Wednesday, April 6, 2016

बगैर इनवर्टेड कॉमा और ब्रैकेट वाली एक महान रिपोर्टिंग



मेरे अजीज उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद अपनी डायरी में फरमाते हैं : मंच पर बैठे हुए वक्ता मुझे बूढ़ी वेश्याओं से दिखाई देते हैं खासतौर पर चौकड़ी मारकर बैठे हुए वक्ता। उनके चेहरों पर चुपड़ी हुई याचना होती है, मुस्कुराहटों में नहाई हुई, नंगी हमें सुनो, हमें सराहो, हम से रश्क करो!

मुझे भी गए वक्त तक कुछ यूं ही लगता रहा, लेकिन अब यूं नहीं लगता। मैं अब महानता महसूस करने लगा हूं यह इलहाम मुझे कल यानी 5 अप्रैल 2016 की शाम हुआ। मौका : 21वें देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह का। सम्मान : वैभव सिंह। स्थान : साहित्य अकादेमी सभागार, नई दिल्ली। मंच पर : नामवर सिंह, मृदुला गर्ग, अशोक वाजपेयी, पुरुषोत्तम अग्रवाल। संचालन : रवींद्र त्रिपाठी।  

इस आयोजन के आमंत्रण-पत्र पर वक्ताओं में हरीश त्रिवेदी का भी नाम था, लेकिन वह आ नहीं पाए... इसमें जरूर उनकी कोई महानता होगी। यह न आना संचालकीय स्वर से ज्ञात हुआ, वैसे ही जैसे देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह का इतिहास, प्रासंगिकता और पारदर्शिता।

अशोक वाजपेयी एक महान निर्णायक हैं, इसलिए उनकी इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए कि प्रत्येक वर्ष अकादमिक किस्म की बहुत सारी किताबें आती हैं, लेकिन देवीशंकर अवस्थी सम्मान की नियमावली और आयु-सीमा के अंतर्गत जिन्हें प्रतिवर्ष चुना जा सके ऐसे युवा आलोचक हिंदी में बहुत नहीं हैं। इससे पूर्व गए वर्ष वह यह भी बता चुके हैं कि हिंदी में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार के लायक कविता किसी युवा कवि के पास नहीं है। खैर, उन्होंने यहां वैभव सिंह का प्रशस्ति-वाचन किया, लेकिन उससे पहले यह बताया कि वैभव कई बार से शार्टलिस्ट हो रहे थे। लेकिन कभी किसी की उम्र निकली जा रही थी तो कभी कुछ और बहाना बनाकर वह वैभव को इस सम्मान से दूर रख रहे थे, लेकिन अंतत: यह उन तक पहुंच ही गया। निर्णायक : मैनेजर पांडेय, नंदकिशोर आचार्य, विजय कुमार, कमलेश अवस्थी और अशोक वाजपेयी।

आज से तीन वर्ष पहले प्रियम अंकित को यह सम्मान मिलने के मौके पर वैभव सिंह ने अपना वक्तव्य देते हुए अपने और देवीशंकर अवस्थी के बीच बैसवाड़े का संबंध खोज निकाला था। तब इसे एक पेशबंदी की तरह देखा गया था, लेकिन इसे लक्ष्य तक पहुंचने में उम्मीद से ज्यादा वक्त इसलिए लग गया क्योंकि महान विनोद तिवारी की उम्र निकली जा रही थी। अगर वैभव को तब यह सम्मान मिल जाता तब विनोद तिवारी को वह कैसे मिलता जो उनसे पहले महान पुरुषोत्तम अग्रवाल और महान अपूर्वानंद और महान जितेंद्र श्रीवास्तव को मिल चुका है।

वैभव सिंह जरूर इन वर्षों में वैसे ही छटपटाते रहे होंगे जैसे सलमान रश्दी गए कई वर्षों से नोबेल पुरस्कारों की घोषणा पर। सलमान रश्दी वाली छटपटाहट की तस्दीक के लिए पद्मा लक्ष्मी के संस्मरणों की किताब  लव, लॉस एंड व्हाट वी एट पढ़ी जा सकती है। वैभव वाली छटपटाहट अब नहीं है, इसलिए उसकी चर्चा फिजूल है। अगर महान है तो खुदा करे, यह साल वैभव की तरह सलमान के लिए भी अच्छा हो।  

अशोक वाजपेयी जब वैभव सिंह की प्रशस्ति पढ़ रहे थे, तब मुझे विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविता आवेदन-पत्र याद आ रही थी : सम्मान हर छोटे-बड़े गिना दें / पर कैसे  यह अप्रासंगिक है... 

इस अवसर पर वाणी प्रकाशन से चार खंडों में आने वाली देवीशंकर अवस्थी रचनावली का लोकार्पण भी होना था, लेकिन वह प्रकाशित होकर आ नहीं पाई... इसलिए संचालक को महान अरुण महेश्वरी के लाए ब्रोश्यर से काम चलाना पड़ा         

प्रशस्ति के पश्चात वैभव सिंह को स्मृति-चिन्ह और अन्य वस्तुओं से नवाजा गया। इस बीच महान संचालक रवींद्र त्रिपाठी का इसरार इस पर था कि वैभव सिंह को सबसे पहले चैक दिया जाए, नामवर सिंह का इस पर कि वैभव सिंह सामने देखें और छायाकार का इस पर कि कमलेश अवस्थी भी तस्वीर में आ जाएं... छायाकार के इसरार में अपना इसरार मिलाते हुए संचालक ने पुरस्कार-समारोह को विवाह-समारोह में कुछ यूं बदला कि उसका लिखित प्रकटीकरण अश्लीलता की सारी सीमाएं भी लांघ सकता है, इसलिए इसे रहने देते हैं।

अब बारी थी वैभव सिंह के महान वक्तव्य की। इस महान आयोजन की महान परंपरा और प्रतिष्ठा के अनुरूप वह वक्तव्य लिखकर लाए थे। वह लगभग 35 मिनट बोले। उन्होंने इस अवसर को अपने लिए बहुत महत्वपूर्ण मानते हुए कहा कि आलोचना को निष्पक्ष होना चाहिए। देवीशंकर अवस्थी ने निष्पक्ष आलोचना पर बहुत बल दिया है। वैभव ने दिए गए विषय उपन्यास का समकाल से कुछ छूट ली और इसे आलोचना और उपन्यास का समकाल बनाते हुए अपना पेपर पढ़ा और कहा कि आलोचना के लिए जगह घट रही है। एक विराट निगरानी-तंत्र पैदा किया जा रहा है जो हर तरह के लोकतंत्र के लिए घातक है। स्वतंत्र-लेखन पर अधिनायकवादी दंड का भय हावी है। आज सृजन और मुक्त बहसों की हमारी पारंपरिक संस्कृति को खत्म करने के प्रयास हो रहे हैं। वैभव ये सब बोलते हुए बहुत सुंदर लग रहे थे। आलोचना को जिम्मेदार होना होगा यह कहते हुए वह जब उपन्यास पर आए तो बोले कि उपन्यास केवल मध्यवर्ग का महाकाव्य नहीं है, वह उत्पीड़ितों के महाकाव्य के रूप में भी पहचाने गए हैं। आधुनिकता का आगमन ही उपन्यास का आगमन है।

वैभव के बाद संचालक महोदय ने पहले ही प्रस्तावित हो चुके विषय को नामालूम क्यों थोड़ा और प्रस्तावित किया और मंच से इतर संजीव कुमार को आमंत्रित किया। संजीव भी बहुत सुंदर और महान हैं, उन्होंने 16 साल बाद अणिमा जून-1965 में प्रकाशित देवीशंकर अवस्थी के आलेख नई पीढ़ी और उपन्यास से एक अंश पढ़ा। कहना न होगा कि यह एक महान आलोचक द्वारा दूसरे महान आलोचक के एक महान आलेख का एक महान अंश था।

महान उपन्यास नाकोहस के विचारक पुरुषोत्तम अग्रवाल जब उठे, तब उनका गला बैठा हुआ था। उन्होंने कहा कि समय बहुत हो चुका मैं बहुत कम वक्त में अपनी बात रखने और समझाने की कोशिश करूंगा। उन्होंने गए दिनों की मीडिया की खबरों का असर लेकर हिंसा की स्वाभाविकता के बढ़ने का जिक्र करते हुए उपन्यास को दूसरी सारी साहित्य-विधाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण और अलग स्थान देते हुए फ्रांसिस फूकोयामा और देरिदा और उम्बेर्तो ईको के उद्धरण में उलझते और उलझाते और जल्दियाते हुए उसे आत्म की धारणा से जोड़ते हुए उसे आधुनिकता का एक लक्षण माना उसका नियामक तत्व नहीं। इस चौड़े वाक्य के बाद यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि पुरुषोत्तम अग्रवाल एक महान वक्ता हैं।

मृदुला गर्ग ने आज के समकाल को असहिष्णु मानते हुए कहा कि हमारी संस्कृति में सहिष्णुता और असहिष्णुता के बीच बड़ा घालमेल रहा है। मीडिया की खबरों का असर और डर उन पर काफी नजर आया और वह एक राजनीतिज्ञ होने की इच्छाशक्ति से भरी महान महिला की भांति बोलती हुई जान पड़ीं।

नामवर सिंह एक महान आलोचक हैं, यह उनके प्रशसंक ही नहीं, उनके आलोचक भी मानते हैं। नामवर सिंह बहुत आदरणीय व्यक्ति हैं, उन्हें देखते ही उनके चरण छूने की इच्छा होती है और पान खाने की भी और फिर थूकने की भी...। अतिकाल हो गया है यह कहते हुए उन्होंने अपना वक्तव्य देने से मना कर दिया, फिर भी उन्होंने जो कुछ कहा उसमें वैभव सिंह के शिष्टाचारगर्भित, सारगर्भित, विचारगर्भित, पुरस्कारगर्भित, संसारगर्भित वक्तव्यनुमा निबंध और निबंधनुमा वक्तव्य की सिंहवादी प्रशंसा और दिल के भरे और श्रोताओं के अघाए और तृप्त होने का उल्लेख था। उन्होंने कहा कि अब एक बूंद भी डालने से छलक जाएगा। मैं बस औपचारिकता के लिए ही मौजूद हूं।

इससे पहले कि पीछे से बाकी महान लोग भी चले जाते महान अनुराग अवस्थी ने महान धन्यवाद ज्ञापन किया। 

मैंने बाहर निकलकर एक महान आलोचक से कहा कि मुझे पान खाना है। उसने मुझे पान पकड़ाते हुए कहा :

प्रेक्षागृह खचाखच भरा था
एक जनसंख्या बहुल देश में
यह कोई अनहोनी नहीं थी

ये ऋतुराज की कविता-पंक्तियां थीं मैंने पान थूकते हुए कहा :

मरे हुए लोग अभी तक यहां से गए नहीं हैं
जीवित लोग
उन्हें उठाए फिर रहे हैं               

ये भी ऋतुराज की ही कविता-पंक्तियां थीं। 

Friday, January 1, 2016

2015 की पंद्रह किताबें



जैसे सब वर्ष अंतत: गुजर जाते हैं वैसे ही वर्ष 2015 भी गुजर गया। संसार में गुजर जाना एक शाश्वत क्रिया है, लेकिन इस गुजर जाने को एक विश्लेषक दृष्टि से देखना प्राय: समय की मांग है। गुजरे हुए की पड़ताल में जरूरी नहीं कि यह सदिच्छा सब बार निहित ही हो कि आगे उन गलतियों के दोहराव से बचा जाए जो हो चुकी हैं, और यह भी कि भविष्य में उस सकारात्मकता और सजगता से ऊर्जा पाई जाए जो गुजरे हुए में थी ...और यह करके स्वप्नों और उम्मीदों के नए रास्ते खोले जाएं। यह बात वैसे तो सभी कार्य-क्षेत्रों पर लागू होती है, लेकिन अगर केवल हिंदी साहित्य तक ही इस कथ्य को सीमित करें, तब बेशक यह कहा जा सकता है कि यह अब भी संभावना है।
 

कुछ बेहतर किताबों, पुरस्कार-चर्चाओं, पुरस्कार-वापसी और अन्य लोकप्रिय विवादों से सार्थक, जीवंत और गर्म रहा यह साल जाते-जाते पूरे हिंदी-जगत को शोकाकुल कर गया। तीन महत्वपूर्ण कवि इस वर्ष के अंतिम चार महीनों में दिवंगत हुए — सितंबर में वीरेन डंगवाल और दिसंबर के शुरू में रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ और दिसंबर के अंत में पंकज सिंह इस जहां को गुडबाय कह गए।

इस दुःख और क्षति के साथ देखें तो इन दिनों हिंदी साहित्य बड़ी अजीब बहसों से गुजर रहा है। जहां तक नजर जाती है शब्द ही शब्द हैं और लेखक होना इतना आसान है कि महज कुछ हजार रुपए खर्च कर कोई भी लेखक बन सकता है। लोकप्रिय उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक ने एक बातचीत में कहा कि जो लिखता है, वह लेखक होता है। इसी बातचीत में आगे उन्होंने अपने लिखने को अपना व्यापार बताया। हिंदी में लेखक होना इतना खुदगर्ज, इतना मूल्यहीन और इतना चालू कभी नहीं था, जितना आज है।

कथाकार अनिल यादव ने गए साल कहा था : ‘‘न इज्जत है, न रॉयल्टी है, न ग्लैमर है फिर भी हिंदी में कविता, कहानी का हैजा है। लेखक कहलाने, भीड़ में पहचाने जाने से लेकर अमर होने तक की आकांक्षाओं के चलते बड़ी मात्रा में किताबें आ रही हैं। ऐसी किताबें छापना-छपवाना असल में अधकचरे अरमानों की प्रोसेसिंग है। एक तरह से ये छपने-दिखने के अवसरों का दुरुपयोग भी है।’’

इस दृश्य में 2015 से पंद्रह उल्लेखनीय किताबें चुनना एक सुविधाजनक रास्ता लग सकता है
लेकिन असल में यह बेहद असुविधाजनक है, क्योंकि कथा-कविता से इतर प्रत्येक वर्ष की तरह इस वर्ष भी हिंदी में कुछ उल्लेखनीय नजर नहीं आ रहा। इसकी भरपाई के लिए इस कथ्य में ‘पुनश्च’ के अंतर्गत इस वर्ष की पंद्रह ऐसी उल्लेखनीय रचनाएं जोड़ने की कोशिश की गई है, जो पत्र-पत्रिकाओं या ब्लॉग्स में प्रकाशित हुईं। फिर भी यहां यह जोड़ना जरूरी है कि यह चयन-दृष्टि व्यक्तिगत रुचियों और सीमाओं का मामला-भर है, कोई अंतिम राय या निर्णय नहीं। 
 
जयशंकर प्रसाद की एक कविता-पंक्ति है कि ‘‘छलना थी लेकिन उसमें मेरा विश्वास घना था’’ ...इस तर्ज पर कहें तो कह सकते हैं कि इस वर्ष भी हिंदी में कविता के नाम पर व्यापक छलावा हुआ। बहुत सारे कवितावंचित कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। उन सबके नाम जानने के लिए ‘दैनिक जागरण’ में प्रकाशित ओम निश्चल का सर्वेक्षणालेख ‘औसत का राज्याभिषेक’ पढ़ा जाना चाहिए। लेकिन औसत की भीड़ में अगर कविता चाहिए तो इस वर्ष प्रकाशित इन चार कविता-संग्रहों को पढ़ना जरूरी है :

कविता
 
कुमारजीव (कुंवर नारायण)
जिद (राजेश जोशी)
रक्तचाप और अन्य कविताएं (पंकज चतुर्वेदी)
लुका-झांकी (दर्पण साह)
*

पुन: एक कविता-पंक्ति के आश्रय से ही बात करें तो गजानन माधव मुक्तिबोध की एक कविता-पंक्ति है कि ‘‘दुनिया में नाम कमाने के लिए कोई फूल नहीं खिलता है’’ ...लेकिन हिंदी में यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ कवि नाम कमाने के लिए कहानियां लिखने लगते हैं। इस प्रकार के कहानीकारों से परहेज करते हुए यह पाया जा सकता है कि लोदी रोड से लेकर दरियागंज तक दौड़ने के बावजूद इस वर्ष के हिंदी के चार महत्वपूर्ण कहानी-संग्रह तक हाथ नहीं लगते। स्वयं प्रकाश के ‘छोटू उस्ताद’ को पढ़कर निराशा हाथ लगती है। अंत में दो ठीक-ठाक कहानी-संग्रह ही नजर आते हैं :
 
कहानी
 
जलमुर्गियों का शिकार (दूधनाथ सिंह)
हलंत (हृषिकेश सुलभ)
*
 
मलयज की एक कविता-पंक्ति है कि ‘‘व्यर्थता अर्थ का वह कुंवारापन है जिसे भोगा नहीं गया’’ ...इस पंक्ति के प्रकाश में देखें तब देख सकते हैं कि उपन्यासों के अगर अंश छप जाए तो उनके बारे में एक राय कायम की जा सकती है, जैसे अब तक अप्रकाशित गीत चतुर्वेदी और अनिल यादव के उपन्यासों के बारे में क्रमश: अच्छी और बुरी राय कायम हो चुकी है। लेकिन अगर अंश सामने नहीं आएं तो बहुत सारे उपन्यासों को उठाकर पछताने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं होता। अलका सरावगी का उपन्यास ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ अपनी रायटिंग नहीं मार्केटिंग की वजह से इस वर्ष चर्चा में रहा, लेखिका ने लगभग इसे आवाज लगा-लगाकर, दरवाजे खटखटा-खटखटाकर बेचा। इसलिए इस उपन्यास को इसकी लेखिका के भरोसे ही छोड़कर इस वर्ष आए दो अन्य उपन्यासों को इस सूची में दर्ज करना चाहिए :

उपन्यास
 

पहाड़ (निलय उपाध्याय)
बनारस टॉकीज (सत्य व्यास)
*
 

पुन: एक कविता-पंक्ति के आश्रय से ही बात करें तो अज्ञेय की एक कविता-पंक्ति है कि ‘‘जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है’’ ...हिंदी में सारा समीक्षात्मक-समालोचनात्मक कर्म इस पंक्ति के ही आदर्श वैभव में गर्क है। समीक्षाएं संबंधों की मारी हैं और समालोचना सर्वथा अपाठ्य है। हिंदी में आलोचना की हालत वही है जो टी.वी. सीरियल्स में एक्टिंग की है — करनी किसी को नहीं आती, लेकिन कर सब रहे हैं। बमुश्किल इस वर्ष प्रकाशित आलोचना की दो किताबें ही उल्लेखनीय नजर आती हैं :  

आलोचना
 

जीने का उदात्त आशय (पंकज चतुर्वेदी) 
हिंदी आलोचना में कैनन-निर्माण की प्रक्रिया (मृत्युंजय)
*

कविता-पंक्तियां यहां बहुत हो रही हैं, लेकिन इसे एक कविता-विरोधी समय में कविता के पुनर्वास के रूप में लिया जाना चाहिए... तो शमशेर बहादुर सिंह की एक कविता-पंक्ति है कि ‘सूर्य मेरी अस्थियों के मौन में डूबा’ ...हिंदी में ‘आत्मकथा की संस्कृति’ भी रही है और इस पर पंकज चतुर्वेदी ने शोध-कार्य भी किया है। लेकिन यह संस्कृति प्रतिवर्ष पल्लवित नहीं होती। हिंदी में आत्मकथाएं अभावग्रस्तता के शिल्प में संदिग्ध और हास्यास्पद होने को अभिशप्त हैं। लिहाजा इस क्रम में इस प्रकार की एक आत्मकथा को चुनना पड़ रहा
है जिसके चयन की पीछे अभावग्रस्तता का शिल्प बड़ी भूमिका अदा कर रहा है। यह आत्मकथा संदिग्ध और हास्यास्पद दोनों ही है, लेकिन कैसे इसके लिए इसे पढ़ना ही होगा : 

आत्मकथा
 

जमाने में हम (निर्मला जैन)
*

रघुवीर सहाय की एक कविता-पंक्ति है कि ‘इस दुःख को रोज समझना क्यों पड़ता है’ ...डायरी अपने दुःख को रोज समझने का रास्ता है। अनु सिंह चौधरी की ‘मम्मा की डायरी’ को बेहतर मानते हुए भी इस क्रम से बाहर रखना पड़ रहा है, क्योंकि निदा नवाज की डायरी अपने बयानों से ज्यादा बेचैन करती है। अपने छात्रों पर लिखे गुरु विश्वनाथ त्रिपाठी के संस्मरण अपने गद्य की वजह से ग्राह्य हैं। प्रभात रंजन की ‘कोठागोई’ को किस विधा में रखा जाए, यह एक संकट है। इस संकट को एक खासियत की तरह भी झेला जा सकता है। इस वर्ष की यह सबसे चर्चित और पठनीय हिंदी कृति है। कृष्ण कल्पित विरचित ‘कविता-रहस्य’ के आगे ...उर्फ नया काव्य-शास्त्र भी जुड़ा हुआ है। आगामी कवियों को समर्पित यह कृति अगर शास्त्र न भी मानी जाए तब भी इसे कविता के बारे में एक सुदीर्घ कविता मानकर पढ़ा जा सकता है : 

डायरी/ संस्मरण/ विविध
 

सिसकियां लेता स्वर्ग (निदा नवाज)
गुरुजी की खेती-बारी (विश्वनाथ त्रिपाठी)
कोठागोई (प्रभात रंजन)
कविता-रहस्य (कृष्ण कल्पित)
* 

पुनश्च :

1)  प्रकृति करगेती की कहानी ‘ठहरे हुए लोग’ (हंस, जनवरी-2015)

2)  प्रियंवद की सलवटें ‘मेरी इच्छाएं मेरा तर्क हैं’ (पाखी, अप्रैल-2015)

3)  आशुतोष भारद्वाज की डायरी (http://sidmoh.blogspot.in, 6 अप्रैल 2015)

4)  योगेंद्र आहूजा से संवाद ‘सारी मानवीयता दांव पर लगी है’ (पाखी, मई-2015)

5)  भालचंद्र जोशी की कहानी ‘आने वाले कल का खूनी सफर’ (कथादेश, जून-2015)

6)   कपिला वात्स्यायन का आलेख ‘भारतीय कला : समग्रता की खोज’ (नया ज्ञानोदय, जून-2015)

7)  भगवान सिंह की कृति ‘कोसंबी : कल्पना से यथार्थ तक’ पर सियाराम शर्मा का आलेख ‘तुम्हीं कहो यह अंदाजे-गुफ्तगू क्या है’ (अकार-41)

8)  विश्वनाथ त्रिपाठी का आलेख ‘आंखें वे देखी हैं जबसे’ (तद्भव-30)

9)  योगेंद्र आहूजा की कहानी ‘मनाना’ (पहल-100)

10)  देवी प्रसाद मिश्र की कविताएं (पहल-100)

11)  शिवेंद्र की कहानी ‘कहनी’ (पल प्रतिपल-78)

12) अनिल यादव की कहानी ‘दंगा भेजियो मौला’ पर संजीव कुमार का आलेख ‘दंगे में आएंगे’ (हंस, सितंबर-2015)

13)  रश्मि भारद्वाज की कविताएं (सदानीरा-9)

14)  वीरेन डंगवाल की एक कविता ‘रामपुर बाग की प्रेम-कहानी’ के बहाने आशुतोष कुमार (जलसा-4)
 
15)  शुभम श्री की डायरी (जलसा-4)

***
'दि संडे पोस्ट'' में प्रकाशित 
तस्वीर : अनुराग वत्स

Friday, August 21, 2015

युवा कविता : एक अपील




इतिहासबोध के लिए एक क्रमभंग 
अच्युतानंद मिश्र
*

मित्रो,

...गए दिनों हिंदी में युवा कविता को लेकर एक बहस की स्थिति बनीयह बहस किसी सार्थक संवाद में नहीं बदल सकी तो उसके कुछ निश्चित कारण थेसवाल युवा कविता के भीतर से भी उठाए गए और बाहर से भीकुछ बातें बहुत प्रायोजित और सुनिश्चित योजना के तहत कही गईं कुछ टिप्पणियों का मंतव्य युवा कविता को सिरे से खारिज करना था तो कुछ इस बात पर सहमत थे कि हिंदी में किसी भी पहले समय की अपेक्षा अधिक अच्छी कविताएं लिखी जा रही हैंयह बेहतर ही होता कि हम उन कारणों पर कुछ गंभीरता से विचार करतेएक तरह से युवा कविता के इस वर्तमान परिदृश्य को लेकर एक कंफ्यूजन की-सी स्थिति बरकरार है 

यह तो हम सब स्वीकार करेंगे ही कि हिंदी कविता अपने सबसे गहन संकट के दौर में हैइस संकट का स्वीकारबोध अगर हमारे वरिष्ठ कवियों में नहीं है तो इसके लिए युवा कवि जिम्मेदार नहीं हो सकतेवर्तमान कविता के परिदृश्य को अगर हमारे वरिष्ठ कवियों ने राजनीति के पीछे चलने वाली खबर की तरह बना दिया है तो हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि यह हमें विरासत में मिला है इस विरासत का हमें क्या करना है, यह भी हमें ही सुनिश्चित करना होगा

यहां युवा कविता से मेरी मुराद उन कवियों से है जिन्होंने नई सदी में लिखना आरंभ किया

हिंदी के युवा कवियों को एक दोहरे संकट से गुजरना पड़ रहा हैवे कविता में जिन प्रवृत्तियों का विरोध कर रहे हैं, जीवन जीने की प्रक्रिया में वही प्रवृत्तियां उन पर बलात थोपी जा रही हैं समूचा साहित्यिक परिदृश्य एक सांस्थानिक उपक्रम में बदल चुका हैपुरस्कारों की राजनीति से शुरू होकर नौकरी पाने तक की प्रक्रिया एक विशाल दलदल का रूप ले चुकी हैयुवा कविता इसी दमघोंटू परिदृश्य में विकसित हो रही है विरोध के कई स्तर निर्मित हो चुके हैं और हर स्तर का अपना व्यक्तिगत तर्क है

नई सदी की युवा कविता के विषय में यह कहा जा रहा है कि वह विषयाक्रांत हुई है कुछ वरिष्ठ कवियों को ऐसा अगर लगता है तो क्या उन्होंने समय रहते इसकी पड़ताल करने की जरूरत समझीहिंदी की युवा कविता के विषय में इस तरह की मुद्रा और आक्रामकता भरे तेवर दरअसल इस बात की तस्दीक करते हैं कि युवा कविता से जिनका संबंध कभी कभार का होता है, वे कविता के समयबोध को पहचानने में किस तरह चूक जाते हैंवे फूल-पत्ती एवं समयबोध से मुक्त कविता को ही कविता का मूल विषय मानने लगते हैं वे युवाओं से यह अपेक्षा रखते हैं कि वे इसे स्वीकार करें 

बूढ़ा गिद्ध पंख क्यों फैलाए पूछने वाले अब खुद पंख फैला रहे हैंयुवा कविता को संरक्षण देने का यह नायाब तरीका उन्होंने ढूंढ़ निकाला है

हम इसे उपयुक्त नहीं मानते बल्कि हम यह चाहते हैं कि इस नए समय की गंभीर व्याख्या हो और मौजूदा संकट को उसकी मूल संरचना से पकड़ा जाए इस संदर्भ में हमारा स्पष्ट मानना है कि हमारा समय एक नई गति को रच रहा है आठवें दशक के कवियों ने यह कहां सोचा होगा कि उनके उत्तरकाल में कविताओं के पाठक उन्हें यू ट्यूब  पर देख-सुन सकेंगेअगर रूप बदलेगा तो विषय भी बदलेंगे और विषयों के प्रकट होने की गति भी स्पष्ट है उससे सही तालमेल नहीं बना सकने की स्थिति में यह गति-स्थिति हमें विषयाक्रांत ही नजर आएगी

समूची दुनिया में बड़े पैमाने पर कला रूपों में परिवर्तन हो रहा हैहमारी संवेदना का आयाम अधिक विस्तृत हुआ हैज्ञान के संवेदनात्मक रूपांतरण की मुक्तिबोधीय परिकल्पना में उस रूपांतरण की गति का प्रश्न भी जुड़ गया है हर क्षण हर पल हमारे मस्तिष्क पर जितने तरह के हमले हो रहे हैं, उसने शांत मस्तिष्क की मानवीय परिकल्पना को ही उलट दिया हैपहले के कवि के पास गांव से शहर तक आने के वृहद् अनुभव थेउसमें एक खास तरह का रोमान भी मौजूद होता था इक्कीसवीं सदी में विस्थापन का समूचा मनोविज्ञान बदल गया मध्यवर्गीय परिवार की समूची परिकल्पना बदल गई ऐसे में स्मृतियों में मौजूद संबंध और वास्तव के संबंधों के बीच की दूरी अधिक गहरी हुई है और कवि के अनुभव अधिक कटु आज के युवा कवि के पास दो ही रास्ते नजर आते हैं, या तो वह अपने समय की बेचैनी को उसकी मूल गति के साथ पकड़ने का प्रयत्न करे या मार्मिकता के नए क्षितिजों के विस्तार से संवेदना के नए आयाम रचे 

कई बार परंपरा से आलोचनात्मक संवाद भी यथार्थ की नई मंजिलें तय करता हैइतिहास भले क्रमिकता में जीवित रहता हो, इतिहासबोध के लिए क्रमभंग एक अनिवार्य शर्त होती है

आज की युवा कविता का यह बदला हुआ परिदृश्य एक व्यापक संवाद की मांग करता है, इसलिए कि वह एक संक्रमण काल से गुजर रही हैपुरानी कविता को सिर्फ इसलिए दुहराना ठीक नहीं होगा कि वह एक धीमी गति की दुनिया को रेखांकित करती थीअगर कविता किसी पुरानी मीनार से देखने पर विषयाक्रांत दिखती है तो दिखे युवा कविता की तो सीधी मुठभेड़ अपने समय से है उस समय से जिसे महज राजनीतिक संकल्पना बनाकर कविता को उसके पीछे दौड़ने वाले घोड़े में बदला जाना उसे स्वीकार नहींसिर्फ राजनीतिक घटनाक्रम ही हमारी चेतना को प्रभावित नहीं कर रहे हैं, सामाजिक-सांस्कृतिक रूपाकारों में आए परिवर्तन भी हमें बदल रहे हैं

हमने जब आंखें खोलीं तो सिर्फ बाबरी मस्जिद का विध्वंस या रूस के विघटन की चीख ही नहीं सुनी बल्कि हमें कम्प्यूटर युग और सूचना क्रांति के परिणामों से भी बावस्ता होना पड़ा हमारे मस्तिष्क के समक्ष इस कृत्रिम मस्तिष्क को पैदा कर, हमें किस किस्म के विलगाव में रख दिया गया है, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए

इन तमाम बातों के आलोक में मेरा मानना है कि युवा कविता को लेकर एक सार्थक बहस और रचनात्मक संवाद की दरकार हैनब्बे के दशक के कवियों ने अपने से पहले के कवियों के साथ कोई आलोचनात्मक संबंध विकसित नहीं किया ऐसे में पिछले पच्चीस साल की कविता एक क्रमिक विस्तार का रूप लेती गई नई सदी में अगर यह क्रम टूटता है तो इस टूटन को ही, सही परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किए जाने की जरूरत है 

युवा कविता की यह कोशिश अपने अस्तित्व की पहचान की कोशिश है इसमें उसका समयबोध भी शामिल है
*** 

एक युवा कवि की यह अपील एक नई ऊर्जा वाले कर्म का प्रारंभ है। यह प्रारंभ तमाम गलतबयानियों, आलस्य और दुरभिसधियों को समझने में सहायक है। एक व्यापक अर्थ में इसमें एक ऐसा कर्तव्य, विवेक और समयबोध उपस्थित है जो हमें खंडित होने से बचा लेने को तत्पर है। यह समय हिंदी के युवा कवियों के लिए अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने का नहीं बल्कि उसे मूर्त करने का है। उम्मीद है कि यह अपील इस मायने में दूर तलक जाएगी...

Saturday, June 20, 2015

‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ पर पंकज चतुर्वेदी की एक कविता


आइए 

समलैंगिकता एक प्यार है
इंसान का इंसान से
ज़रूरी नहीं लैंगिकता का
ख़याल रखकर किया जाए

एक समाचार चैनल पर
समलैंगिकता पर बहस में
बाबा रामदेव ने कहा :
यह भारतीय संस्कृति के खि़लाफ़ है
अप्राकृतिक है
मानसिक विकृति है
और अगर सुप्रीम कोर्ट, सरकार और लोग
यह नहीं समझते
तो वे भी भारतीय संस्कृति के खि़लाफ़ हैं

समलैंगिकों के प्रवक्ता का कहना था
कि दुनिया के मशहूर मनोवैज्ञानिकों की राय है
कि समलैंगिक सम्बन्ध
दिमाग़ी ख़राबी नहीं
बल्कि इंसान की
ख़ास आंतरिक बनावट का नतीजा हैं

एक और समलैंगिक ने
एक पत्रिका में अपने इंटरव्यू में पूछा
कि खजुराहो, दहोद और मोधरा की मूर्तियों में
और हमारे प्राचीन ग्रंथ ‘कामसूत्र’ में
समलैंगिकता के रहे होने के सुबूत मिलते हैं
फिर कैसे इसे कुछ लोग
पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित परिघटना बताते हैं

बहरहाल, चैनल पर बाबा रामदेव ने
आगे कहा :
समलैंगिकता की व्याधि से
छुटकारे का उपाय है
प्राणायाम

समलैंगिकों के पैरवीकार ने
अपने तर्कों से
बाबा को मुत्मइन करने की
काफ़ी चेष्टा की
पर अंत में खीजकर कहा :
क्या प्राणायाम, प्राणायाम
प्राणायाम से कुछ नहीं होता है

मगर बाबा इस बात पर अड़े रहे
कि प्राणायाम से
सब ठीक हो सकता है

आइए रामदेव जी !
बावजूद इसके कि वे लोग प्राणायाम जानते हैं
प्राणायाम के राजपथ पर
भारतीय संस्कृति की
छतरी के नीचे
उन्हें धकियाते हुए चलें !
***
साभार : कवि के सद्यः प्रकाशित कविता-संग्रह ‘रक्तचाप और अन्य कविताएं’ से 

Sunday, June 7, 2015

कि जैसे मुझे इसका भी पता था



इस मंच पर विराजमान ये सभी लोग
खोए हुए लोग हैं

इनके नाम के बातस्वीर इश्तिहार भी
शायद निकले हुए हों

जो मनुष्य अभी अध्यक्षता कर रहा है
सबसे ज्यादा खोया हुआ पुरुष है

उसका सब कुछ उससे खो गया है

वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी की यह कविता मैं नामवर सिंह को जब जब मंच पर देखता हूं, याद आती है। हालांकि शनिवार 6 जून 2015 की शाम साहित्य अकादेमी सभागार, नई दिल्ली में नामवर अध्यक्ष नहीं, ‘विशिष्ट उपस्थिति’ थे। लेकिन उनका सब कुछ अब उनसे खो गया है, इसकी सूचना वह अपनी प्रत्येक उपस्थिति में दर्ज करवा ही देते हैं। इस बार प्रसंग था ‘आलोचना’ के दो अंकों (53-54) के प्रकाशन के उपलक्ष्य में ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ विषय पर केंद्रित परिचर्चा। वक्ताओं में गोपाल गुरु का भी नाम था, लेकिन वह क्यों नामौजूद रहे इसकी कोई जानकारी इस कार्यक्रम के दरमियान नहीं दी गई। आज से करीब दो माह पूर्व इसी सभागार में बीसवें देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह का संचालन करते हुए अशोक वाजपेयी ने साहसिकता को व्यर्थ बताते हुए कहा था कि आजकल कहीं बुलाए जाने पर न आने के कारण बहुत हो गए हैं, ब्लड प्रेशर भी उनमें से एक है। अशोक वाजपेयी नाम का व्यक्तित्व जब बोलता है या जब ‘कभी-कभार’ लिखता है तो लगता है बहुत जूस पीकर बोल रहा है या बहुत बादाम खाकर लिख रहा है। उसके लिखे या बोले में उसके मौजूदा समय का कोई संकट और बेचैनी नहीं होती, या ‘आलोचना’ के नए संपादक अपूर्वानंद के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ नहीं होता। वर्ना क्या वजह रही इस कार्यक्रम का संचालन अशोक वाजपेयी ने नहीं लघुप्रेमकथाकार रवीश कुमार ने किया। इस तरह देखें तो... या न भी देखें तो क्या फर्क पड़ता है...

सभागार दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं-शोधकर्ताओं और प्राध्यापकों से खचाखच भरा था, मुहावरे में कहें तो तिल रखने की भी...

अपूर्वानंद ने कार्यक्रम की शुरुआत ‘आलोचना’ के परिचय से और यह कहते हुए की कि जो जितना ही नौजवान है, वह उतना ही फर्श पर बैठे। विनोद तिवारी को बैठने को सीट नहीं मिल रही थी और उधर अपूर्वानंद बता रहे थे कि कैसे गए दिनों में दुनिया भर में ब्लॉगर्स की हत्याएं हुई हैं। उन्होंने यह भी कहा, ‘‘कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो सकती है कि क्यों एक साहित्यिक आलोचना की पत्रिका समाज वैज्ञानिक विषय पर अपने अंक केंद्रित करे, लेकिन ‘आलोचना’ की दिलचस्पी बतौर पत्रिका राजनीति में हमेशा से रही है।’’ ‘आलोचना’ की दिलचस्पी बतौर पत्रिका नामवर सिंह में भी हमेशा से...

लेकिन ‘आलोचना’ की दिलचस्पी अब कविता में क्यों नहीं है... इस प्रश्न के उत्तर के लिए मुझे एक बार पुन: असद ज़ैदी को याद करना होगा :

एक कविता जो पहले ही से खराब थी
होती जा रही है अब और खराब

कोई इंसानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती
एक स्थायी दुर्घटना है
सारी रचनाओं को उसकी बगल से
लंबा चक्कर काटकर गुजरना पड़ता है

मैं क्या करूं उस शिथिल
सीसे-सी भारी काया का
जिसके आगे प्रकाशित कविताएं महज तितलियां हैं और
सारी समालोचना राख

मनुष्यों में वह सिर्फ मुझे पहचानती है
और मैं भी मनुष्य जब तक हूं तब तक हूं

फिलहाल ‘प्राइम टाइम’ शुरू हुआएंकर : रवीश कुमार और उनके साथ थे आदित्य निगम, राजनीतिशास्त्री (सीएसडीएस), अनुपमा रॉय, राजनीतिशास्त्री (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय), हिलाल अहमद, राजनीतिशास्त्री (सीएसडीएस) और नामवर सिंह, प्रधान संपादक, आलोचना। रवीश ने कहा कि आप सबके पास छह-छह मिनट हैं। इसमें ही आपको ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ लेना है। इसके बाद सवाल-जवाब का दौर होगा। उन्होंने कहा कि वह एक किस्म के उत्तरवाद से घिर गए हैं और इससे निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं आता। उनका आशय ‘नार्थ’ से था ‘आंसर’ से नहीं। यह कहकर कि नार्थ के लोग रोज बनने वाले इतिहास में उन्हें मौकापरस्त लगते हैं, उन्होंने यह भी कहा, ‘‘मैं सजग हूं, भावुक नहीं हूं।’’ बाकी जो है सो तो...

आदित्य निगम ने रवीश से कहा कि ये स्टूडियो नहीं है और यहां कमर्शियल ब्रेक और तालियों की जरूरत नहीं है। आपने चार मिनट को बढ़ाकर छह मिनट किया, इसके लिए शुक्रगुजार हूं। आदित्य नर्वस और लड़खड़ाए हुए नजर आए। ऐसे मौकों पर ऐसे व्यक्तित्वों को शराब पीकर आना चाहिए, क्योंकि छह मिनट में ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ होश में नहीं लिया जा सकता। वह बारह मिनट बोले और उन्होंने इस बीच राजनीति और सियासत का फर्क समझाया। उन्होंने कहा कि राजनीति समाज में हर जगह चलती है, लेकिन सियासत हर जगह नहीं होती। वह एक लम्हा है जो यकायक होता है और बने-बनाए खेल को बिगाड़कर चला जाता है। उन्होंने दो प्रस्थापनाएं भी दीं, लेकिन वे यकायक समझ में नहीं आईं और बना-बनाया खेल बिगाड़कर चली गईं।

बाद इसके न जाने क्यों रवीश कुमार ने नामवर सिंह को बोलने को कहा? नामवर ने कहा, ‘‘मैं वक्ता नहीं हूं, लेकिन आदेश हुआ है तो बोलूंगा। राजनीति मेरा विषय नहीं है। मैं साहित्य का विद्यार्थी हूं। साहित्य में यह देखा जाता है कि कंटेंट और फॉर्म एक दूसरे को कैसे प्रभावित करते हैं। मैं ऐसे ही राजनीति को भी जांचता हूं।’’ उन्होंने चुनाव को फॉर्म और तानाशाही को कंटेंट बताया या बताना चाहा। उन्होंने गजब अय्यारी दर्शाते हुए दबी जुबान में नरेंद्र मोदी की तुलना हिटलर से की। यहां गौरतलब है कि कुछ रोज पूर्व भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान समारोह में नामवर सिंह ने नरेंद्र मोदी की प्रशंसा की थी। नामवर छह मिनट ही बोले और उन्हें देखकर लगा कि यह शख्स दो मिनट में भी ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ ले सकता है।       

रवीश कुमार ने बर्लिन का एक संस्मरण सुनाते हुए कहा कि अब वहां कोई हिटलर को याद नहीं करता। उन्होंने नामवर सिंह को पुरानी शब्दावली का व्यक्ति बताया और अनुपमा रॉय को पुकारा।

अनुपमा ने रवीश की अमरोहा वाली रिपोर्ट की तारीफ की, अपूर्वानंद को धन्यवाद दिया और कहा कि मैंने ‘आलोचना’ के ये दोनों अंक ठीक से नहीं पढ़े हैं। लेकिन नामवर जी कह रहे हैं तो जरूर ये अंक अविस्मरणीय होंगे। अनुपमा को देखकर लगा कि वह जन-तंत्र-तंत्र-जन-जन-तंत्र-तंत्र-जन... में ही छह मिनट गुजार देंगी। लेकिन वह जल्द ही फॉर्म में आईं और कंटेंट में भी जब उन्होंने कहा कि राज्य समाज से पृथक नहीं है। शक्ति का वितरण जिस तरह हुआ है उसी का संचित स्वरूप राज्य है। जनतांत्रिकता का पर्याय केवल लोकतांत्रिक संप्रभुता है। उनके संदर्भ चुराए हुए लग रहे थे, लेकिन मुझे यकीन है कि अगर उन्हें छह मिनट से ज्यादा वक्त मिला होता तो उन्होंने स्रोत जरूर बताए होते।

हिलाल अहमद ने कहा कि मैं मुसलमान हूं। मुसलमान कभी शासक थे, अब शासित हैं और आज उनके लिए सच्चर कमीशन की वही अहमियत है जो ‘कुरआन’ और ‘हदीस’ की है। उन्होंने मुसलमानों को लेकर भारतीय समाज में मौजूद पूर्वाग्रह और कॉमनसेंस के फर्क को समझाने के लिए ‘थ्री इडियट’ और ‘पीके’ का सहारा लिया। सुनकर ताज्जुब हो सकता है कि इस सबके लिए उन्होंने महज आठ मिनट खर्च किए।

‘प्राइम टाइम’ के बाद संपन्न हुए सवाल-जवाब वाले राउंड में मैं सभागार से बाहर चला आया। वातानुकूलन में कुछ गड़बड़ी थी और गर्मी से सिर भन्नाने लगा था। वक्त अब कुछ इस कदर है कि सारे सवालों के जवाब मिनटों में दिए जा सकते हैं। हर शै पर मक्खियां मंडरा रही हैं। जीवन की सारी मिठास पर अब मक्खियों का शोर है। अभीष्टों को चढ़ाए गए चढ़ावे पर मक्खियां हैं। पूर्वजों को अर्पित किए गए पुष्पों पर मक्खियां हैं। हमारा कीचड़ तक मक्खियों ने ले लिया, हमारा दलदल तक...

मैं श्रीराम सेंटर की ओर बढ़ गया। कवि निलय उपाध्याय अपनी किताब ‘गंगोत्री से गंगासागर तक’ खड़े होकर बेच रहे थे। इस पुस्तक का लोकार्पण तीन दिन पहले गोविंदाचार्य करने वाले थे, किया नहीं। एक दिन पहले प्रकाशक ने इस किताब को बेचने से मना कर दिया और सारी किताबें निलय के सिर पर पटक गया।

मैं श्रीराम सेंटर रंगमंडल द्वारा प्रस्तुत यूरीपीडिज का नाटक ‘मीडिया’ देखने पहुंचता हूं। वह भी अपने विन्यास और प्रस्तुतिकरण में बहुत खराब प्रतीत होता है। बाहर आता हूं एक कवि मिलता है और देवीप्रसाद मिश्र की एक कविता याद आती है :

सारे सांस्कृतिक हादसे श्रीराम सेंटर के आस-पास ही होते हैं
वहीं एक ने मेरा कॉलर यह कहते हुए पकड़ लिया
कि तुम कहते हुए घूम रहे हो
कि मुझे कवि होने की जिद नहीं करनी चाहिए

मैंने यह कहा तो था
लेकिन इस मरदूद तक यह बात पहुंची तो कैसे

मैंने जान छुड़ाने के लिए उससे कह दिया
कि मैंने आपके बारे में सिर्फ यह कहा था
कि आपको मनुष्य होने की जिद नहीं करनी चाहिए

घबराहट में निकली मेरी इस बात को
उसने इलहाम में निकली बात मान लिया
और मुझसे ज्यादा घबरा गया
कि इस कमबख्त को इसका भी पता था...  
***