश ने अपनी लटपटाती जुबान में अनुज लुगुन की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ पर अपना निर्णायक मत पढ़ा। कभी उदय प्रकाश के पास एक और भाषा हुआ करती थी जिसमें अविनाश दास का जिक्र नहीं हुआ करता था। जिसमें पैतीस साल के पूरे हो रहे कवि उन्हें कॉल करके भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार देने के लिए डिस्टर्ब नहीं करते थे। यहां असद जैदी की कविता-पंक्तियां याद आती हैं कि ‘परिस्थितियां खराब हैं/ परिस्थितियां बहुत अच्छी तरह खराब हैं।’

अनुज लुगुन ने जोहार किया। उन्होंने पतलून और सैंडिल बहुत अच्छे पहन रखे थे। उन्होंने पुरस्कृत कविता और ‘चिड़ियाघर में जेब्रा की मौत’ शीर्षक कविता पढ़ी। इस पाठ में कुछ बुराइयां खासकर लक्षित की गईं, इनमें प्रमुख थी— ‘हिंदी विभागीय ट्रेनिंग’।

इस आयोजन में यह देखना भी ‘ऐतिहासिक सौभाग्य’ के अंतर्गत था कि अनुज लुगुन की कविता पर अनामिका ने जमुहाई ली। यह जमुहाई अनामिका की आवाज की तरह ही आकर्षक थी। और क्यों न हो जब वह भी उनके होंठ खुलने पर ही बाहर आती है। वैसे यह देखना भी ‘ऐतिहासिक सौभाग्य’ के अंतर्गत ही था कि जब परिचय और निर्णायक मत पढ़ा जा रहा होता तब पुरस्कृत कवि कागज के एक टुकड़े की प्रतीक्षा में मंच के एक कोने में सिर झुकाए खड़ा रहता। यह तब और भी मूर्खतापूर्ण रहा जब इस दफा इस कागज के टुकड़े पर पांच में से तीन निर्णायकों के ही हस्ताक्षर हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल बल्गारिया में हैं और अरुण कमल पता नहीं कहां हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल बल्गारिया में हैं, यह पता नहीं चलता अगर सभागार के एक कोने से सुमन केशरी और दूसरे से अजित राय इस बात को चिल्लाकर न बताते।

अशोक वाजपेयी के यह कहने के बाद, ‘‘कुमार अनुपम का परिचय बहुत बड़ा है, इसे क्या बताया जाए आप सब जानते ही होंगे...’’ अनामिका माइक पर थीं। उन्होंने कुमार अनुपम की कविता कुछ न समझे खुदा करे कोई’ पर अपने निर्णायक मत में क्या पढ़ा, मैं कुछ भी सुन नहीं पाया। अनामिका जब भी कुछ बोलती हैं, मैं सुन नहीं पाता। उनकी आवाज अपने सौंदर्य में खो जाने के लिए मुझे बाध्य करती है, मैं कई बार खो चुका हूं। जब तक कोई दूसरी आवाज नहीं आती, मैं खोया रहता हूं। मैं इसे सार्वजनिक रूप से कहना चाहता हूं कि मैं कभी आमने-सामने बैठकर अनामिका का इंटरव्यू नहीं कर पाऊंगा। देह-भाषा और वाणी की अद्भुत मधुरता के सघन सामंजस्य में मैं अपने मूल लक्ष्य से वैसे ही भटक जाऊंगा जैसे इस रपटनुमा आलेख में...।

कुमार अनुपम ने पुरस्कृत लंबी कविता के कुछ अंश और एक या शायद दो छोटी कविताएं पढ़ीं। वह प्रकाशक अशोक आजमी और समन्वय-संयोजक गिरिराज किराडू को मिस कर रहे हैं, ऐसा उनकी आवाज से साफ लग रहा था। छिट-पुट या कहें पिट-पुट तालियों के बीच वह जहां से उठे थे वहीं बैठ गए।

अशोक वाजपेयी ने प्रांजल धर का परिचय और उनकी कविता ‘कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं’ पर पुरुषोत्तम अग्रवाल रचित निर्णायक मत पढ़ा। प्रांजल धर ने पुरस्कृत कविता और दो अन्य कविताएं पढ़ने का अभिनय किया। खराब कविताएं अच्छी तरह से कैसे पढ़ी जाती हैं, यह तकनीक युवा कवियों के साथ-साथ कई वरिष्ठ कवियों को भी प्रांजल धर से सीखनी चाहिए।

‘आस्तीक वाजपेयी अट्ठाइस  साल के हैं और उन्हें जानकी-‘पूल’ सम्मान भी मिल चुका है।’ इस ‘जरूरी जानकारी’ से भरा परिचय पढ़ने के बाद अशोक वाजपेयी को शर्म आने लगी, इसलिए अन्विता अब्बी ने अरुण कमल रचित और अशोक वाजपेयी द्वारा प्रायोजित  आस्तीक वाजपेयी की कविता ‘विध्वंस की शताब्दी’ पर निर्णायक मत पढ़ा। मैं चाहता हूं कि इस कविता पर मेरा भी मत पढ़ा जाए— ‘‘असंतुलित स्फीति। रूढ़ भाषा। बासी बिंब। पुरातन कथ्य। पूर्ववर्ती कवियों की खराब नकल और ऊब की पराकाष्ठा।’’ 

‘‘अशोक जी गलत कह रहे हैं, मैं अट्ठाइस नहीं सत्ताईस साल का हूं। यह बात कम से कम उन्हें तो नहीं ही भूलनी चाहिए क्योंकि मैं पैदा होकर उनके ही घर गया था।’’ ‘आस्तीकलीक्स’ के इस खुलासे के बाद जैसे कोई बटन दब गई हो और उसमें से पुरस्कृत कविता और ‘भाषा’ व ‘नक्षत्र’ शीर्षक दो छोटी कविताएं बाहर आई हों। अ आ इ ई उ ऊ भा भा भू भू थू थू... आस्तीक वाजपेयी अभी सीख रहे हैं। यह अमर वाक्य जैसे उनके लिए ही है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती... अ आ इ ई उ ऊ भा भा भू भू थू थू...।

केदारनाथ सिंह जब अशोक वाजपेयी के कानों के पास अपने होंठ ले गए तब मुझे लगा कि शायद वह कह रहे हैं कि आपके घर में एक ‘जीनियस’ पैदा हो गया है। इसके बाद अशोक वाजपेयी ने वक्तव्य पर नहीं संक्षेप पर जोर देते हुए केदारनाथ सिंह को माइक पर आमंत्रित किया और केदारनाथ सिंह ने अपना अमूल मक्खन टाइप वक्तव्य दिया। इसमें उन्होंने दो बार भारत भूषण अग्रवाल की स्मृति को नमन किया और इतनी ही बार अन्विता अब्बी की उपस्थिति को धन्यवाद दिया। भारत भूषण अग्रवाल का मित्र होने से इंकार करते हुए उन्होंने उनसे जुड़ा एक बोरिंग संस्मरण सुनाया। अब बारी थी एक बड़े खुलासे की। केदारनाथ सिंह ने कहा, ‘‘मैंने इस पुरस्कार से पांच नहीं छह कवियों को पुरस्कृत किया है। वह इस तरह कि मैंने अनुज लुगुन की नियुक्ति एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में केवल इसलिए होने दी क्योंकि इस कवि को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिल चुका था।’’ अंत में उन्होंने कहा कि पैंतीस वर्षों में हिंदी कविता ‘अ’ (अरुण कमल) से ‘आ’ (आस्तीक वाजपेयी) तक की ‘लंबी’ यात्रा कर चुकी है।

अशोक वाजपेयी ने यह कहते हुए कि एक समय कोई भी भारत भूषण अग्रवाल का मित्र हो सकता था, उनसे जुड़ा एक भूल जाने लायक संस्मरण सुनाया। उन्होंने यह भी कहा कि शाम काफी लंबी हो चुकी है। सभागार के बाहर आकर मैंने भी इस बात को महसूस किया कि अंधेरा काफी घना हो चुका था। अभी सफर बहुत था और आधी रात बीतने पर बारिश होनी थी। 
***

हिंदी कविता के लिए यह सचमुच एक दुर्भाग्यपूर्ण दिन था। खराब कविता का इतना सम्मान। उसे इतना महत्वपूर्ण मंच, इतना स्थान। ऐसी बेहूदा बयानबाजी। यह बताता है कि अब हिंदी पट्टी में कहीं कोई हाशिए पर नहीं है— न दलित, न स्त्री, न अल्पसंख्यक, न आदिवासी... आज हाशिए पर है सिर्फ सच्ची हिंदी कविता। कवियों के पास बढ़िया कुर्ते, बढ़िया जींस, बढ़िया चश्मे, बढ़िया घड़ियां, बढ़िया स्मार्टफोन और बढ़िया जूते हैं, लेकिन सुनाने लायक कविताएं नहीं हैं, न ही सुनाने का शऊर। मैं महज शाब्दिक निष्कर्षों पर यकीन नहीं करता, लेकिन कहना चाहता हूं कि हिंदी में प्रचलित और पुरस्कृत निकृष्ट कविता के प्रतिपक्ष में हमें अपनी काव्यात्मक चिंताएं और गतिविधियां बढ़ानी होंगी। यह कोई नई और अनूठी बात नहीं है, लेकिन इसे बराबर दोहराते और अमल में लेते रहने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। संभवत: ऐसा करके ही हिंदी में परवान चढ़ते कुछ वरिष्ठों के भ्रष्ट कारनामों से बचा जा सकता है। भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता पुरस्कार के निर्णायक सर्वश्री अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, पुरुषोत्तम अग्रवाल और अनामिका नई बनती हिंदी कविता को अवसादग्रस्त कर कुचलने की पूरी तैयारी में हैं। इन सबकी समझ और व्यवहार साहित्यिक राजनीति से संचालित और गठजोड़ से प्रेरित है। इनके अब तक के फैसलों ने हिंदी में अयोग्यों को स्थापित कर इसके लिए बाध्य किया है कि हिंदी में गैरजरूरी बहसें पनपें। अब हिंदी में असल युवा कवि वही होगा जो इन्हें बेईमान मानकर चलेगा। इसके अतिरिक्त भी उन तमाम समितियों-संस्थाओं-अकादमियों —जो पैतीस वर्ष से कम के रचनाकारों को पुरस्कृत करती हैं— के दृश्य-अदृश्य निर्णायकों को भी हिंदी के वास्तविक युवा कवियों को बेईमान मानकर चलना होगा...।


Saturday, April 5, 2014

सारा सुर ही दूसरा लग गया...

16वें लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी की लहर हो या न हो, लेकिन हिंदी के प्रगतिशील व्यक्तित्वों में इससे बावस्ता खौफ बहुत है। यह कुछ जाहिर हुआ कल नई दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में आयोजित देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह के मौके पर। जैसे सारे समारोह शुरू होते हैं वैसे ही यह समारोह भी जलपान और दर्शन-प्रदर्शन के साथ-साथ मंच पर से आती संचालकीय वाणी से शुरू हुआ। संचालिका अल्पना मिश्र ने अपनी मधुर आवाज में जरूरी औपचारिकताओं की अदायगी करते हुए 18वें देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार से सम्मानित विनोद तिवारी को प्रखर आलोचक बताते हुए कहा कि वह युवा रचनाशीलता को रेखांकित भी करते हैं। यह बात संचालिका को इसलिए भी याद आई क्योंकि ‘पक्षधर’ में एक बार विनोद तिवारी ने उन्हें छापा था।

राजेंद्र यादव की स्मृति में एक मिनट के मौन के बाद अर्चना वर्मा ने— इस बार के निर्णायक अजित कुमार, नित्यानंद तिवारी, अशोक वाजपेयी और वह स्वयं थीं यह जानकारी देते हुए— प्रशस्ति-वाचन किया। इस दरमियान विनोद तिवारी का मुखमंडल वैसा ही था जैसा ऐसे अवसरों पर प्रशस्ति-पत्र के नायक-नायिकाओं का एक अनिवार्य विकल्पहीनता में हो जाया करता है। इसके बाद उन्हें स्मृति-चिन्ह और अन्य वस्तुएं प्रदान की गईं जिन्हें देते हुए इस समारोह के अध्यक्ष मैनेजर पांडेय ने विनोद तिवारी से कहा, ‘अपनी ओर ज्यादा रखो वर्ना लोग समझेंगे सम्मान मुझे मिल रहा है।’

विनोद तिवारी ने ‘आलोचना : एक सजग आलोचनात्मक कार्रवाई’ शीर्षक आत्म-वक्तव्य में कहा, ‘आलोचना एक रचनात्मक क्रिया है।’ इसके लिए उन्होंने शिवदान सिंह चौहान को उद्धृत किया। ‘नथिंग इज फाइनल’ यह बताते हुए उन्होंने लेनिन को उद्धृत किया। कुछ सुनी-सुनी और सूनी-सूनी बातों के बीच उन्होंने मुक्तिबोध को भी उद्धृत किया। युवा आलोचना ने साहित्य से अपने रिश्ते को गंभीर बनाया है यह सिद्ध करने के लिए उन्होंने विजयदेव नारायण साही को उद्धृत किया। मनचाही स्वायत्तता के संदर्भ में उन्होंने राजशेखर को उद्धृत किया। उन्होंने अपने ज्ञान से आतंकित करने की बहुत कोशिश की, लेकिन कर नहीं पाए क्योंकि उन्होंने स्पेंसर, एडोर्नो, हेबरमास, अल्थ्युसे, इगल्टन, जेमेसन, फूको, देरिदा, सोंटैग, बाख्तिन, बोद्रिला वगैरह को उद्धृत नहीं किया। ‘आलोचना के पक्ष में बोलना खुद को संदेहास्पद करना होता है’ एक अज्ञात कवि के इस ज्ञात वाक्य को उद्धृत करते हुए उन्होंने इकबाल का ‘परवाज में कोताही’ वाला शे’र उद्धृत किया और अपना पर्चा अधूरा छोड़ अपने स्थान पर लौट गए।

बाद इसके शाश्वती बिटिया ने अपने नाना (देवीशंकर अवस्थी) के लिखे एक लेख का अंश पढ़ा।

अब महफिल सुनने लायक हो चली थी, कवि असद जैदी माइक पर थे। उन्होंने कहा कि वह न पहुंचने के लिए बदनाम हैं, लेकिन आज उन्हें आना पड़ा और आते हुए उन्हें जिगर मुरादाबादी का यह शे’र बहुत याद आ रहा था कि ‘करना है आज हजरत-ए-नासेह का सामना/ मिल जाए दो घड़ी को तुम्हारी नजर मुझे।’ यहां आकर जब उन्होंने डॉक साब (मैनेजर पांडेय) को देखा तो उन्हें इस शे’र के याद आने की वजह समझ में आ गई। उन्होंने कहा, ‘आज ‘आलोचना के सरोकार’ विषय पर यह संगोष्ठी एक ऐसे समय में हो रही है जब एक फासिस्ट की ताजपोशी बस कुछ ही दिन दूर है। यह एक गंभीर क्षण है और यह अचानक उपस्थित नहीं हो गया है। इसकी तैयारी बहुत दिन से हो रही थी। आधुनिक भारत के इतिहास का यह एक स्थगित क्षण है जो अब हमारे सामने आ गया है। यह बात इस मौके पर प्रासंगिक नहीं है, लेकिन कोई और बात मेरे दिमाग में नहीं आ रही है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘हिंदी आलोचकों से मैं बहुत बोर होता हूं। उनकी भाषा बहुत लद्धड़ है। वे इसे बहुत कामचलाऊ ढंग से इस्तेमाल करते हैं और बस घास काटते हुए चले जाते हैं। हिंदी एक अकेली जुबान है जहां आलोचना को एक समुदाय की तरह देखा जाता है।’ विश्वविद्यालयों में चलने वाली शोध-प्रतिशोध की कार्रवाइयों को निशाने पर लेते हुए उन्होंने कहा, ‘हिंदी में प्राध्यापक बनते ही आप आलोचक मान लिए जाते हैं। हिंदी का प्राध्यापक सिर्फ खुद के प्रति जवाबदेह है।’ इन प्राध्यापकीय अजाब से निकलने को उन्होंने भविष्य की हिंदी आलोचना का सबसे जरूरी काम बताया।      

‘बहसों को ही आगे बढ़ाऊं या कुछ और...’ यह कहते हुए प्रणय कृष्ण ने माइक संभाला और असद जैदी ने इजाजत चाही। असद जैदी की अनुपस्थिति और शेष उपस्थिति को संबोधित प्रणय कृष्ण ने कहा, ‘आलोचना के बगैर परिवर्तन नहीं होता।’ उन्होंने हिंदी में चल रही तमाम बहसों, विमर्शों और सांप्रदायिक राजनीति के उभार... आदि के अंधकार में अपनी बात रखते हुए कहा, ‘केवल दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र पर चल रही बहसों को छोड़ दें तो हिंदी में कोई साहित्यिक बहस नहीं है।’ प्रणय कृष्ण का वक्तव्य अपने कुल असर में बहुत विरोधाभासी और ‘नथिंग इज फाइनल’ वाले मूड का रहा। अंत में उन्होंने माफी मांगते हुए कहा, ‘आलोचना मौलिकता की भ्रांत धारणा का अतिक्रमण करती है।’

‘मैं कुछ सनसनीखेज बातें करूंगा’ ऐसे बाजारू वाक्य से अपना वक्तव्य शुरू करते हुए संजीव कुमार ने कहा, ‘हम इस संगोष्ठी के विषय के फ्रेम में उलझ गए हैं। ‘आलोचना और सरोकार’ में आलोचना और सरोकार दोनों के साथ ही कोई विशेषण नहीं है। यह बात वक्ता को आजादी देती है।’ इस आजादी का पूरा फायदा उठाते हुए संजीव ने पूर्व-वक्ता असद जैदी की बातों से सहमति व्यक्त की और कहा, ‘आलोचना एक शक्ति का खेल है जो तर्कों और मानदंडों के बल पर चलती है। इसमें ही सरोकारों का प्रश्न आता है।’ पिरामिडीय ऊंचाई, गिरने-गिराने का डर, स्पेस और सनसनी इत्यादि से गुजरते हुए संजीव इस नतीजे पर पहुंचे कि आलोचना का समस्याग्रस्त होना उसके तेज को छीन रहा है। कैथरीन बेल्सी को उद्धृत करते हुए उन्होंने फरमाया, ‘जब हम एक साहित्यिक कृति के प्रोडक्शन प्रोसेस को भुलाकर उसे सृजन का नाम देते हैं तो यह एक रहस्यावरण होता है जिसकी कोई भौतिक व्याख्या नहीं हो सकती।’

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए मैनेजर पांडेय ने कहा, ‘अध्यापकों के बहुत सारे दोष हैं। इनमें से एक दोष यह भी है कि उन्हें विषय पर कुछ कहना पड़ता है।’ यह कहते हुए कि ‘आलोचना लोक-लोचन है’ मैनेजर साहब ने संगोष्ठी की गंभीरता किंचित कम की। उन्होंने महज पंद्रह मिनट में आलोचना के सारे सरोकार एक-एक करके बताए। वे कैसे बदल गए हैं, वे कैसे बदल रहे हैं, उनकी स्थानीयता और उनका भूगोल... सब कुछ मैनेजर पांडेय ने अपनी चिरपरिचित आवाज में बयान किया। उन्होंने कहा, ‘रामचंद्र शुक्ल को बहुत लतियाया गया है। उन्होंने बहुत अपराध किया जो कुछ पढ़ा-लिखा। लेकिन फिर भी इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता कि जो उन्होंने सोचा उसे पूरे साहस के साथ कहा। खाली हाथ में लोटा-गिलास लेकर रस की खोज करने से आलोचना का काम नहीं चलता।’ उन्होंने भी असद जैदी से अपनी सहमति व्यक्त करते हुए कहा, ‘आलोचना की भाषा पर ध्यान देना सचमुच बहुत जरूरी है। बही की भाषा में आलोचना नहीं लिखी जाती। भाषा सोच की शैली को प्रतिबिंबित करती है।’ आलोचना-भाषा के संदर्भ में अपनी बात आगे बढ़ाते हुए मैनेजर साहब ने आखिर में एक बहुत ही हल्की बात कर दी। उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि विनोद तिवारी रामविलास शर्मा से ज्यादा अच्छी अंग्रेजी जानता है, लेकिन फिर भी इसने अपने पांच पेज के पर्चे में पच्चीस अंग्रेजी शब्द इस्तेमाल किए जबकि रामविलास शर्मा ने 500 पेज की किताब लिखते हुए भी पांच से ज्यादा अंग्रेजी शब्द कभी इस्तेमाल नहीं किए।’

अंत में अनुराग अवस्थी ने धन्यवाद ज्ञापन किया, फिर पता नहीं क्या हुआ...।  



[तस्वीर : हिंदी साहित्य के ऑफिसियल फोटोग्राफर भरत तिवारी के कमरे से सॉरी कैमरे से...]         

Saturday, March 1, 2014

युवा हस्ताक्षर, पहली उड़ान और इसके बाद

...यह रिपोर्टिंग मैंने आज ही की तारीख में गत वर्ष की थी। इसमें इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि यह किसी दैनिक अखबार या किसी पत्रिका में प्रकाशित हो सके। इसके लिए इसकी सही जगह थी इंटरनेट, जहां यह प्रकाशित होने के बाद प्रशंसित और विवादित हुई। यह 'जानकीपुल' पर आई और तमाम प्रतिपक्षों और स्पष्टीकरणों के बावजूद अपनी हत्या से पहले एक सप्ताह तक सबसे पॉपुलर पोस्ट बनी रही। हिंदी साहित्य के शीर्ष आलोचक नामवर सिंह के एक पत्र की वजह से इसके 'जानकीपुल' से हट जाने के बाद मैंने इसे अपने फेसबुक नोट के रूप में बचा लिया। आज इसकी बरसी पर इसे उस स्पष्टीकरण के साथ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं, ताकि सनद रहे…। हालांकि तब से अब तक काफी साहित्य-जल बह चुका है। इस बहाव ने इस रिपोर्टिंग को कम से कम मेरे लिए और ज्यादा जरूरी बना दिया है। यह बहाव न भी होता तब भी व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए इस रिपोर्टिंग का बड़ा महत्व है। मैं 'प्रिकॉसिटी' की कद्र करता हूं और वह इस रिपोर्टिंग में है। मैंने साहित्य में साहित्येतर दबावों और दुरभिसंधियों को इसके बाद बहुत गहराई से समझा और अनुभव किया। मैंने ऐसी लातें देखीं जो मेरे पेट पर लगने वाली थीं, मैंने उन्हें मरोड़ दिया और उनके व्यक्तित्व के लूलेपन पर हंसा। मुझे समझ में आ गया कि हिंदी साहित्य के वर्तमान पर अब गंभीर और सृमद्ध भाषा में बेफिक्र होकर हंसे जाने की जरूरत है। मुझे लगा कि मेरे पास केवल एक और एकमात्र यही विकल्प है कि मैं इनके विमर्श, इनके मुहावरों और इनकी भाषा को नकार दूं। दिल दुखाना हमेशा दुखी करता है, मैं यह काम क्यों करूंगा, जबकि मेरे पास खुद एक टूटा हुआ दिल है। लेकिन आपके शब्द आपकी पवित्रता, सच्चाई और ईमानदारी को जाहिर कर देते हैं। भाषाई कहन ने झूठों को कभी पर्याप्त अवसर नहीं दिए। उनके कुकृत्य उनकी कहन से पहले ही उनके चेहरों पर नुमायां हो गए। मैं आक्रोश को अवसाद में बदलने का हुनर जानता हूं, लेकिन मैंने ऐसा कभी किया नहीं , ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि हरदम मुझे पता था कि मैं अकेला नहीं हूं, मैं वह कह रहा हूं, जो कई लोग कहना चाहते हैं, लेकिन चाहकर भी कह नहीं पाते।   

[ अ. मि.]

'ट्रिगर' दबाना बहुत आसान है, लेकिन जरूरी नहीं कि हर बार सामने वाला मरेगा या घायल ही होगा और तब तो और भी नहीं जब आपके हाथ भी कांपते हों। 'जानकीपुल' पर गए शनिवार (2 मार्च 2013) आई मेरी रिपोर्टिंग अब वहां मौजूद नहीं है। कई दबावों और दुरभिसंधियों के बीच वह वहां से हटा दी गई। फिलहाल अब यह मेरे फेसबुक नोट के रूप में सुरक्षित है और जो इसे अब तक नहीं पढ़ पाए हैं, वे अब इसे वहां पढ़ सकते हैं। और अंत में इनसे डरने की कोई जरूरत नहीं है क्यूंकि वे ताकतवर जरूर हैं, लेकिन इस बात से अब भी डरते हैं कि सारे कमजोर लोग एक दिन उनसे डरना छोड़ देंगे।



समय : 1 मार्च 2013, शुक्रवार की शाम।
स्थान : नई दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटाट सेंटर के बेसमेंट में अमलतास ऑडीटोरियम
विषय : युवा लेखिका ज्योति कुमारी के वाणी प्रकाशन से प्रकाशित कहानी संग्रह ‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ का ‘पुन: विमोचन’ और इस बहाने ‘युवा हस्ताक्षर : पहली उड़ान’ पर परिचर्चा (परीचर्चा नहीं)।
संचालन : मज्कूर आलम
वक्ता : विभास वर्मा, रमणिका गुप्ता, संजीव कुमार, जयंती रंगनाथन।
अध्यक्ष द्वय : राजेंद्र यादव और नामवर सिंह।

दृश्य : मज्कूर आलम के अनाड़ी संचालन ने जब इस कार्यक्रम के सब वक्ताओं और अध्यक्षों को मंच पर अवतरित कर दिया, तब राजेंद्र जी ने संचालक महोदय से कहा, 'लेखिका कहां है??'
इसके बाद जब ज्योति कुमारी, विभास वर्मा के बगल में जाकर बैठ गईं तब विभास वर्मा उठकर माइक पर आए और कहा कि हिंदी साहित्य में इस तरह युवा लेखन को तवज्जो पहले कभी नहीं मिली। उन्होंने कहा कि आज युवा लेखन में कहानी विधा का दखल बहुत ज्यादा है। जहां एक तरफ तमाम नए लेखक उभरकर आ रहे हैं, वहीँ महानगरीय जरूरतों के हिसाब से खुद को नहीं ढाल पाने वाले कई युवा पीछे भी छूट रहे हैं।

रमणिका गुप्ता ने कहा कि उन्होंने एक कहानी छोड़कर ज्योति की सारी कहानियां पढ़ी हैं। हालांकि कहानियों के शीर्षक उन्हें ठीक से याद नहीं आ रहे थे, लेकिन किताब उन्होंने ठीक से और पूरी पढ़ी है (एक कहानी छोड़कर) यह जताने के लिए उन्होंने प्रकाशक अरुण महेश्वरी का ध्यान इस ओर दिलाया कि इस किताब में ‘कहां’ की जगह कई जगह ‘कहा’ छप गया है। कुछ अंतर्कथाओं और विवादों के चलते महज तीन दिनों के अंदर छापी गई इस किताब में मौजूद गलतियों के लिए न प्रकाशक दोषी है और न ही लेखिका, सारा दोष उस बेचारे प्रूफरीडर का है, जो पता नहीं इस मौके पर मौजूद था या नहीं। बहरहाल ‘एनी हाऊ’ और ‘डिफर’ जैसे शब्दों का बार-बार प्रयोग करते और मंचासीन लोगों की तरफ बार-बार देखते हुए रमणिका जी ने क्रमवार ढंग से ज्योति की कहानियों में क्या है, यह समझाया और इसके बाद वे इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के लिए पलायन कर गईं, जहां अमेरिका से आ रहे अपने बेटे को उन्हें रिसीव करना था।

इसके बाद नामवर जी संचालक पर थोड़ा-सा लाउड हुए और इसके बाद शेष वक्ताओं के बोलने के लिए 10-10 मिनट निर्धारित हुए और इसके बाद ‘आज भरी महफिल में कोई बदनाम होगा...’ के इरादे से अपने हिस्से की बात शुरू करते हुए युवा आलोचक संजीव कुमार ने कहा कि बहुत तरक्कीपसंद महफिलों में मैं रूपवादी हो जाने की तलब रखता हूं। बेहद गर्मजोशी और शानदार ढंग से अपनी बात रखते हुए संजीव ने आगे कहा कि साहित्य कोई डेटा नहीं है, हमें साहित्य और गजेटियर में फर्क करना आना चाहिए। उन्होंने नामवर सिंह और राजेंद्र यादव दोनों को निशाने पर लेते हुए कहा कि इन दोनों को अपनी-अपनी भूमिका में ज्योति की कहानियों की बड़ी कमियों की बात न करने के लिए कभी माफ नहीं किया जाएगा। यह कहने के बाद उन्होंने न्यू क्रिटिसिज्म के ट्रिक्स एंड टूल्स अपनाते और आजमाते हुए एक ‘डिटेक्टिव रीडर’ की तरह ज्योति की कहानियों की बड़ी कमियों को सार्वजनिक कर दिया। इन कहानियों के अंतर्पाठ में उतरते हुए उन्होंने कहा कि इनमें कोई 'कोहरेंट मैसेज' नहीं है और न ही ये अपने परिवेश, वार्तालाप और अंत से अपने पाठक को  कन्विंस कर पाती हैं। अंत में संजीव ने कहा कि उन्होंने उस डॉन को पकड़ लिया, जिसे पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है, यह अलग बात है कि डॉन जेल तोड़कर भाग भी सकता है।

परिचर्चा (परीचर्चा नहीं) में आई यह गर्मजोशी कुछ और बढ़ पाती इससे पहले ही जयंती रंगनाथन ने बिलकुल...बिलकुल...बिलकुल...बिलकुल... कह-कहकर महफिल ‘बिलकुल’ खराब कर दी। इसमें उनकी कोई गलती नहीं क्योंकि बकौल उनके ही जैसे हम हर ‘शरीफ लड़की’ से यह उम्मीद नहीं करते कि वह कंप्रोमाइज करेगी ही, वैसे ही हम हर वक्ता से यह उम्मीद नहीं करते कि वह संजीव कुमार की तरह ही बोलेगा।

मंचासीन ‘सरों’ और मैडमों और सीनियरों का शुक्रिया अदा करने और संजीव कुमार का नाम छोड़ने के बाद ज्योति कुमारी ने अपने आत्मवक्तव्य में कहा कि उन्हें कहानियां लिखना नहीं आता है, लेकिन उनके पास कहानियां हैं और वे कहानियों को जीती हैं, साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वे कहानी कला के सिद्धांत नहीं जानतीं। हिंदी में प्रकाशिकाएं न होने की बात उठाते हुए उन्होंने कहा कि हालांकि अब सारे विवाद शांत हो गए हैं, लेकिन इस किताब के प्रकाशन के चलते वे काफी परेशान हो गई थीं। अपनी रचना-प्रक्रिया, कहानियों और संघर्षों पर देर तक बोलने के बाद जब वे अपनी सीट की तरफ लौट रही थीं, तब राजेंद्र जी ने उनसे कहा कि वे अच्छा लेकिन कुछ ज्यादा ही बोल गईं।

इसके बाद 20 दिन पहले विश्व पुस्तक मेले में हो चुका ‘पुस्तक विमोचन’ एक दफे यहां और हुआ। अब बारी राजेंद्र जी की थी, उन्होंने माइक संभालते और हरिशंकर परसाई की एक कहानी का संदर्भ देते हुए, उसे नामवर सिंह से जोड़ दिया। ‘बड़े घर के बेटे हैं, जब से हुए लेटे हैं' वाले मजाहिया लहजे में उन्होंने ज्योति को बड़े घर की बेटी बताते हुए कहा कि वह ‘छोटी सी बात’ का भी ‘मलीदा’ बना देती है। उन्होंने यह भी कहा कि उनका आशीर्वाद सदा ज्योति के साथ है और वह आगे इससे बेहतर कहानियां लिखेगी।

‘मैं इसलिए खड़े होकर बोल रहा हूं ताकि जान सकूं कि अब भी खड़े होकर बोल सकता हूं या नहीं’ यह कहा भारतीय आलोचना के शिखर पुरुष नामवर सिंह ने। नामवर जी ने भी मजाहिया लहजा अपनाते हुए ज्योति को ‘शरीफ’ नहीं ‘हरीफ’ लड़की बताया। ‘उगते हुए पौधे को नापते नहीं बाढ़ रुक जाती है’ यह कहते हुए नामवर जी ने एक बड़ा खुलासा किया। उन्होंने कहा कि वे वाचिक परंपरा के आलोचक हैं और उन्होंने ‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ की कोई भूमिका नहीं लिखी है, लेखिका ने पांडुलिपि पर बोली गई उनकी बातों को दर्ज कर लिया था, इन बातों को ही भूमिका के रूप में छापा गया है। यह बताते हुए कि ‘शरीफ लड़की’ की जगह इस किताब का शीर्षक ‘दस्तखत’ रखने की सलाह उन्होंने ही ज्योति को दी थी और इस वजह से ही यह किताब आनी कहीं से थी और आ कहीं से गई। इन कहानियों की भाषा पर नामवर जी ने कहा कि इनमें उर्दू शब्दों की बहुतायत है,  और इस वजह इन कहानियों ने 'हिंदुस्तानी' प्रभाव ग्रहण कर लिया है। उन्होंने आगे कहा कि उन्हें ज्योति की कहानियां उसके संघर्षों को जानने के बाद बड़ी लगती हैं, ज्योति शादीशुदा है और परित्यक्ता भी, यह कहकर मैं किसी के मन में कोई करुणा उपजाना नहीं चाहता, लेकिन ज्योति की ये कहानियां इस अर्थ में वाकई बेजोड़ हैं। अंत में उन्होंने इस पूरी गोष्ठी को समीक्षात्मक कहने के बजाए 'प्रोत्साहन गोष्ठी' कहने पर जोर दिया।

फेडआउट : मज्कूर आलम ने कहा कि अब धर्मेंद्र सुशांत आकर सबका आभार प्रकट करने की परंपरा अदा करें, क्योंकि हम परंपरा को आगे ले जाने में यकीन रखते हैं। बाहर पूरे परिवार सहित पधारे एक आदमी ने मज्कूर आलम से कहा, 'ऐसे प्रोग्राम हुआ करें तो बता दिया करिए महराज...।'




Thursday, February 13, 2014

वैलेंटाइन-डे की पूर्व संध्या पर...


प्रख्यात नारीवादी लेखिका जर्मेन ग्रीयर ने अपनी प्रख्यात पुस्तक The Female Eunch में प्रेम संबंधी अध्याय लिखते हुए इसे आदर्श, परोपकारिता, अहंमन्यता, सम्मोह, रोमांस, पुरुष फंतासी, मध्यवर्गीय मिथक, परिवार और सुरक्षा के नजरिए से देखा है। जर्मेन के तर्क प्रेम से जुड़ी परंपरागतगत मान्यताओं की धज्जियां उड़ा देते हैं। 'रोमांस स्टिल लिव्ज' यह आवाज उठे भी कई दशक गुजर गए और इस दरमियान समय-समाज में कई नई स्वतंत्रताएं चली आईं। ये बातें आज 'वैलेंटाइन-डे की पूर्व संध्या पर' सहज ही याद हो आईं और आज से एक वर्ष पहले पढ़ी युवा पत्रकार  विनायक राजहंस की यहां प्रस्तुत यह व्यंग्य-रचना भी। इसे आप भी पढ़िए और 'रोमांसित' होइए, वैलेंटाइन-डे की शुभकामनाओं सहित… 




यह आकाशवाणी प्रेम नगर है। पेश है देश के राष्ट्रपति का वैलेंटाइन-डे की पूर्व संध्या पर देशवासियों के नाम प्रेम संदेश!

मेरे प्यारे भाइयों-बहनों, प्रेम के पुजारियों! वैलेंटाइन के पावन पर्व की इस संध्या पर मैं आप सभी को इस प्रेमोत्सव की बधाई देता हूं। प्रेम प्रदर्शित करने का यह पर्व यूं तो हमारे देश में पश्चिम से आयातित है, लेकिन चूंकि हमने पश्चिम की तमाम संस्कृतियों को सहर्ष गले लगाया है तो इस 'महासंस्कृति’ को भी शिरोधार्य करते हैं। आगत का स्वागत तो हमारी संस्कृति ही रही है। जो आया, हमने अपना लिया। वैसे भी हमने अपनाया ज्यादा है, खुद कम अपनाए गए हैं। जब-जब ऐसा हुआ है, इतिहास वहीं खड़ा रहा है।

जहां तक प्रेम की बात है तो यह तत्व हमारे यहां कण-कण में है। अणु-अणु में प्रेम केंद्रित है। तन में है, मन में है, धन में तो खैर है ही। हमारे देश में समय-समय पर प्रेमी पैदा होते रहे हैं। मिलते रहे हैं, बिछुड़ते रहे हैं। त्रेता युग के श्रीराम, द्बापर के गिरधारी से लेकर कलयुग के आईजी पांडा और मटुकनाथ तक प्यार का अनवरत सिलसिला जारी है और अनंत काल तक जारी रहेगा।

यह रीतिकाल की उन नायिकाओं का देश है, जो प्रेम में इतनी पगी हुई रहती थीं कि प्रेमी के विरह में उनका शरीर फायर बन जाता। उनकी देह से दिया छुआने पर बाती जल उठती थी। यह वही देश है, जहां के सोहनी-महिवाल ने कच्चे घड़े से नदिया पार की। आज ऐसे ही प्रेमियों की जरूरत है हमारे देश को। घरों में संझा बाती के लिए महिलाओं को माचिस ढूंढ़ने की जरूरत तो नहीं पड़ेगी! कहीं भी होंगी, आग लग जाएगी! वहीं अस्तित्व के संकट को लेकर रो रहे घड़े के दिन भी बहुर जाएंगे। शीरी-फरहाद हमारे देश के नहीं हैं, लेकिन यहां भी उनके अवतार की कमी नहीं है। इन्होंने आंसू तो खूब बहाए, जब सूख गए तो दूध की नदियां बहा दीं। आज ऐसे ही फरहाद ही जरूरत है, ताकि देश में दूध की कमी न हो। और भी तमाम प्रेमी हुए हैं, जो आज के दौर के लिए प्रासंगिक हैं। भारत देश की इस धरती में लविंग सल्फेट नामक खाद प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है, तभी तो वीर, प्रतापी, महाबली प्रेमी हमारे हिस्से आए हैं।

एक बार मैं एक स्कूल में गया। वहां दसवीं कक्षा के एक स्टूडेंट टाइप बच्चे से पूछा, 'बेटा गणतंत्र दिवस कब मनाया जाता है? उसके चेहरे पर प्लस-माइनस के संचारी भाव एक साथ प्रकट हुए, फिर जीरो-सा मुंह लेकर बोला- सर! वैलेंटाइन-डे के पहले। और वैलेंटाइन-डे कब आता है? उसने तपाक से उत्तर दिया- 14 फरवरी को।' मुझे उस बच्चे की प्रखर बुद्धि पर हैरत हुई। तसल्ली भी कि चलो काम की बातें तो उसे पता हैं। मैं आश्वस्त हो गया कि बहुत तरक्की करेगा हमारा देश।

इस समय वासंती बयार के साथ-साथ चुनाव की बयार भी चल रही है। मौसम भी होलियाना है। ऐसे माहौल में हमारे राजनेताओं का प्रेम बॉयलिंग प्वाइंट पर पहुंच जाता है। जनता से उनका प्रेम देखते ही बनता है। कभी वे मतदाता को गले लगाते हैं, कभी उनको अपना जाने कब का याराना याद दिलाते हैं। कभी श्मशान तक पहुंच जाते हैं। कहते हैं, हमें आपसे प्रेम है। आपका प्रेम ही हमें यहां तक खींच लाया है। आप अपना प्रेम बनाए रखिए मतदान तक, उसके बाद हमारा प्रेम देखिए। और वास्तव में चुनाव जीतने के बाद उनका धन-प्रेम हमें खूब दिखता है। वह अपनी फितरत से मजबूर हो जाते हैं।

मनुष्य की और भी तमाम फितरतें होती हैं। मसलन मनुष्य विवाहशील प्राणी होता है। अपनी इस प्रवृत्ति के चलते वह कई बार दुर्घटनाग्रस्त होता है, लेकिन फिर मोर्चे पर डट जाता है। जान-माल का जोखिम इसमें बहुत है। इसलिए इस प्रवृत्ति से बचें। ऐसा कुछ भी न करें, जिससे बात इस भयानक स्थिति तक पहुंच जाए।
जिनका पहला-पहला वैलेंटाइन है, वे अत्यधिक सावधानी बरतें अन्यथा वह आखिरी हो सकता है। जो पहले की तलाश में हैं, वे फर्स्ट-एड बॉक्स लेकर निकलें। क्या पता कब जरूरत पड़ जाए।
आखिर में मैं यही कहना चाहूंगा कि प्रेम मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। इस अधिकार का प्रयोग प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। सो खूब प्यार करें, इजहार करें। लेकिन खयाल रखें, यह जो प्रेम का बहाव है, इसमें जानकारी ही बचाव है। इसलिए निगहबान रहें, सावधान रहें, लैश रहें!
मोहब्बत जिंदाबाद!