Saturday, April 5, 2014

सारा सुर ही दूसरा लग गया...

16वें लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी की लहर हो या न हो, लेकिन हिंदी के प्रगतिशील व्यक्तित्वों में इससे बावस्ता खौफ बहुत है। यह कुछ जाहिर हुआ कल नई दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में आयोजित देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह के मौके पर। जैसे सारे समारोह शुरू होते हैं वैसे ही यह समारोह भी जलपान और दर्शन-प्रदर्शन के साथ-साथ मंच पर से आती संचालकीय वाणी से शुरू हुआ। संचालिका अल्पना मिश्र ने अपनी मधुर आवाज में जरूरी औपचारिकताओं की अदायगी करते हुए 18वें देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार से सम्मानित विनोद तिवारी को प्रखर आलोचक बताते हुए कहा कि वह युवा रचनाशीलता को रेखांकित भी करते हैं। यह बात संचालिका को इसलिए भी याद आई क्योंकि ‘पक्षधर’ में एक बार विनोद तिवारी ने उन्हें छापा था।

राजेंद्र यादव की स्मृति में एक मिनट के मौन के बाद अर्चना वर्मा ने— इस बार के निर्णायक अजित कुमार, नित्यानंद तिवारी, अशोक वाजपेयी और वह स्वयं थीं यह जानकारी देते हुए— प्रशस्ति-वाचन किया। इस दरमियान विनोद तिवारी का मुखमंडल वैसा ही था जैसा ऐसे अवसरों पर प्रशस्ति-पत्र के नायक-नायिकाओं का एक अनिवार्य विकल्पहीनता में हो जाया करता है। इसके बाद उन्हें स्मृति-चिन्ह और अन्य वस्तुएं प्रदान की गईं जिन्हें देते हुए इस समारोह के अध्यक्ष मैनेजर पांडेय ने विनोद तिवारी से कहा, ‘अपनी ओर ज्यादा रखो वर्ना लोग समझेंगे सम्मान मुझे मिल रहा है।’

विनोद तिवारी ने ‘आलोचना : एक सजग आलोचनात्मक कार्रवाई’ शीर्षक आत्म-वक्तव्य में कहा, ‘आलोचना एक रचनात्मक क्रिया है।’ इसके लिए उन्होंने शिवदान सिंह चौहान को उद्धृत किया। ‘नथिंग इज फाइनल’ यह बताते हुए उन्होंने लेनिन को उद्धृत किया। कुछ सुनी-सुनी और सूनी-सूनी बातों के बीच उन्होंने मुक्तिबोध को भी उद्धृत किया। युवा आलोचना ने साहित्य से अपने रिश्ते को गंभीर बनाया है यह सिद्ध करने के लिए उन्होंने विजयदेव नारायण साही को उद्धृत किया। मनचाही स्वायत्तता के संदर्भ में उन्होंने राजशेखर को उद्धृत किया। उन्होंने अपने ज्ञान से आतंकित करने की बहुत कोशिश की, लेकिन कर नहीं पाए क्योंकि उन्होंने स्पेंसर, एडोर्नो, हेबरमास, अल्थ्युसे, इगल्टन, जेमेसन, फूको, देरिदा, सोंटैग, बाख्तिन, बोद्रिला वगैरह को उद्धृत नहीं किया। ‘आलोचना के पक्ष में बोलना खुद को संदेहास्पद करना होता है’ एक अज्ञात कवि के इस ज्ञात वाक्य को उद्धृत करते हुए उन्होंने इकबाल का ‘परवाज में कोताही’ वाला शे’र उद्धृत किया और अपना पर्चा अधूरा छोड़ अपने स्थान पर लौट गए।

बाद इसके शाश्वती बिटिया ने अपने नाना (देवीशंकर अवस्थी) के लिखे एक लेख का अंश पढ़ा।

अब महफिल सुनने लायक हो चली थी, कवि असद जैदी माइक पर थे। उन्होंने कहा कि वह न पहुंचने के लिए बदनाम हैं, लेकिन आज उन्हें आना पड़ा और आते हुए उन्हें जिगर मुरादाबादी का यह शे’र बहुत याद आ रहा था कि ‘करना है आज हजरत-ए-नासेह का सामना/ मिल जाए दो घड़ी को तुम्हारी नजर मुझे।’ यहां आकर जब उन्होंने डॉक साब (मैनेजर पांडेय) को देखा तो उन्हें इस शे’र के याद आने की वजह समझ में आ गई। उन्होंने कहा, ‘आज ‘आलोचना के सरोकार’ विषय पर यह संगोष्ठी एक ऐसे समय में हो रही है जब एक फासिस्ट की ताजपोशी बस कुछ ही दिन दूर है। यह एक गंभीर क्षण है और यह अचानक उपस्थित नहीं हो गया है। इसकी तैयारी बहुत दिन से हो रही थी। आधुनिक भारत के इतिहास का यह एक स्थगित क्षण है जो अब हमारे सामने आ गया है। यह बात इस मौके पर प्रासंगिक नहीं है, लेकिन कोई और बात मेरे दिमाग में नहीं आ रही है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘हिंदी आलोचकों से मैं बहुत बोर होता हूं। उनकी भाषा बहुत लद्धड़ है। वे इसे बहुत कामचलाऊ ढंग से इस्तेमाल करते हैं और बस घास काटते हुए चले जाते हैं। हिंदी एक अकेली जुबान है जहां आलोचना को एक समुदाय की तरह देखा जाता है।’ विश्वविद्यालयों में चलने वाली शोध-प्रतिशोध की कार्रवाइयों को निशाने पर लेते हुए उन्होंने कहा, ‘हिंदी में प्राध्यापक बनते ही आप आलोचक मान लिए जाते हैं। हिंदी का प्राध्यापक सिर्फ खुद के प्रति जवाबदेह है।’ इन प्राध्यापकीय अजाब से निकलने को उन्होंने भविष्य की हिंदी आलोचना का सबसे जरूरी काम बताया।      

‘बहसों को ही आगे बढ़ाऊं या कुछ और...’ यह कहते हुए प्रणय कृष्ण ने माइक संभाला और असद जैदी ने इजाजत चाही। असद जैदी की अनुपस्थिति और शेष उपस्थिति को संबोधित प्रणय कृष्ण ने कहा, ‘आलोचना के बगैर परिवर्तन नहीं होता।’ उन्होंने हिंदी में चल रही तमाम बहसों, विमर्शों और सांप्रदायिक राजनीति के उभार... आदि के अंधकार में अपनी बात रखते हुए कहा, ‘केवल दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र पर चल रही बहसों को छोड़ दें तो हिंदी में कोई साहित्यिक बहस नहीं है।’ प्रणय कृष्ण का वक्तव्य अपने कुल असर में बहुत विरोधाभासी और ‘नथिंग इज फाइनल’ वाले मूड का रहा। अंत में उन्होंने माफी मांगते हुए कहा, ‘आलोचना मौलिकता की भ्रांत धारणा का अतिक्रमण करती है।’

‘मैं कुछ सनसनीखेज बातें करूंगा’ ऐसे बाजारू वाक्य से अपना वक्तव्य शुरू करते हुए संजीव कुमार ने कहा, ‘हम इस संगोष्ठी के विषय के फ्रेम में उलझ गए हैं। ‘आलोचना और सरोकार’ में आलोचना और सरोकार दोनों के साथ ही कोई विशेषण नहीं है। यह बात वक्ता को आजादी देती है।’ इस आजादी का पूरा फायदा उठाते हुए संजीव ने पूर्व-वक्ता असद जैदी की बातों से सहमति व्यक्त की और कहा, ‘आलोचना एक शक्ति का खेल है जो तर्कों और मानदंडों के बल पर चलती है। इसमें ही सरोकारों का प्रश्न आता है।’ पिरामिडीय ऊंचाई, गिरने-गिराने का डर, स्पेस और सनसनी इत्यादि से गुजरते हुए संजीव इस नतीजे पर पहुंचे कि आलोचना का समस्याग्रस्त होना उसके तेज को छीन रहा है। कैथरीन बेल्सी को उद्धृत करते हुए उन्होंने फरमाया, ‘जब हम एक साहित्यिक कृति के प्रोडक्शन प्रोसेस को भुलाकर उसे सृजन का नाम देते हैं तो यह एक रहस्यावरण होता है जिसकी कोई भौतिक व्याख्या नहीं हो सकती।’

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए मैनेजर पांडेय ने कहा, ‘अध्यापकों के बहुत सारे दोष हैं। इनमें से एक दोष यह भी है कि उन्हें विषय पर कुछ कहना पड़ता है।’ यह कहते हुए कि ‘आलोचना लोक-लोचन है’ मैनेजर साहब ने संगोष्ठी की गंभीरता किंचित कम की। उन्होंने महज पंद्रह मिनट में आलोचना के सारे सरोकार एक-एक करके बताए। वे कैसे बदल गए हैं, वे कैसे बदल रहे हैं, उनकी स्थानीयता और उनका भूगोल... सब कुछ मैनेजर पांडेय ने अपनी चिरपरिचित आवाज में बयान किया। उन्होंने कहा, ‘रामचंद्र शुक्ल को बहुत लतियाया गया है। उन्होंने बहुत अपराध किया जो कुछ पढ़ा-लिखा। लेकिन फिर भी इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता कि जो उन्होंने सोचा उसे पूरे साहस के साथ कहा। खाली हाथ में लोटा-गिलास लेकर रस की खोज करने से आलोचना का काम नहीं चलता।’ उन्होंने भी असद जैदी से अपनी सहमति व्यक्त करते हुए कहा, ‘आलोचना की भाषा पर ध्यान देना सचमुच बहुत जरूरी है। बही की भाषा में आलोचना नहीं लिखी जाती। भाषा सोच की शैली को प्रतिबिंबित करती है।’ आलोचना-भाषा के संदर्भ में अपनी बात आगे बढ़ाते हुए मैनेजर साहब ने आखिर में एक बहुत ही हल्की बात कर दी। उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि विनोद तिवारी रामविलास शर्मा से ज्यादा अच्छी अंग्रेजी जानता है, लेकिन फिर भी इसने अपने पांच पेज के पर्चे में पच्चीस अंग्रेजी शब्द इस्तेमाल किए जबकि रामविलास शर्मा ने 500 पेज की किताब लिखते हुए भी पांच से ज्यादा अंग्रेजी शब्द कभी इस्तेमाल नहीं किए।’

अंत में अनुराग अवस्थी ने धन्यवाद ज्ञापन किया, फिर पता नहीं क्या हुआ...।  



[तस्वीर : हिंदी साहित्य के ऑफिसियल फोटोग्राफर भरत तिवारी के कमरे से सॉरी कैमरे से...]         

17 comments:

  1. अच्‍छी और जीवंत रिपोर्ट। कुछ भी अतिरिक्‍त नहीं। जो नहीं शामिल थे उन्‍हें इसे पढकर वहां होने का चाक्षुष अनुभव मिल सकेगा। अंत में अनुराग अवस्थी ने धन्यवाद ज्ञापन किया, फिर पता नहीं क्या हुआ...। वही सब हुआ जिसकी एक झलक इस चित्र में दर्ज है।

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  2. पसंद आया.....फ़ॉन्ट बेहतर हो सकता है. पढ़ने में कुछ ज़्यादा कष्ट उठाना पड़ा.

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  3. कार्यक्रम से रूबरू करा दिया आपने,शुक्रया

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  4. बहुत धारदार . अनकहे में बहुत कुछ छिपा है जो पढ़ते पढ़ते उजागर होता चलता है.

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  5. अंतिम पंक्ति बहुत मानीखेज है... फिर पता नहीं क्‍या हुआ...।

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  6. वाह अविनाश जी! रिपोर्ट बिना मिर्च मसाले के कार्यक्रम से मसाला लेकर मसालेदार हो गया है।सबकुछ यथावत जब है तो मैनेजर पाण्डेय साब के वक्तव्य के साथ कंजूसी क्यों बरती गई?

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  7. उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि विनोद तिवारी रामविलास शर्मा से ज्यादा अच्छी अंग्रेजी जानता है, लेकिन फिर भी इसने अपने पांच पेज के पर्चे में पच्चीस अंग्रेजी शब्द इस्तेमाल किए जबकि रामविलास शर्मा ने 500 पेज की किताब लिखते हुए भी पांच से ज्यादा अंग्रेजी शब्द कभी इस्तेमाल नहीं किए।’
    बस आयोजन की यही बात तो थी जो दुल्‍हे के विषय में कही गयी थी ।

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  8. आपकी रिपोर्ट कहाँ पहुंचती है, यह भी देखा जाना चाहिए...

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  9. अल्पना मिश्र ने अपनी मधुर आवाज में विनोद तिवारी को प्रखर आलोचक बताया तो इसलिए कि "उन्होंने एक बार उन्हे पक्षधर में छापा था.".... कहाँ जा रहे हो भई!

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  10. सारा सुर ही दूसरा लग गया...
    वक्तव्यों में साहित्य और आलोचना का चिंतन कम ही
    मुखर रहा … साहित्य और आलोचना से बांधे रखे या
    जोड़े रखे, जैसी कि अपेक्षा हो, वैसा अमूर्त ममत्व भी यहां
    कम ही फील हुआ…कुछ बेदिली से वक्तव्य… मंतव्य…

    अविनाश जी की रपट "नुक्ता चीं है, ग़मे दिल…" के सुर
    में सुर ही मिलाने को मन करे…

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  11. प्रिय अविनाश, "कुछ सुनी-सुनी और सूनी-सूनी बातों के बीच" मेरा वक्तव्य : http://pakshdharwarta.blogspot.in/2014/04/blog-post.html#links

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    1. http://pakshdharwarta.blogspot.in/2014/04/blog-post.html#links

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  12. यह रिपोर्ट उतनी ही रीयल है जितनी सलमान भाई का रियलिटी शो !

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  13. जो कुछ थोडा बहुत देखा सुना पढ़ा है अविनाश को उसमे इस क्षमतावान और समर्थ कलम को निहायत व्यक्तिवाचक होते देखना यानि लेखन के जायके में मसाला का तत्व ज्यादा होने सा लगता है , यह रेसिपी छिद्रान्वेषी समाज में बहुत पापुलर होनी ही है परन्तु सेहत के लिए अच्छा नही .....

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  14. अविनाश, मैं तुम्हारी और भी रिपोर्टें पढ़ चुका हूं. यह मुझे उनसे कमज़ोर लगी. इसलिए नहीं कि रिपोर्टिंग में कमी थी, बल्कि इसलिए कि जब बाहर की दुनिया में एक हंगामा बरपा है और लोग अपनी आलोचनाओं के लिए मारे जा रहे थे (प्रो. कल्बुर्गी का क़त्ल बविष्य में छिपा था, पर दाभोलकर और पानसरे तो जा ही चुके थे) तब इस क़िस्म के चूतियापे के कार्यक्रमों का होना हिन्दी की और हिन्दी दरिद्रता को ही उजागर करता है. इन सब से ये पूछा जाना चाहिये था -- माननीय असद ज़ैदी समेत) कि नये हिटलर की ताजपोशी में आपका क्या योगदान है. हिन्दी समाज अब incestuous सम्बन्धों (अगम्यागमन) का समाज बन गया है. इसीलिए ऐसे बेधार कार्यक्रम होने लगे हैं जिसका सबूत वो दांत चियारे लोगों का चित्र है जो तुमने लगाया है.

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