असहमति का आयतन
हिंदीसाहित्यसंसार
के संकीर्ण समूह कैसे अपने से असहमतों और अपवादों को किनारे करते हैं, संजय
चतुर्वेदी की कविता-सृष्टि इसके साक्ष्य की तरह उपस्थित है। हालांकि बहुत विश्लेषण
में जाने से पूर्व ही इस निष्कर्ष को उद्घाटित कर देना चाहिए कि ‘असहमति का आयतन’
दोनों तरफ ही संक्षिप्त है और आत्मीयता के योग्य यह सचमुच नहीं है। यहां प्रस्तुत
कथ्य की एकाग्रता के विस्तार पर मुक्तिबोध की कविता ‘अंत:करण का आयतन’ की छायाएं नजर
आएंगी।
संजय चतुर्वेदी
का काव्य-व्यवहार आक्रोश को अवसाद में बदल देने वाले हुनर में यकीन नहीं रखता है। एक
कहीं न ले जाने वाली करुणा, एक जीवन की सघन अनुभूतियों की समरसता, एक खाया-अघाया
अपराध-बोध, एक सहमत पक्षधरता, एक शुतुरमुर्गीय उम्मीद... उनकी कविता की आवाज नहीं
है। मुक्तिबोध के बाद वह हिंदी कविता के सर्वाधिक खतरनाक, बेपरवाह और जोखिम उठाने
वाले कवि हैं। मुक्तिबोध से पूर्व उनका काव्य-विवेक कबीर से जाकर जुड़ता है। बहुतों
की नजर में उन्होंने अपने कवि-व्यक्तित्व को बर्बाद किया है। बहुतों की नजर में
उनमें वामपंथ के प्रति घृणा है। बहुतों की नजर में उनका वाम-विरोध अलोकतांत्रिकता
के स्तर तक चला जाता है। बहुतों की नजर में उनकी कविता प्रतिक्रियावाद और दक्षिणपंथ
को मदद पहुंचा सकती है। बहुतों की नजर में उनके जैसा असहमत कवि आज तक खड़ी बोली
हिंदी में हुआ ही नहीं है। बहुतों की नजर में वह एक भुला दिए गए कवि हैं। बहुतों
की नजर में उनके साथ अन्याय हुआ है। ...ये कुछ तथ्य और कथ्य हैं जो संजय चतुर्वेदी
की कविता-सृष्टि पर एकाग्र होने की तैयारी में सामने आते हैं।
संजय चतुर्वेदी के प्रारंभिक और संकलित काव्य-व्यवहार
में विज्ञान के दर्शन और उसके समाजशास्त्र के प्रति एक विशेष आकर्षण लक्षित किया
गया था। सामाजिक और राजनीतिक विकृतियां उसमें बेहद गैर रूमानी ढंग से अभिव्यक्त
हुई थीं। स्वीकार्य कविता से दूरी बनाने की कोशिश उसे विसंगतिबोध, व्यंजना और
अराजकता के समीप ले गई थी। उसमें एक भविष्य-दृष्टि थी और उम्मीद भी और दुनिया को
सपनों के मुताबिक बना पाने की जद्दोजेहद भी। उसमें थोड़ा कम कहते हुए बहुत अधिक को
बरतने का कौशल विद्यमान था। वहां बाकी लोग सभी लोगों से बहुत ज्यादा थे :
ये देश सभी लोगों के लिए है
ये दुनिया सभी लोगों के लिए है
हम क्या करें अगर बाकी लोग हैं सभी लोगों से ज्यादा
बाकी लोग अपने घर जाएं
[ सभी लोग और बाकी लोग ]
बाद इसके संजय
चतुर्वेदी की कविता-सृष्टि अव्यवस्थित और संकलनबाजी से दूर रहकर विकसित होने का मार्ग
चुनती है :
रामदास इस
कविता की बाबूगीरी में
कभी सहज हो
नहीं सका था
शायद उसे शुरू
से डर था
अपने ऊपर लिखी
जा रही कृतियों से पिछले दशकों में
इसलिए वह
उदासीन था
शायद उसने देख
लिया था
कृतिकारों के
माथे पर ही लिखा हुआ है
आखिर उसकी
हत्या होगी
[ संकलनबाजी के अलक्षित परिणाम ]
संजय चतुर्वेदी की कविता-सृष्टि में दर्ज सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक संकट
अपनी लिखत में दो-ढाई दशक से भी ज्यादा प्राचीन हैं। एक प्रतिबद्ध प्रहारात्मकता के
बावजूद इस प्राचीनता का बराबर प्रासंगिक बने रहना एक संकट है। ‘तमाम लड़ाइयों
को खत्म कर देने वाली लड़ाइयों के बाद भी शोषण का युग लंबा ही होता जा रहा है।’ विष्णु
खरे ने जिसे सहायोत्तर पद्य कहा है — संजय चतुर्वेदी की कविता-सृष्टि इसका दस्तावेज है कि — उसने ‘रामदास’ की विडंबना
को ठीक से समझा नहीं है। वह अब तक उसकी हत्या के आगे न सिर्फ मौन और निहत्था है, बल्कि बाज दफा उसमें
भागीदार या उसका समर्थक भी है। संजय चतुर्वेदी की कविताओं में ‘रामदास’ कई बार लौट-लौटकर आता है। इसकी शुरुआत होती है आज से सत्ताईस बरस पूर्व हुई एक हत्या और उस पर संजय
चतुर्वेदी के मार्फत छेड़ी गई बहस से। यह कोई काव्यात्मक बहस नहीं है, लेकिन कविता
के मजमून इसमें निहां हैं। उस दौर की अखबारी कतरनों से पता चला चलता कि वर्ष 1989
के पहले दिन दिल्ली से सटे साहिबाबाद के झंडापुर
गांव में गाजियाबाद नगरपालिका चुनाव के दौरान जन नाट्य मंच द्वारा सफदर हाशमी के निर्देशन में नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला
बोल’ का प्रदर्शन किया जा रहा है, तभी जन
नाट्य मंच के ग्रुप पर कांग्रेस (आई) से जुड़े कुछ लोग हमला कर देते हैं। इस हमले में सफदर बुरी तरह जख्मी होते हैं और उसी रात सिर
में लगी भयानक चोटों की वजह से उनकी मृत्यु हो जाती है। रामबहादुर नामक उस
नेपाली मजदूर की भी गोली मारकर हत्या कर दी जाती है, जिसने जन नाट्य मंच के सदस्यों को आश्रय देने का दुस्साहस
किया। इस घटना के चौदह साल बाद गाजियाबाद की एक अदालत दस लोगों को हत्या के मामले
में आरोपी करार देती है, इसमें
कांग्रेस पार्टी के सदस्य मुकेश शर्मा का भी नाम शामिल रहता है।
इस सबके दरमियान ही सफदर हाशमी के आदर्शों की लड़ाई जारी रखने के लिए सफदर हाशमी
मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) की स्थापना हुई और सफदर की हत्या को पहले
शहादत में और बाद में अमरता में बदलकर बहुत गौरवपूर्ण ढंग से दिल्ली के सांस्कृतिक
भद्रलोक में मूल्यांकित किया गया और प्रतिवर्ष किया जा रहा है। ‘सहमत’ पर
पूंजीवादी चढ़ावों के तथ्य एक अलग विस्तार की मांग करते हैं, लेकिन यह दर्ज कर देना
जरूरी है कि प्रत्येक वर्ष के पहले दिन अगर सफदर की स्मृति में होने वाले ‘सहमत’
के आयोजन में सच्चे अर्थों में जनसरोकार से वास्ता रखने वाला कोई रचनाकार चला जाए
तो या तो उसे उल्टी हो जाएगी या वह एक लंबे अर्से के लिए अवसादग्रस्त हो जाएगा। यह
अलग बात है कि इस आयोजन में हमारे दौर के कई विशिष्ट कवि शरीक होते रहे हैं और हो
रहे हैं। यह भद्रलोक बदीउज्ज्मां की कहानी ‘क्रांति के सौदागर’ या महेश एलकुंचवार
के नाटक ‘पार्टी’ के जैसा भद्रलोक है जिसे गोविंद निहलानी ने सिनेमा में और हालिया
वर्षों में रंजीत कपूर ने रंगमंच में जीवंत किया। वास्तविक संघर्षों से दूर एक
वातानुकूलित रोमांटिसिज्म में जीता हुआ यह वर्ग अपने पूरे शब्दाडंबर में उस मजदूर रामबहादुर
का नाम तक नहीं लेता, जिसकी हत्या भी सफदर के साथ ही की गई। वामपंथ की बुनियाद में
अपरिग्रह भी है, यह भूलकर यह वर्ग ‘रामदास’ को बहुत पीछे छोड़ देता है, क्योंकि रामदास
पर या कहें रामबहादुर पर बात करना एक मध्यवर्गीय वामपंथी कारोबार के प्रतिकूल पड़ता
है।
जो साहित्य को रामदास की सत्ता मानते थे
उनकी सभा से उनका रामदास अपमानित करके निकाला गया
लेकिन उनको खबर नहीं हो पाई
[ रामदास का श्राप ]
इस दुर्घटना के बाद इस सांस्कृतिक पाखंड और विचलन के विरुद्ध हस्तक्षेप करने
की प्रक्रिया में संजय चतुर्वेदी की कविताएं हिंदी कविता में ‘रामदास’ को फिर से
लाती हैं। वह जैसे ‘अंधेरे में’ के काव्य-नायक की तरह उनकी कविता-सृष्टि में भटकता
है। जनचेतना से लैस परंपराएं यूं दशकों के आर-पार जाती हैं :
विकास इतना हुआ
कि कारोबार के समीकरणों को साधने वाले
महाकवि हो चले
वे कला की तरह स्वायत्त हुए
न मंत्रियों की जुरूरत रही
न कविता की
और उन्हें ध्यान भी नहीं रहा
कि आज सारी चीजें फतह कर लेने के बाद
उन पर रामदास का श्राप था
और शहरी बियाबान में आकाशवाणी थी
कि सदी के मोड़ पर
अरबपतियों के यहां मुफ्त की पीते-पीते
तुम रचनाकार दो कौड़ी के हो चुके हो
[ रामदास का श्राप ]
महज एक नजर अपने पर भी मारने से ‘कॉस्मिक कांशसनेस’ से भरी हुई संजय चतुर्वेदी
की कविता वाम-विरोधी हो जाती है और बहुतों को लगता है कि उन्होंने आगे से जाकर ‘राइट’ ले लिया है। लेकिन जिनका सारा जीवन अवैध यू-टर्न लेकर की गई यात्राओं से भरा
रहा है, वह आखिर किस मुंह से वामपंथ के एक सिंपेथाइजर को राइट विंग का कहते हैं। दरअसल,
यह उस व्यवहार या कहें व्यापार की आलोचना से उत्पन्न असुविधा है जो हिंदी पट्टी
में फैले वामपंथ के अनैतिक सांस्कृतिक कारोबार को उजागर करती है। संजय चतुर्वेदी की
कविता का विकास-क्रम इस बात की जमानत है कि सांस्कृतिक अवमूल्यन में वामपंथ की
भूमिका को दर्ज करना हिंदीसाहित्यसंसार में एक अपघाती कदम है।
सच बोलने से कविता नष्ट होती थी
और झूठ बोलने से निष्ठा
लेकिन कविता के नष्ट होने से सारा खेल ही नष्ट हो जाता
इसलिए कविता झूठ बोल रही थी
और साहित्य से धीरे-धीरे निष्ठा नष्ट हो रही थी
सच इतनी तेजी से बदलता था
कि जड़भट्ट और पेशेवर
उसमें सघन अनुभूतियों का अभाव पाते थे
और झूठ इतना स्थिर था
कि उसमें अनुभूतियों समेत सब कुछ सघन था
और यहीं सारा खेल था
सघन अनुभूतियों की हिफाजत का
[ सघनतंत्र ]
इस प्रकार की सघन अनुभूतियों की सर्वानुमति वाले इलाके या कहें सहमतों के
‘गढ़कुंडार’ में संजय चतुर्वेदी की कविता सिलसिलेवार धमाकों की तरह है— अमर्ष और आक्रोश से उत्पन्न। इस बागी
काव्य-स्वर की जांच की गई, इसे दोषी पाया गया, इसे सजाएं दी गईं... धमाकों से हुए
नुकसान की भरपाई की गई और दोषी को भूलने की कोशिश की गई। लेकिन संजय चतुर्वेदी की
ही एक कविता के एतबार से बात करें तो ये आवाजें लौट रही हैं। जीवन भर कांग्रेस की
गुलामी करने वाले, उसके भयानक अमानुषिक कृत्यों का बचाव या उनकी अनदेखी करने वाले,
केंद्रीय सत्ता-परिवर्तन के बाद इन दिनों प्रतिरोध के सबसे बड़े प्रतीक हैं। दरअसल,
यह लड़ाई फाशिज्म से नहीं है। यह कला-संस्कृति की दूकानें बंद हो जाने का मामला है।
जिसके जीवन भर की कमाई उसके गालों और बदन पर दिखती है, उस बूढ़े गिद्ध को क्यों
आपने उस प्रतिरोध का सबसे बड़ा और बिंदास मॉडल बना दिया, जो आपका केंद्रीय आख्यान
और बपौती हुआ करता है और जिसका ढोल पीटने की जरूरत आपको हर शासन-तंत्र में पड़ती
रही। क्यों आपने उस ढोल को एक कथित कलावादी/रूपवादी के गले में लटका दिया और स्वयं
उसके पिछलग्गू हो गए। वे जो धूप में दो मिनट भी खड़े नहीं रह सकते, प्रतिकारों को सेमिनारों
तक सीमित कर देते हैं। मौजूदा वक्त यह प्रमाणित करता है कि नाखून कटाकर
क्रांतिकारी बनने का मुहावरा कभी अप्रासंगिक नहीं होता है।
बड़े चैन से जिंदगी कट रही थी
सदा व्रत, पंजीरी घणी बंट रही थी
सभी मालिकों से बड़ी बन रही थी
रुसूखों की लस्सी वहीं छन रही थी
वो कल्चर का शेवा गिजा-माल-मेवा
वो अफसुर्दा शामों की साहित्य-सेवा
ये जाने कहां से जनादेश आया
ये मरदूद परजा का संदेश आया
ये आधी सदी का जतन फोड़ डाला
मैं कहता हूं सारा वतन तोड़ डाला
[ हमें जो गलत बोलता है वो गलत है ]
उदय प्रकाश एक बातचीत में संजय चतुर्वेदी को समकालीन कविता में एक गहरी प्रखर
अंतर्दृष्टि और बिल्कुल भिन्न काव्य-संरचना वाला कवि मानते हुए कहते हैं : ‘‘लगभग
एक राग, एक काव्य-विन्यास, एक लहजे और उन्हीं काव्य-मुहावरों में वृंदगान करते समकालीन
कवियों के एकरस मजमे से बिल्कुल अलग उनकी कविताएं दिखाई देती हैं।’’ इस
काव्य-स्वर तक आने के लिए संजय चतुर्वेदी ने भरपूर जोखिम उठाए हैं, अपने से ठीक
पहले की कविता उनके लिए कतई असरअंदाज नहीं है। उनमें एक भयानक निहिलिज्म है— एक उल्लेखयोग्य अस्वीकार और अपना
मार्ग सारी समकालीन स्वीकृत रचनाशीलता से अलग कर लेने की बेचैनी। वह हिंदीसाहित्यसंसार
के आंतरिक विरोधाभासों को देख और उन्हें व्यक्त कर पाने में बेहद सारस्वत ढंग से समर्थ
हैं और इसलिए ही उसके अंडरवर्ल्ड के एकमात्र प्रवक्ता हैं। कविता से बाहर उनके पास
बयानबाजी का हुनर भी है। वह अपने साक्षात्कारों और वक्तव्यों में भी काफी मुखर हैं।
उनके बयान उनके कवि को जायज ठहराते हैं और उनका कवि उनके बयानों को। यहां वह
अंतर्विरोध नहीं है जिसे शमशेर बहादुर सिंह के विषय में विजयदेव नारायण साही ने ‘शमशेर
की काव्यानुभूति की बनावट’ में दर्ज किया था : ‘‘वक्तव्य उन्होंने सारे
प्रगतिवाद के पक्ष में दिए, कविताएं उन्होंने बराबर वह लिखीं जो प्रगतिवाद की
कसौटी पर खरी न उतरतीं।’’
यहां कविता से बाहर संजय चतुर्वेदी के कुछ बयान गौरतलब हैं :
- ये कवियों के सुनहरे और कविता के काले दिन चल रहे हैं।
- कविता लिखी नहीं लिखवाई जा रही हैं।
- ज्यादातर जनवादी किसी बोधिवृक्ष के नीचे एक महंत की तरह बैठे हुए लगते हैं।
- समय ने यह साबित कर दिया है कि पुरस्कार और सम्मान किसी भी रचनाकार की सच्ची कहानी नहीं कहते।
- मेरी समझ से कविता मूलतः एक स्ट्रीट बिजनेस है।
- आधुनिकतावादी की हालत उस पाकिस्तान की तरह है जिसकी समझ में नहीं आता कि वह इस्लाम से पहले के अपने इतिहास का क्या करे।
- हिंदी की समूची कविता में आप भक्तिकाल और रीतिकाल को बचा लीजिए, उर्दू शाइरी को और इसके साथ छायावाद को बचा लीजिए, और इसके बाद के सारे काव्य को आप उठाकर हिंद महासागर में फेंक दीजिए हिंदुस्तानी जनता को इससे होने वाली क्षति नगण्य होगी — और बड़ा भारी मलबा साफ हो जाएगा।
- वह कविता जो निहत्थे नागरिक को सच्चा मताधिकार देकर लोकतंत्र को दुरुस्त करती थी, आज अफसरों, प्रकाशकों और साहित्यिक भड़ुओं के बीच की ललित कला बन चुकी है।
- हमने बार-बार अपनी परंपरा को अपमानित किया है। ...इस देश की नब्बे प्रतिशत जनता न्यूट्रल है, वह हमें भी देख रही है और हमलावरों को भी देख रही है। प्रश्न उठता है कि सांप्रदायिक हमलावरों ने उस नब्बे प्रतिशत जनता में क्यों जगह बना ली? उस सर्वहारा में क्यों जगह बना ली, जिसे हमारे साथ होना चाहिए था।
- हिंदी के पुस्तक-पुरस्कार माफिया के तमाशे में मुजरा करती क्लास से और इस बायोडेटा पर पनपने वाले सिफारिशी और बाबू-बुद्धि महाकवियों से किसी बड़ी कविता की उम्मीद या तो बेवकूफी है या शरारत।
‘भयंकर बात मुंह से निकल आती है। भयंकर बात स्वयं प्रसूत होती है। तिमिर में समय झरता है,
व उसके गिर रहे एक-एक कण से चिनगियों का दल निकलता है।’ (मुक्तिबोध / अंत:करण
का आयतन) संजय चतुर्वेदी की कविता-सृष्टि में मैं की जगह हम, घर-परिवार या उसकी
स्मृतियों या उसके बिंबों की जगह भारतीय राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ, सार्वकालिकता
की जगह तात्कालिकता, अमूर्तन की जगह अभिधा, गद्यात्मकता की जगह छंद, वाक्-चातुर्य
की जगह रेहटरिक, करुणा की जगह क्रोध, किताबी जनपक्षधरता की जगह वामपंथ की जमीनी और
जरूरी निंदा, सुंदरता की जगह उग्रता, कोमलता की जगह क्रूरता का बाहुल्य है। इस मैं-हीनता
में प्रेम-कविता और प्रेमपत्र की जगह उनका उपहास और
उन पर व्यंग्य है :
स्त्रियों से
ज्यादा उसे चिंता है अपने प्रेमपत्र की
प्रेमपत्र बचा तो स्त्रियां बचेंगी
[ माई आज तौ बधाई बाजै ]
‘वामपंथ जब नहीं रहेगा, तब स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता के एक बड़े और
चर्चित हिस्से का क्या होगा...’ यह प्रश्न कई महानुभावों को स्थायी रूप से बेचैन
करता रहता है। इस जमीन पर बिखरा गंदे कागजों का मुन्सिपल कचरा भी अलग से एक बेचैनी
सबब है। ‘उभरकर उमड़कर दल बांध
उड़ते आ रहे हैं गिद्ध। पृथ्वी पर झपटते हैं। निकालेंगे नुकीली चोंच से आंखें कि खाएंगे हमारी
दृष्टियां ही वे।’ (मुक्तिबोध / अंत:करण का आयतन)
एक समर्थ रचनाकार की तात्कालिकता में भी एक ऐसी भविष्य-दृष्टि काम कर रही होती
है, जिसमें बदलाव का साक्षी हो जाने के इशारे अंतर्स्यूत रहते हैं। वह अपने तात्कालिक प्रतिरोध को बहुत जल्द अप्रासंगिक
होते हुए देखना चाहता है। पारस्परिक रूप से असहमत होते हुए भी दुर्भाग्य से स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता के एक बड़े और
चर्चित हिस्से के कवियों और संजय चतुर्वेदी के साथ यूं नहीं हुआ। लेकिन दोनों में फर्क यहां पैदा होता है कि
एक हिस्सा इस पर ही पनप रहा है और दूसरा उसके वैचारिक स्वार्थों से पैदा कदाचारों
और करतूतों की गवाही दे रहा है। एक गवाह के तौर पर संजय चतुर्वेदी का कविता-कर्म
और उनके बयान इतने खूंखार ढंग से अब तलक प्रासंगिक हैं कि एक स्थायी प्रासंगिकता
की चाह रखने वाले तमाम रचनाकारों को उनसे रश्क हो सकता है। जबकि संजय चतुर्वेदी के
कवि-व्यक्तित्व की पगडंडियों ने स्थायी प्रासंगिकता के स्रोतों तक जाने और उन्हें
अपना हासिल बनाने की कोशिश अब तक नहीं की है। फिलहाल यह लिखते हुए आंखें सजल होती
हैं कि हिंदी साहित्य के इतिहास में संजय चतुर्वेदी की तात्कालिकता बहुत देर तक
ठहरने वाली लग रही है। यह एक ऐसी प्रासंगिकता है कि कोई भी परिवर्तनकामी रचनाकार कभी
इसका वरण करना नहीं चाहेगा। यह यूं ही नहीं है कि यह एक ऐसे कवि के खाते में आई है
जिसकी केंद्रीय अस्मिता अस्वीकार और निषेध से संचालित है।
गए अनुच्छेद की पुष्टि के लिए या उसे कुछ तथ्यात्मक तथा प्रमाणिक बनाने के लिए
एक वाकये को याद कर लेना चाहिए। सन् 2000 की बात है, साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित केदारनाथ अग्रवाल की
शोकसभा में संजय चतुर्वेदी कहते हैं : ‘‘मैं चाहता हूं इस कुरूसभा में कोई प्रतिभा
और हिम्मत का धनी खड़ा होकर गालियां बकना शुरू कर दे।’’ यहां तक पहुंचने से पहले वह 1980-2000 के बीच की
हिंदी कविता की खामियों और उसकी असुविधाजनक सचाइयों, हिंदी साहित्य में व्याप्त
करियरिज्म, रामविलास शर्मा-केदारनाथ अग्रवाल, शील-रहबर, नागार्जुन-मुक्तिबोध के
साथ हिंदी की रूलिंग-क्लास के बर्ताव के प्रति अपना गुस्सा जाहिर करते हैं : ‘‘आज
हममें से कितने हैं जो श्रद्धांजलि के बाद कुछ दूर इनके रास्ते पर चलना चाहेंगे।
हम तो इस पुस्तक-पुरस्कार माफिया के शीलवान अभिनेता हैं, जिनके दम से आज हिंदी
किताबों का कारोबार संसार के कुछ सर्वाधिक अनैतिक कारोबारों में से एक है।’’
इन सवालों को हुए सोलह सावन गुजर गए हैं और अब ये एक उमंगों भरी उम्र लिए नई मंडियों में हैं। कायदे से इनके जवाब मिल
जाने चाहिए थे, लेकिन यह नहीं हुआ और यहां तक आते-आते हिंदी साहित्य करियर ही नहीं, करियर बनाने
के बाद के बचे हुए काम में बदल गया है। नए संचार माध्यम और उनकी पहुंच रोज इस काम के मायने बदल रही है। ये घटनाएं हिंदी साहित्य में सक्रिय प्रमुख तत्वों को
अगर बेचैन नहीं कर रही हैं तो इसके नितांत साहित्येतर कारण हैं। औसत से भी कमतर लेखक, संपादक, पत्रकार, बिचौलिए,
मॉडरेटर्स और मैनिपुलेटर्स आज हिंदी को चमकाने का दावा कर रहे हैं। इनका कहना है कि वे एक नई हिंदी बना रहे हैं।
इन दिनों पहले से बनी हुई पहचान के दम पर हिंदी साहित्य में पहचान खरीदी जा
रही है। यह इतने बड़े पैमाने पर
हो रहा है कि इससे सीधे-सीधे वे प्रतिभाएं प्रभावित या हताश हो रही हैं जो हिंदी
साहित्य में पहचान खरीदने नहीं अर्जित करने के लिए संघर्षरत हैं। ये खतरे हिंदी के लिए बहुत नए हैं और इनसे लड़ने के
तरीके बहुत पुराने। ये बात बहुत
भावुकतापूर्ण लग सकती है, लेकिन सच है कि हिंदी साहित्य ही जिनके लिए जीने का
जरिया है, करियर बनाने के बाद का बचा हुआ काम नहीं, उनकी मुश्किलें अब बिल्कुल बदल
चुकी हैं। हिंदी साहित्य की जो
मुख्यधारा अब तक स्वीकृत रही आई, उसे हिंदी में नई उत्पन्न की गई चमक के आगे
अवमूल्यित करने की कोशिशें जारी हैं। यह जानकर ताज्जुब होता
है कि इस मुख्यधारा के प्रतिनिधि इन गतिविधियों से बिल्कुल नावाकिफ हैं। वे इसे दिल्ली की चैतन्य बेवकूफियों में शुमार करते
हैं और उस दीवार को और मजबूत करने की बात करते हैं, जिसे लांघकर ही कोई रचनाकार
साहित्य के गंभीर इलाकों और सरोकारों से वाकिफ हो पाता है। इस दीवार को लांघने की तैयारी करियर बनाने के बाद के
बचे हुए वक्त में मुमकिन नहीं है। यह यूं ही नहीं है कि अब
तक हिंदी साहित्य में किसी को करियरिस्ट कहना उसे गाली देने के बराबर माना जाता रहा
है।
हिंदी के शीर्ष और प्रतिष्ठित प्रकाशन पैकेजिंग और ब्रांडिंग के खेल में असल
हिंदी साहित्य को धुंधला और चर्चा से बाहर करने के क्रम में सबसे आगे हैं। यह अपनी बुनियाद से जफा करने सरीखा है। हिंदी साहित्य की वास्तविक मुख्यधारा के समानांतर एक
प्रायोजित मुख्यधारा को काबिज करने के मामले में ये प्रकाशन एक दूसरे से होड़ लेते
हुए नजर आ रहे हैं।
गए कुछ वर्षों में हिंदी में खड़े किए गए नए सेलेब्रिटीज लेखक और उनके प्रकाशक हिंदी
साहित्य को निष्क्रिय, जड़ और जन पहुंच से दूर घोषित कर औसत से भी गए-गुजरे के
उत्सव में लगे हुए हैं। उनके पास सब कुछ खरीदा
हुआ है— भाषा, प्रकाशन, प्रचार,
पुरस्कार, आयोजन, चर्चा और पहचान... ऐसे में हिंदी का वह रचनाकार क्या करेगा जो
इनमें से कुछ भी नहीं खरीद सकता, क्या उसकी शर्म हिंदी की शर्म नहीं है? क्या उसके
पास इस शर्म में बेपहचान डूब मरने के सिवाए और कोई विकल्प नहीं है?
जनता दई निकाल सो अब मनमर्जी होय
मंद मंद मुस्काय कवि कविता दीन्ही रोय
[ सरबत सखी जमावड़ा ]
अब तक का हिंदी साहित्य प्राध्यापकों, अफसरों और पत्रकारों का रहा आया है। इनके संख्यातीत धत्-कर्मों के बावजूद हिंदी साहित्य
का मूल स्वर जनपक्षधरता और एक मूलगामी और आदर्शमूलक विद्रोहशीलता से संचालित प्रतीत
होता रहा है। उसकी पहुंच के सीमित
होने के सूत्र संकीर्ण लेखकीय दायरे के साथ-साथ सामाजिक संरचना और प्रकाशन-व्यवस्था
में भी ढूंढ़े जाने चाहिए। इधर रचनाशील व्यक्तित्व
एक नैतिक आत्म-निर्वासन में शरण खोज रहे हैं और उधर खरीदी गई
पहचान हिंदी साहित्य में घुसपैठ कर रही है।
हिंदी साहित्य के समकालीन विमर्श पर फिलहाल एक ऐसा नया ताकत तंत्र प्रभावी और हावी
होने की कोशिश में लगा हुआ है जिसके पास पहले से अपनी एक तयशुदा पहचान है। हिंदी साहित्य इसके लिए करियर बनाने के बाद का बचा
हुआ काम है। यह काम तब और भी सरलता
और शीघ्रता से हो सकता है, जब करियर बन चुका हो और बचा हुआ काम कम और वक्त ज्यादा
हो, लेकिन हिंदी साहित्य अपने सीमित संसार में अपने सीमित
संसाधनों से अपनी तमाम भूमिगत और समाज से कटी लगने वाली कार्रवाइयों के बावजूद अब
भी एक पूरी पृथ्वी की तरह उपस्थित है। यकीनन यह पृथ्वी उस पृथ्वी से अलग नहीं है जहां हम रहते हैं,
इसलिए इस पृथ्वी (हिंदी साहित्य) के साथ आदिवासियों-सा बर्ताव हो रहा है। इसके जल (करुणा), जंगल (संघर्ष), जमीन (परंपरा) पर
घुसपैठियों और बाजार की नजर है। वे इसकी शर्तें और कायदे
बदलना चाहते हैं। इसे जनता से जोड़ने, इसकी पहुंच बढ़ाने के नाम पर इसका
संघर्ष और प्रकृति नष्ट करना चाहते हैं। वे इसे विकृत
कर विकसित करना चाहते हैं। इसमें अब भी संजय चतुर्वेदी जैसी ईमानदारियां बची हुई हैं
जिन्हें बर्दाश्त करना मुश्किल होता है। इसमें अब तक
अपनी शर्तों पर जीने और मरने की संभावनाएं बची हुई हैं। इसके अपने अंधविश्वास, पूर्वाग्रह और देवता हैं। इसके पास अपने खजाने और संसाधन हैं जिन्हें ये नए घुसपैठिए लूटना और बर्बाद करना चाहते
हैं— बाजार के लिए। वे घुसे चले
आ रहे हैं कहीं से भी अपने लकदक कपड़ों, चमकदार चेहरों, महंगी गाड़ियों और
अंगरक्षकों के साथ। वे हिंदी में प्रवेश, प्रकाशन और प्रसिद्धि को आसान बनाना
चाहते हैं, लेकिन इसकी पक्षधरता, इसकी वास्तविक अभिव्यक्ति और शक्ति को बदलकर। संजय चतुर्वेदी की कविता-सृष्टि यहां एक पाठ की तरह
प्रयुक्त हो सकती है :
जूतों की
अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी के आयोजकों से
क्या रिश्ता
हो सकता है एक मोची का
एक कवि का
क्या रिश्ता हो सकता है
पुस्तक मेलों
से
[ जनगणित ]
हिंदी साहित्य की वह भाषा जो इन दिनों उचक्कों और लफंगों के
निशाने पर है, वह बहुत उल्लेखनीय और अभूतपूर्व संघर्षों के बाद यहां तक पहुंची है। इसके लिए इसके पूर्वजों ने बहुत यातनाएं सही हैं। क्या इस पृथ्वी में प्रवेश के लिए कम से कम इतनी योग्यता
भी नहीं होनी चाहिए कि इन संघर्षों की ठीक-ठाक समझ हो? क्या इसके बगैर इस भाषा में
चला आया लेखक अपनी वास्तविक भूमिका और जिम्मेदारी समझ सकता है? क्या इसके बगैर
उसमें इतनी अक्ल होगी कि वह इस भाषा के शत्रुओं, आक्रमणकारियों और घुसपैठियों को
पहचान सके?
नई किताबें नया आदमी बना सकें तो ठीक बात है
नया आदमी अधिक सभ्य हो ये थोड़ी बारीक बात है
नई किताबें मेहनत करके नए रास्तों को पहचानें
और उन्हें धनवान बनाएं स्मृतियों में गड़ी किताबें
न हों ज्ञान से बड़ी किताबें
[ पुस्तक मेले ]
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‘मुझसे भागते क्यों हो, सुकोमल काल्पनिक तल पर, नहीं है द्वंद्व का उत्तर। तुम्हारी स्वप्न-वीथी
कर सकेगी क्या। बिना संहार के सर्जन असंभव है। समन्वय झूठ है। सब सूर्य फूटेंगे व
उनके केंद्र टूटेंगे। उड़ेंगे— खंड,
बिखरेंगे गहन ब्रह्मांड में सर्वत्र, उनके नाश में तुम योग दो !!’ (मुक्तिबोध / अंत:करण
का आयतन) बीते वक्तों के दरवेश कवियों की जमीन और आवाज रखने वाले संजय चतुर्वेदी ने बेशुमार
केंद्रीय बौद्धिक घपलों के शोर वाले एक समकालीन दृश्य में कई बेदर्ज और अनसुनी आवाजों
को अपने कविता-संसार में गूंजने की जगह दी है। असहमति के संक्षिप्त आयतन के बावस्फ
यह जगह एक समुद्र सरीखी लगती है— एक अकेले समुद्र सरीखी। दृश्य में पतनशीलता के पनाले सारे
रास्तों पर इस कदर नजर आते हैं कि आत्मीयता के लिए पहाड़ों, जंगलों और रेगिस्तानों
से होते हुए समुद्र की ओर जाने को मन करता है, लेकिन मानसून का समुद्र बहुत आत्मीय नहीं होता है। वह इस कदर उफान पर होता है कि दृश्य में मौजूद खबरें,
कार्यसूचियां और मौसम विभाग मछुआरों को चेतावनी देता है— समुद्र के निकट न जाने की। लेकिन वे जाते हैं— कई फिट ऊपर उठती समुद्री लहरों से खेल जाने का मन बनाकर। अगले रोज उनके आभ्यंतर का कोई
विमर्श उपलब्ध नहीं होता। दृश्य में मौजूद खबरें, कार्यसूचियां और मौसम विभाग सिर्फ इतना बताते हैं कि जाल
लेकर निकले कई मछुआरे लापता हैं...।
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प्रस्तुत आलेख की रचना के दरमियान मुक्तिबोध की कविता ‘अंत:करण का आयतन’ के अतिरिक्त
इन चार उद्धरणों से बहुत मदद मिली :
‘‘क्या सोवै गफलत के मारे, जागु जागु उठि जागु रे।
और तेरे कोइ काम न आवै, गुरु चरनन उठि लागु रे।।
उत्तम चोला बना अमोला, लगत दाग पर दाग रे।
दुइ दिन का गुजरान जगत में, जरत मोह की आग रे।।
तन सराय में जीव मुसाफिर, करता बहुत दिमाग रे।
रैन बसेरा करि ले डेरा, चलन सबेरा ताक रे।।
ये संसार विषय रस माते, देखो समुझि विचार रे।
मन भंवरा तजि बिष के बन को, चलु बेगम के बाग रे।।
केंचुलि करम लगाइ चित्त में, हुआ मनुष ते नाग रे।
पैठा नाहिं समुझ सुख सागर, बिना प्रेम बैराग रे।।
साहिब भजै सो हंस कहावै, कामी क्रोधी काग रे।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, प्रगटे पूरन भाग रे।।’’
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‘‘...कहने की शैली हमारी जो भी हो, बहुत गंभीर अर्थ में
किसी कृतिकार या युग को ‘समझना’ उसकी वंदना करने से ज्यादा बड़ा काम है और सचमुच
बड़ा लेखक, अगर उसमें कुछ भी दम है तो अभिनंदित होने से अधिक ‘समझा जाना’ पसंद
करेगा। अभिनंदन की प्यास दिमागी दुकड़ेपन की द्योतक है। कहने की जरूरत नहीं कि
‘समझने’ की एक (एकमात्र नहीं) अनिवार्य प्रक्रिया सीमारेखा का निर्धारण है।’’
— विजयदेव नारायण साही
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‘‘I am not an artiste, nor am I a cinema
artiste. cinema is no art form to me. It is only a means to the end of serving
my people. I am not a sociologist, and hence, I do not harbor illusions that my
cinema can change the people. No one film-maker can change the people. The
people are too great. They are changing themselves. I am not changing things, I
am only recording the great changes that are taking place. Cinema for me is
nothing but an expression. It is a means of expressing my anger at the sorrows
and sufferings of my people. Tomorrow, beyond cinema, man's intellect may
probably rear something else that may express the joys, sorrows, aspirations,
dreams and ideals of the people with a force and immediacy stronger than that
of the cinema. That would then become the ideal medium.’’
— Ritwik Ghatak
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‘‘When you start to write everybody is wishing you luck,
but when you’re going good, they try to kill you.’’
— Ernest Hemingway
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संदर्भ :
प्रस्तुत आलेख में आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित संजय चतुर्वेदी के अब तक
मान्य एक और एकमात्र कविता-संग्रह ‘प्रकाशवर्ष’ (1993) के साथ-साथ गए तेईस वर्षों में पहल, हंस, कथादेश,
पल-प्रतिपल, वर्तमान साहित्य, वसुधा, नया ज्ञानोदय, इंद्रप्रस्थ भारती, उद्भावना,
वागर्थ, साक्षात्कार, विपाशा, अंतर्दृष्टि, आजकल, कल के लिए, बहुमत, उर्वर प्रदेश, दिनमान, साप्ताहिक हिंदुस्तान, इंडिया
टुडे साहित्य वार्षिकी, स्वाधीनता साहित्य वार्षिकी, समय चेतना, दूसरा शनिवार,
चौथी दुनिया, जनसत्ता, लोकमत समाचार, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स जैसे
पत्र-पत्रिकाओं के विभिन्न अंकों में समय-समय पर प्रकाशित उनकी कविताओं,
टिप्पणियों, वक्तव्यों और साक्षात्कारों से भरपूर मदद ली गई है। कविता-कोश, हिंदी समय और कबाड़खाना जैसे वेब-लिंक्स भी संजय चतुर्वेदी की कविताओं तक पहुंचने में खासे मददगार रहे। उदय प्रकाश को कैसे उद्धृत किया गया यह जानने के लिए उनके साक्षात्कारों के
संग्रह ‘अपनी उनकी बात’ के 118वें पृष्ठ को खोला जा सकता है।
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‘पहल’ के 104 वें अंक में शाया
यह लेख पहल में देखा है .संजय की कविताओं पर बेहतर आकलन है .वे कवियों की भींड़ में अलग दिखनेवाले कवि है .तंज उनकी कविताओं का मुख्य भाव है .उन्हे पढ़ते हुये परसाई जी की याद आती है .अबिनाश हिंदी आलोचना में सार्थक हस्ताक्षेप कर रहे है .पहल में उनकी सिरीज गवाह है ,,
ReplyDeleteलौटकर पढ़ूंगा. यहां इसे डालने का शुक्रिया.
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