मेरे
अजीज उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद अपनी डायरी में फरमाते हैं : मंच पर
बैठे हुए वक्ता मुझे बूढ़ी वेश्याओं से दिखाई देते हैं— खासतौर
पर चौकड़ी
मारकर बैठे हुए वक्ता। उनके चेहरों पर चुपड़ी हुई याचना होती है, मुस्कुराहटों
में नहाई हुई, नंगी— हमें
सुनो, हमें
सराहो, हम से
रश्क करो!
मुझे भी गए वक्त तक कुछ यूं ही लगता रहा, लेकिन अब यूं नहीं लगता। मैं
अब महानता महसूस करने लगा हूं— यह इलहाम मुझे कल यानी 5
अप्रैल 2016 की शाम हुआ। मौका : 21वें देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह का। सम्मान : वैभव
सिंह। स्थान : साहित्य अकादेमी सभागार, नई दिल्ली। मंच पर : नामवर
सिंह, मृदुला
गर्ग, अशोक
वाजपेयी, पुरुषोत्तम
अग्रवाल। संचालन : रवींद्र त्रिपाठी।
इस आयोजन के
आमंत्रण-पत्र पर वक्ताओं में हरीश त्रिवेदी का भी नाम था, लेकिन वह आ नहीं पाए...
इसमें जरूर उनकी कोई महानता होगी। यह न आना संचालकीय स्वर से ज्ञात हुआ, वैसे ही जैसे देवीशंकर
अवस्थी सम्मान समारोह का इतिहास,
प्रासंगिकता और पारदर्शिता।
अशोक वाजपेयी
एक महान निर्णायक हैं, इसलिए उनकी इस बात को
स्वीकार कर लेना
चाहिए कि प्रत्येक वर्ष अकादमिक किस्म की बहुत सारी किताबें आती हैं, लेकिन देवीशंकर अवस्थी
सम्मान की नियमावली और आयु-सीमा के अंतर्गत जिन्हें प्रतिवर्ष चुना जा सके ऐसे
युवा आलोचक हिंदी में बहुत नहीं हैं। इससे पूर्व गए वर्ष वह यह भी बता चुके हैं कि
हिंदी में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार के लायक कविता किसी युवा कवि के पास नहीं है।
खैर, उन्होंने
यहां वैभव सिंह का प्रशस्ति-वाचन किया, लेकिन उससे पहले यह बताया कि वैभव कई बार से शार्टलिस्ट हो रहे थे।
लेकिन कभी किसी की उम्र निकली जा रही थी तो कभी कुछ और बहाना बनाकर वह वैभव को इस
सम्मान से दूर रख रहे थे, लेकिन
अंतत: यह उन तक पहुंच ही गया। निर्णायक : मैनेजर पांडेय, नंदकिशोर आचार्य, विजय कुमार, कमलेश अवस्थी और अशोक
वाजपेयी।
आज से तीन
वर्ष पहले प्रियम अंकित को यह सम्मान मिलने के मौके पर वैभव सिंह ने अपना
वक्तव्य देते हुए अपने और देवीशंकर अवस्थी के बीच बैसवाड़े का संबंध खोज निकाला था।
तब इसे एक पेशबंदी की तरह देखा गया था, लेकिन इसे लक्ष्य तक पहुंचने में उम्मीद से ज्यादा वक्त इसलिए लग
गया क्योंकि महान विनोद तिवारी की उम्र निकली जा रही थी। अगर वैभव को तब यह सम्मान
मिल जाता तब विनोद तिवारी को वह कैसे मिलता जो उनसे पहले महान पुरुषोत्तम अग्रवाल
और महान अपूर्वानंद और महान जितेंद्र श्रीवास्तव को मिल चुका है।
वैभव सिंह जरूर इन
वर्षों में वैसे ही छटपटाते रहे होंगे जैसे सलमान रश्दी गए कई वर्षों से नोबेल
पुरस्कारों की घोषणा पर। सलमान रश्दी वाली छटपटाहट की तस्दीक के लिए पद्मा लक्ष्मी के
संस्मरणों की किताब लव, लॉस एंड व्हाट वी एट पढ़ी जा
सकती है। वैभव वाली छटपटाहट अब नहीं है, इसलिए उसकी चर्चा फिजूल है। अगर महान है तो खुदा करे, यह साल वैभव की तरह सलमान
के लिए भी अच्छा हो।
अशोक वाजपेयी
जब वैभव सिंह की प्रशस्ति पढ़ रहे थे, तब मुझे विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविता आवेदन-पत्र याद आ रही थी : सम्मान
हर छोटे-बड़े गिना दें / पर कैसे — यह
अप्रासंगिक है...
इस अवसर पर वाणी प्रकाशन से चार खंडों में आने वाली देवीशंकर अवस्थी रचनावली का लोकार्पण भी होना था, लेकिन वह प्रकाशित होकर आ नहीं पाई... इसलिए संचालक को महान अरुण महेश्वरी के लाए ब्रोश्यर से काम चलाना पड़ा।
इस अवसर पर वाणी प्रकाशन से चार खंडों में आने वाली देवीशंकर अवस्थी रचनावली का लोकार्पण भी होना था, लेकिन वह प्रकाशित होकर आ नहीं पाई... इसलिए संचालक को महान अरुण महेश्वरी के लाए ब्रोश्यर से काम चलाना पड़ा।
प्रशस्ति के
पश्चात वैभव सिंह को स्मृति-चिन्ह और अन्य वस्तुओं से नवाजा गया। इस बीच महान
संचालक रवींद्र त्रिपाठी का इसरार इस पर था कि वैभव सिंह को सबसे पहले चैक दिया
जाए, नामवर
सिंह का इस पर कि वैभव सिंह सामने देखें और छायाकार का इस पर कि कमलेश अवस्थी भी
तस्वीर में आ जाएं... छायाकार के इसरार में अपना इसरार मिलाते हुए संचालक ने
पुरस्कार-समारोह को विवाह-समारोह में कुछ यूं बदला कि उसका लिखित प्रकटीकरण
अश्लीलता की सारी सीमाएं भी लांघ सकता है, इसलिए इसे रहने देते हैं।
अब बारी थी
वैभव सिंह के महान वक्तव्य की। इस महान आयोजन की महान परंपरा और प्रतिष्ठा के
अनुरूप वह वक्तव्य लिखकर लाए थे। वह लगभग 35 मिनट बोले। उन्होंने इस अवसर को अपने
लिए बहुत महत्वपूर्ण मानते हुए कहा कि आलोचना
को निष्पक्ष होना चाहिए। देवीशंकर अवस्थी ने निष्पक्ष आलोचना पर बहुत बल दिया है। वैभव ने
दिए गए विषय उपन्यास
का समकाल से कुछ
छूट ली और इसे आलोचना
और उपन्यास का समकाल बनाते
हुए अपना पेपर पढ़ा और कहा कि आलोचना
के लिए जगह घट रही है। एक विराट निगरानी-तंत्र पैदा किया जा रहा है जो हर तरह के
लोकतंत्र के लिए घातक है। स्वतंत्र-लेखन पर अधिनायकवादी दंड का भय हावी है। आज
सृजन और मुक्त बहसों की हमारी पारंपरिक संस्कृति को खत्म करने के प्रयास हो रहे
हैं। वैभव ये सब बोलते हुए बहुत
सुंदर लग रहे थे। आलोचना को जिम्मेदार होना होगा यह कहते हुए वह जब उपन्यास पर आए
तो बोले कि उपन्यास केवल मध्यवर्ग का
महाकाव्य नहीं है, वह
उत्पीड़ितों के महाकाव्य के रूप में भी पहचाने गए हैं। आधुनिकता का आगमन ही उपन्यास
का आगमन है।
वैभव के बाद
संचालक महोदय ने
पहले ही प्रस्तावित हो चुके विषय को नामालूम क्यों थोड़ा और प्रस्तावित किया और मंच
से इतर संजीव कुमार को आमंत्रित किया। संजीव भी बहुत सुंदर और महान हैं, उन्होंने 16 साल बाद अणिमा जून-1965
में प्रकाशित देवीशंकर अवस्थी के आलेख नई पीढ़ी
और उपन्यास से एक अंश पढ़ा। कहना न होगा
कि यह एक महान आलोचक द्वारा दूसरे महान आलोचक के एक महान आलेख का एक महान अंश था।
महान उपन्यास नाकोहस के
विचारक पुरुषोत्तम अग्रवाल जब उठे, तब उनका गला बैठा हुआ था। उन्होंने कहा कि समय बहुत हो चुका मैं बहुत
कम वक्त में अपनी बात रखने और समझाने की कोशिश करूंगा। उन्होंने गए दिनों की
मीडिया की खबरों का असर लेकर हिंसा की स्वाभाविकता के बढ़ने का जिक्र करते हुए
उपन्यास को दूसरी सारी साहित्य-विधाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण और अलग स्थान देते हुए
फ्रांसिस फूकोयामा और देरिदा और उम्बेर्तो ईको के उद्धरण में उलझते और उलझाते और
जल्दियाते हुए उसे आत्म की धारणा से जोड़ते हुए उसे आधुनिकता का एक लक्षण माना उसका
नियामक तत्व नहीं। इस चौड़े वाक्य के बाद यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए
कि पुरुषोत्तम अग्रवाल एक महान वक्ता हैं।
मृदुला गर्ग ने
आज के समकाल को असहिष्णु मानते हुए कहा कि हमारी संस्कृति में सहिष्णुता और
असहिष्णुता के बीच बड़ा घालमेल रहा है। मीडिया की खबरों का असर और डर उन पर काफी
नजर आया और वह एक राजनीतिज्ञ होने की इच्छाशक्ति से भरी महान महिला की भांति बोलती
हुई जान पड़ीं।
नामवर सिंह एक
महान आलोचक हैं, यह उनके
प्रशसंक ही नहीं, उनके
आलोचक भी मानते हैं। नामवर सिंह बहुत आदरणीय व्यक्ति हैं, उन्हें देखते ही उनके चरण
छूने की इच्छा होती है और पान खाने की भी और फिर थूकने की भी...। अतिकाल
हो गया है यह कहते हुए उन्होंने अपना
वक्तव्य देने से मना कर दिया, फिर भी
उन्होंने जो कुछ कहा उसमें वैभव सिंह के शिष्टाचारगर्भित, सारगर्भित, विचारगर्भित, पुरस्कारगर्भित, संसारगर्भित वक्तव्यनुमा
निबंध और निबंधनुमा वक्तव्य की सिंहवादी प्रशंसा और दिल के भरे और श्रोताओं के
अघाए और तृप्त होने का उल्लेख था। उन्होंने कहा कि अब एक बूंद भी डालने से छलक
जाएगा। मैं बस औपचारिकता के लिए ही मौजूद हूं।
इससे पहले कि
पीछे से बाकी महान लोग भी चले जाते महान अनुराग अवस्थी ने महान धन्यवाद ज्ञापन
किया।
मैंने बाहर
निकलकर एक महान आलोचक से कहा कि मुझे पान खाना है। उसने मुझे पान पकड़ाते हुए कहा :
प्रेक्षागृह
खचाखच भरा था
एक
जनसंख्या बहुल देश में
यह कोई
अनहोनी नहीं थी
ये ऋतुराज
की कविता-पंक्तियां थीं। मैंने
पान थूकते हुए कहा :
मरे हुए
लोग अभी तक यहां से गए नहीं हैं
जीवित लोग
उन्हें
उठाए फिर रहे हैं
ये भी
ऋतुराज की ही कविता-पंक्तियां थीं।