इस मंच पर विराजमान ये सभी लोग
खोए हुए
लोग हैं
इनके नाम
के बातस्वीर इश्तिहार भी
शायद निकले
हुए हों
जो मनुष्य
अभी अध्यक्षता कर रहा है
सबसे
ज्यादा खोया हुआ पुरुष है
उसका सब
कुछ उससे खो गया है
वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी की यह कविता मैं नामवर सिंह को जब जब मंच पर
देखता हूं, याद आती है। हालांकि शनिवार 6 जून 2015 की शाम साहित्य अकादेमी सभागार,
नई दिल्ली में नामवर अध्यक्ष नहीं, ‘विशिष्ट उपस्थिति’ थे। लेकिन उनका सब कुछ अब
उनसे खो गया है, इसकी सूचना वह अपनी प्रत्येक उपस्थिति में दर्ज करवा ही देते हैं।
इस बार प्रसंग था ‘आलोचना’ के दो अंकों (53-54) के प्रकाशन के उपलक्ष्य में ‘भारतीय
जनतंत्र का जायजा’ विषय पर केंद्रित परिचर्चा। वक्ताओं में गोपाल गुरु का भी नाम था,
लेकिन वह क्यों नामौजूद रहे इसकी कोई जानकारी इस कार्यक्रम के दरमियान नहीं दी गई।
आज से करीब दो माह पूर्व इसी सभागार में बीसवें देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह का
संचालन करते हुए अशोक वाजपेयी ने साहसिकता
को व्यर्थ बताते हुए कहा था कि आजकल कहीं बुलाए जाने पर न आने के कारण बहुत हो गए
हैं, ब्लड प्रेशर भी उनमें से एक है। अशोक वाजपेयी नाम का व्यक्तित्व जब बोलता है
या जब ‘कभी-कभार’ लिखता है तो लगता है बहुत जूस पीकर बोल रहा है या बहुत बादाम
खाकर लिख रहा है। उसके लिखे या बोले में उसके मौजूदा समय का कोई संकट और बेचैनी
नहीं होती, या ‘आलोचना’ के नए संपादक अपूर्वानंद के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं
कि ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ नहीं होता। वर्ना क्या वजह रही इस कार्यक्रम का संचालन
अशोक वाजपेयी ने नहीं लघुप्रेमकथाकार रवीश कुमार ने किया। इस तरह देखें तो... या न
भी देखें तो क्या फर्क पड़ता है...
सभागार दिल्ली विश्वविद्यालय के
छात्र-छात्राओं-शोधकर्ताओं और प्राध्यापकों से खचाखच भरा था, मुहावरे में कहें तो
तिल रखने की भी...
अपूर्वानंद ने कार्यक्रम की शुरुआत
‘आलोचना’ के परिचय से और यह कहते हुए की कि जो जितना ही नौजवान है, वह उतना ही
फर्श पर बैठे। विनोद तिवारी को बैठने को सीट नहीं मिल रही थी और उधर अपूर्वानंद
बता रहे थे कि कैसे गए दिनों में दुनिया भर में ब्लॉगर्स की हत्याएं हुई हैं। उन्होंने
यह भी कहा, ‘‘कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो सकती है कि क्यों एक साहित्यिक आलोचना की
पत्रिका समाज वैज्ञानिक विषय पर अपने अंक केंद्रित करे, लेकिन ‘आलोचना’ की
दिलचस्पी बतौर पत्रिका राजनीति में हमेशा से रही है।’’ ‘आलोचना’ की दिलचस्पी बतौर
पत्रिका नामवर सिंह में भी हमेशा से...
लेकिन ‘आलोचना’ की दिलचस्पी अब कविता में क्यों
नहीं है... इस प्रश्न के उत्तर के लिए मुझे एक बार पुन: असद ज़ैदी को याद करना होगा
:
एक कविता जो पहले ही से खराब थी
होती जा रही है अब और खराब
कोई इंसानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती
एक स्थायी दुर्घटना है
सारी रचनाओं को उसकी बगल से
लंबा चक्कर काटकर गुजरना पड़ता है
मैं क्या करूं उस शिथिल
सीसे-सी भारी काया का
जिसके आगे प्रकाशित कविताएं महज तितलियां हैं
और
सारी समालोचना राख
मनुष्यों में वह सिर्फ मुझे पहचानती है
और मैं भी मनुष्य जब तक हूं
तब तक हूं
फिलहाल ‘प्राइम टाइम’ शुरू हुआ— एंकर :
रवीश कुमार और उनके साथ थे आदित्य निगम, राजनीतिशास्त्री (सीएसडीएस), अनुपमा रॉय, राजनीतिशास्त्री
(जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय), हिलाल अहमद, राजनीतिशास्त्री (सीएसडीएस) और नामवर
सिंह, प्रधान संपादक, आलोचना। रवीश ने कहा कि आप सबके पास छह-छह मिनट हैं। इसमें
ही आपको ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ लेना है। इसके बाद सवाल-जवाब का दौर होगा। उन्होंने कहा
कि वह एक किस्म के उत्तरवाद से घिर गए हैं और इससे निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं
आता। उनका आशय ‘नार्थ’ से था ‘आंसर’ से नहीं। यह कहकर कि नार्थ के लोग रोज
बनने वाले इतिहास में उन्हें मौकापरस्त लगते हैं, उन्होंने यह भी कहा, ‘‘मैं सजग
हूं, भावुक नहीं हूं।’’ बाकी जो है सो तो...
आदित्य निगम ने रवीश से कहा कि ये
स्टूडियो नहीं है और यहां कमर्शियल ब्रेक और तालियों की जरूरत नहीं है। आपने चार मिनट को बढ़ाकर छह मिनट किया, इसके लिए शुक्रगुजार हूं। आदित्य नर्वस और लड़खड़ाए हुए नजर आए। ऐसे मौकों पर ऐसे व्यक्तित्वों को शराब पीकर आना चाहिए, क्योंकि छह मिनट में ‘भारतीय
जनतंत्र का जायजा’ होश में नहीं लिया जा सकता। वह बारह मिनट बोले और उन्होंने इस बीच राजनीति
और सियासत का फर्क समझाया। उन्होंने कहा कि राजनीति समाज में हर जगह चलती है,
लेकिन सियासत हर जगह नहीं होती। वह एक लम्हा है जो यकायक होता है और बने-बनाए खेल
को बिगाड़कर चला जाता है। उन्होंने दो प्रस्थापनाएं भी दीं, लेकिन वे यकायक समझ में
नहीं आईं और बना-बनाया खेल बिगाड़कर चली गईं।
बाद इसके न जाने क्यों रवीश कुमार ने नामवर
सिंह को बोलने को कहा? नामवर ने कहा, ‘‘मैं वक्ता नहीं हूं, लेकिन आदेश हुआ है
तो बोलूंगा। राजनीति मेरा विषय नहीं है। मैं साहित्य का विद्यार्थी हूं। साहित्य
में यह देखा जाता है कि कंटेंट और फॉर्म एक दूसरे को कैसे प्रभावित करते हैं। मैं
ऐसे ही राजनीति को भी जांचता हूं।’’ उन्होंने चुनाव को फॉर्म और तानाशाही को कंटेंट
बताया या बताना चाहा। उन्होंने गजब अय्यारी दर्शाते हुए दबी जुबान में नरेंद्र
मोदी की तुलना हिटलर से की। यहां गौरतलब है कि कुछ रोज पूर्व भारतीय ज्ञानपीठ
सम्मान समारोह में नामवर सिंह ने नरेंद्र मोदी की प्रशंसा की थी। नामवर छह मिनट ही
बोले और उन्हें देखकर लगा कि यह शख्स दो मिनट में भी ‘भारतीय
जनतंत्र का जायजा’ ले सकता है।
रवीश कुमार ने बर्लिन का एक संस्मरण
सुनाते हुए कहा कि अब वहां कोई हिटलर को याद नहीं करता। उन्होंने नामवर सिंह को
पुरानी शब्दावली का व्यक्ति बताया और अनुपमा रॉय को पुकारा।
अनुपमा ने रवीश की अमरोहा वाली रिपोर्ट की
तारीफ की, अपूर्वानंद को धन्यवाद दिया और कहा कि मैंने ‘आलोचना’ के ये दोनों अंक
ठीक से नहीं पढ़े हैं। लेकिन नामवर जी कह रहे हैं तो जरूर ये अंक अविस्मरणीय होंगे।
अनुपमा को देखकर लगा कि वह जन-तंत्र-तंत्र-जन-जन-तंत्र-तंत्र-जन... में ही छह मिनट
गुजार देंगी। लेकिन वह जल्द ही फॉर्म में आईं और कंटेंट में भी जब उन्होंने कहा कि
राज्य समाज से पृथक नहीं है। शक्ति का वितरण जिस तरह हुआ है उसी का संचित स्वरूप
राज्य है। जनतांत्रिकता का पर्याय केवल लोकतांत्रिक संप्रभुता है। उनके संदर्भ
चुराए हुए लग रहे थे, लेकिन मुझे यकीन है कि अगर उन्हें छह मिनट से ज्यादा वक्त
मिला होता तो उन्होंने स्रोत जरूर बताए होते।
हिलाल अहमद ने कहा कि मैं मुसलमान हूं। मुसलमान
कभी शासक थे, अब शासित हैं और आज उनके लिए सच्चर कमीशन की वही अहमियत है जो
‘कुरआन’ और ‘हदीस’ की है। उन्होंने मुसलमानों को लेकर भारतीय समाज में मौजूद
पूर्वाग्रह और कॉमनसेंस के फर्क को समझाने के लिए ‘थ्री इडियट’ और ‘पीके’ का सहारा
लिया। सुनकर ताज्जुब हो सकता है कि इस सबके लिए उन्होंने महज आठ मिनट खर्च किए।
‘प्राइम टाइम’ के बाद संपन्न हुए
सवाल-जवाब वाले राउंड में मैं सभागार से बाहर चला आया। वातानुकूलन में कुछ गड़बड़ी
थी और गर्मी से सिर भन्नाने लगा था। वक्त अब कुछ इस कदर है कि सारे सवालों के जवाब
मिनटों में दिए जा सकते हैं। हर शै पर मक्खियां मंडरा रही हैं। जीवन की सारी मिठास
पर अब मक्खियों का शोर है। अभीष्टों को चढ़ाए गए चढ़ावे पर मक्खियां हैं। पूर्वजों को
अर्पित किए गए पुष्पों पर मक्खियां हैं। हमारा कीचड़ तक मक्खियों ने ले लिया, हमारा
दलदल तक...
मैं श्रीराम सेंटर की ओर बढ़ गया। कवि
निलय उपाध्याय अपनी किताब ‘गंगोत्री से गंगासागर तक’ खड़े होकर बेच रहे थे। इस
पुस्तक का लोकार्पण तीन दिन पहले गोविंदाचार्य करने वाले थे, किया नहीं। एक दिन
पहले प्रकाशक ने इस किताब को बेचने से मना कर दिया और सारी किताबें निलय के सिर पर पटक गया।
मैं श्रीराम सेंटर रंगमंडल द्वारा
प्रस्तुत यूरीपीडिज का नाटक ‘मीडिया’ देखने पहुंचता हूं। वह भी अपने विन्यास और
प्रस्तुतिकरण में बहुत खराब प्रतीत होता है। बाहर आता हूं एक कवि मिलता है और
देवीप्रसाद मिश्र की एक कविता याद आती है :
सारे सांस्कृतिक
हादसे श्रीराम सेंटर के आस-पास ही होते हैं
वहीं एक ने मेरा
कॉलर यह कहते हुए पकड़ लिया
कि तुम कहते हुए घूम
रहे हो
कि मुझे कवि होने की
जिद नहीं करनी चाहिए
मैंने यह कहा तो था
लेकिन इस मरदूद तक
यह बात पहुंची तो कैसे
मैंने जान छुड़ाने के
लिए उससे कह दिया
कि मैंने आपके बारे
में सिर्फ यह कहा था
कि आपको मनुष्य होने
की जिद नहीं करनी चाहिए
घबराहट में निकली
मेरी इस बात को
उसने इलहाम में
निकली बात मान लिया
और मुझसे ज्यादा
घबरा गया
कि इस कमबख्त को
इसका भी पता था...
***
सभी प्रश्नो के उत्तर दिये जा सकते है पर सभी प्रश्नो को पूछा नहीं जा सकता गोया हर शै अपने आप में यूं बहुत कुछ है और कुछ भी नहीं कि
ReplyDelete"एक शै है जो बेदार किये जाती है दिल को,
एक अज़्म है गो उसका मुझे नाम न आया !"
वेल एक्सप्रेस्सेड :)
पढ़ कर मजा आया, सोच कर दुख
ReplyDeleteशानदार व जानदार
ReplyDeleteShaandaar reporting Bhai Avinaash Mishra Ji... Aapki shaily kamaal ki pathniyata paida kar deti hai. - Kamal Jeet Choudhary
ReplyDelete