रवि जोशी युवा पत्रकार हैं। मुंबइया सिनेमा पर 'दि संडे पोस्ट' में हर हफ्ते लिखते रहे हैं। कुछ अखबारों में काम करने के बाद गए एक वर्ष से उत्तराखंड से संबंधित एक वेब साइट के निर्माण में प्रमुख सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं। फिलहाल इस सबसे और दिल्ली से ऊबकर पहाड़ पर चले गए हैं। यह बेहतर है कि यह जाना संन्यास या वैराग्य या ध्यान या आत्म-स्थित होने के लिए नहीं है। यह जन और जीवन को बेहतर ढंग से समझने और इस ओर एकाग्र होने के लिए है। प्रस्तुत डायरी अंशों में ऐसी आहटों के साथ-साथ एक युवा-मन भी है और पीछे रह गईं स्थानीयताओं से मोह-भंग सी स्थिति भी। फिर भी यह स्मृति को प्राप्त हो गए मन का रोजनामचा है जो यह प्रकट करता है कि आगे जीवन है...
...आज रात 10 बजे गाजियाबाद के एक बड़े मॉल से फिल्म देखकर निकला। एक अजीब सी उलझन होने लगी। लगा कुछ छूट रहा है। बहुत तेजी से वापस हो जाने को दिल करने लगा, शायद पिछले दो महीनों में उस छोटे से गांव के अंधेरे की आदत हो गई है मुझे, इसलिए सिनेमाघर के अंधेरे से निकलकर बहुत तेज चमकती हुई स्ट्रीट लाइट ने अन्कफर्टेबल कर दिया। इस बार दिल्ली से अपना सब कुछ लेकर जाने के लिए यहां आया हूं, अब मेरे लिए दिल्ली या तो एक रास्ता बन जाएगी या बाजार, शायद यहीं इस शहर की फितरत है। यह शहर या तो किसी के लिए बाजार है या फिर रास्ता। आदमी यहां सिर्फ मतलब से आता है, यहां सिर्फ मतलब से रहता है और मतलब से ही जीता है। यहां कोई कुछ भी बेमतलब करने की हिमाकत नहीं करता। मैं समझदार नहीं हूं फिर भी इस शहर को अपनी आंखों से देखने की जरूरत की है। इसके उलट वह गांव और वहां की बेमतलब(?) जिंदगी मुझे अपनी तरफ ज्यादा खींचती है। आज ही एहसास हुआ कि दिल्ली की चमक-धमक और तमाम रौनक के बाद भी यह शहर मुझसे वह रिश्ता नहीं बना पाया जो छोटे से पंत गांव ने कुछ ही दिनों में बना लिया। अंधेरा भी कितना खूबसूरत हो सकता है, यह भी आज ही पता चला। इस शहर में तो वैसा अंधेरा देखने के लिए आप तरस जाएंगे, ऐसा अंधेरा कि आप अपनी हथेली को भी न देख पाएं। शायद कई लोग मेरी इस बात से इत्तफाक न रखें, तो मैं कहूंगा कि ये लोग शायद लोगों के दिलों को देखने का हुनर जानते हैं। यहां वैसा अंधेरा लोगों के दिलों में है, और उनके चेहरों पर यह बात इबारत की तरह गुदी हुई दिखाई पड़ती है। भागते हुए लोग परेशान है, मेट्रो पहले की तरह ही बोझा उतारती और चढ़ाती अपने विश्राम स्थल में पहुंच जाती है। रात होती है लेकिन अंधेरा नहीं होता, दिन होता है चमकदार रोशनी भी होती है, लेकिन यहां एक दिन में दिखने वाले हजारों हजार चेहरों में से किसी एक में भी वह चमक नहीं दिखती, चेहरे की मुस्कुराहट आज मोडिफाइड स्माइल बन गई है। माफ कीजिएगा मैं यह सलाह देने की हिमाकत कर रहा हूं कि एक बार गांव जरूर देखिए, गंवार लोगों में और समझदार लोगों से दूर बसी उस पिछड़ी दुनिया में अब भी सच्चाई और सुकून यहां की तुलना में बहुत ज्यादा है।
मेरा दिल अब यहां नहीं लग रहा, क्षमा...
इस शहर में यह मेरी आखिरी रात है, कल इस समय मैं इसकी सरहद को पार कर दूसरे प्रदेश में प्रवेश कर जाऊंगा।
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दिन की शुरूआत कपड़े धोने से हुई। दो दिन डायरी लिख नहीं पाया। पहले दिन सफर में था और दूसरे दिन थकान ज्यादा थी शायद। दिल्ली से लौटकर इस गांव में बहुत अच्छा लग रहा है। जिस दिन लौटा उस दिन एक बैचलर के जीवन में खिचड़ी और अंडों का महत्व समझ आया। दिन में फटाफट खिचड़ी बनाई और रात को आमलेट और रोटी। आलसियों और थके-हारे कुंवारों के लिए ये देसी चीजें कहीं न कहीं पौष्टिकता के आधार पर मैगी को टक्कर देती हैं। मैगी हिट है क्योंकि खिचड़ी और आमलेट-रोटी का प्रचार-प्रसार नहीं हुआ है और इसके दो मिनट में बन जाने के दावे को किसी टी.वी. चैनल में नहीं दिखाया गया।
आज दिमाग में थोड़ी से खींचतान थी। कल से सुबह जल्दी उठने का प्रयत्न करुंगा और सुबह टहलने जाउंगा। उम्मीद है कि इतना कर सकूंगा।
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बिच्छू घांस ने आज पहली बार छुआ और जहां-जहां छुआ तेज सुरसुरी हुई और इस अनुभव को झेल चुके कहते हैं कि यह करंट लगने जैसा एहसास 24 घंटों तक रहेगा। आज पहली बार ही मैंने दही जमाने की कोशिश भी की है, नतीजा कल पता चलेगा। मैं एक्साइटेड हूं। आज ऐसी तरोई की सब्जी खाई जिसे सिर्फ वही खा सकता था जिसने उसे बनाया हो। बेशक अगर 'शोले' में गब्बर की मां होती तो वह भी अपने बेटे को उतना ही प्यार करती जितना राखी ने 'करन-अर्जुन' को किया। बस यही सोच मैंने अपनी बनाई हुई तरोई की सब्जी खा ली।
और कुछ नहीं बस कई तरह की तकलीफों के साथ सोने का समय हो गया है।
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एक दिन में 180 किलोमीटर गाड़ी चलाना, लोगों से मिलना और समझना-समझाना। अब तो न खाना बनाने की हिम्मत रह गई है और न खाना खाने की...
दिन शुरू भी जूली (मेरी मोटर साइकिल) के साथ हुआ था और खत्म भी उसी के साथ हुआ। पहली बार जूली को अल्मोड़ा की सड़कों में घुमाकर लाया। वह खुश है, लेकिन मैं थक गया हूं...
बाकी सब वैसा ही चल रहा है। एक अच्छी बात यह हुई कि हल्की सी डांट पड़ी और ऐसी उम्मीद जगी कि उत्तराखंड फाइटर्स का काम फिर से शुरू होगा। मेरा थोड़ा काम बेशक बढ़ेगा लेकिन मैं उसको लेकर अभी से उत्साहित हूं। पूरा एक साल मैंने उस वेबसाइट पर पूरी जान लगाकर काम किया है।
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याद है वह खिड़की
अब उसे बंद रखने का समय भी आ गया है।
यहां सुबह और शाम ठंडी हवाओं के चलने का सिलसिला शुरू हो गया है।
लोग बताते हैं यहां ठंड बहुत होती है, अलाव भी जलाना पड़ता है।
रजाई में बैठे रह जाना पड़ता है।
कुछ करो या न करो पर ठिठुरना पड़ता है।
मोटे कपड़ों में खुद को छुपाना पड़ता है।
बहरहाल मैं अब खुश हूं...
इन सर्दियों में पहली बार आसमान में रूई की तरह गिरती हुई बरफ देखूंगा
और उस दिन हाथ में गरम कॉफी के साथ खिड़की को फिर से खोलूंगा...
मेरी खिड़की भी बहुत दिनों बाद शायद खुश होगी...
तुम्हारे बिना भी।
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मैं हिंदी ही लिखता हूं, अंग्रेजी लिखने और पढ़ने के लिए भी हिंदी में ही सोचता हूं, किसी को आदर देना होता है तो हिंदी में बात करता हूं, किसी पर प्यार आता है तो हिंदी में ही प्यार जताता हूं... बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन हिंदी से ही शुरू होता हूं और हिंदी पर ही खत्म होता हूं...
प्यार, गुस्सा, नफरत और ज्ञान सभी की भाषा हिंदी ही है...
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पहाड़, अंधेरा, बाइक राइडिंग, ठंडी हवा और जंगली जानवरों का डर... एक साथ इतना बेहतरीन होगा आज महसूस किया, पहली बार यहां रात 10 बजे बाइक चलाई...
यहां खरगोश बहुत दूर तक आपकी गाड़ी के आगे रौशनी के साथ भागते हैं-- ऐसा लगता है वे आपको घर तक साथ छोड़ने के मूड में हैं... यहां आकर जाना है प्रकृति को जितनी पास से देखेंगे उतनी ही दुनिया अपनी दिखेगी... यहां तो पेड़-पौधे और जानवर सब मुझसे बात करते हैं...
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आज अंधेरे में घूमने का मन हुआ। लाइट आ रही थी, जा रही थी... मैं भी निकल पड़ा। यहां के लोग अंधेरे में सड़क पर जाने के लिए मना करते हैं। क्योंकि यहां जंगली जानवरों का खतरा ज्यादा होता है, लेकिन फिर भी आज मैं इस चंचल मन को नहीं रोक पाया। अंधेरे से खचाखच भरी सड़क पर चलना ऐसा लगता है जैसे मैं मुंह के बल किसी अंधेरी नदी में डूबता जा रहा हूं। अंधेरे की इस नदी में डूबना मुझे बहुत अच्छा लगता है।
अब नींद आ गई, मैं सो रहा हूं।