कवि-आलोचक-संस्कृतिकर्मी...
यह अशोक वाजपेयी का एक सामान्य-सा परिचय है।
अव्वल तो उन्हें किसी परिचय की दरकार नहीं है, वह अपना आप परिचय हैं। लेकिन फिर भी एक कला-कार्यकर्ता के उनके
व्यक्तित्व और योगदान को अब तक हिंदी में कवि-आलोचक-संस्कृतिकर्मी कहकर संक्षिप्त
किया जाता रहा है। इधर उन्हें कला-प्रशासक भी
कहा जाने लगा है और ‘हिंदी सेवी’ भी। यह अब बहुत
जाहिर है कि उन्होंने कई संस्थाओं के निर्माण और कार्यान्वयन की बहुत नवाचार से
भरी हुईं अनूठी शैलियां विकसित और संभव की हैं। उनकी उपस्थिति और
उपलब्धियां भारतीय साहित्य संसार में अब कुछ इस कदर व्याप्त हैं कि उन्हें चाहकर
भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
इस
संसार में — साहित्य और कलाओं के संसार में — एक
बहुत सक्रिय और संपन्न आयु जी चुके अशोक वाजपेयी के साक्षात्कारों की हिंदी में
कोई कमी नहीं है। वे पुस्तकों के रूप में,
संकलनों और पत्रिकाओं में हद से ज्यादा फैले हुए हैं।
बावजूद इसके उनसे बात करने की आकांक्षाएं बराबर बनी हुई हैं— तमाम असहमतियों के रहते। इस प्रकार के व्यक्तित्व हिंदी के सांस्कृतिक
इलाके में पहले भी कम ही थे, अब भी कम ही हैं और लगातार कम होते जा रहे हैं।
यहां प्रस्तुत साक्षात्कार (रिकॉर्डेड) गए
जून की दो दुपहरों में मुमकिन हुआ। एक दुपहर बहुत उमस से और दूसरी वर्षा की
संभावनाओं से भरी हुई थी। इस साक्षात्कार का शीर्षक ‘यह मैं पहले भी कई बार कह
चुका हूं’ न हो जाए, इसके लिए पर्याप्त तैयारी और सावधानी बरती गई है। उत्तर दे
रहे व्यक्तित्व के चेहरे के भाव यहां कोष्ठक में बंद नहीं किए गए हैं, इस उम्मीद
में कि उत्तर देते समय चेहरे पर चले आए दुःख और क्रोध को, चिंता और करुणा को,
हास्य और व्यंग्य को, अवसाद और असहायताबोध को, प्रायश्चित और जिद को, मुखरता और
मौन को पढ़ने वाले वैसे ही पहचान लेंगे, जैसे ‘लोगों के बीच से एक यात्रा’ करते हुए
स्वयं अशोक वाजपेयी ने अपनी एक शुरुआती कविता में पहचाना था।
अशोक
वाजपेयी के तमाम साक्षात्कारों के साथ-साथ उनके विपुल कविता-संसार और आलोचनात्मक
काम से इस साक्षात्कार की तैयारी के दौरान गुजरते हुए मैंने पाया कि एक अरसे से
मैं अशोक वाजपेयी की काव्य-भाषा और आलोचना में आए कुछ शब्दों और मुहावरों को
अनायास ही अपने कार्य-व्यवहार में बरतता आया हूं।
इस जगह आकर मैं यह सोचता हूं कि उनसे असहमति आयु के साथ-साथ बढ़ती-घटती रही है,
लेकिन उस असर का मैं क्या करूं जो कृतज्ञ होने का अवकाश दिए बगैर मुझे मांजता रहा
है। हिंदी की दुनिया में संभवत: बहुतों के ऐसे
अनुभव होंगे, उन्हें उजागर करना या न करना उनकी राजनीति का हिस्सा हो सकता है,
लेकिन इस तथ्य से भला कौन इंकार करेगा कि सहित्य की विभ्राट परंपराओं में कुछ बड़े
व्यक्तित्व यों भी निर्मित होते हैं— एक बहस के लिए दूर तक मजबूर करते और सवाल-जवाब
के लिए उकसाते हुए। यहां जो मैं कह रहा हूं,
उसे शायद पूरी तरह नहीं कह पा रहा हूं, कहने योग्य बहुत कुछ पंक्तियों के बीच भी
बस रहा है। पढ़ने वाले शायद उसे पढ़ पाएंगे और यह बात इस बातचीत में भी नजर आएगी।
[अ. मि.]
‘अब उम्मीद असंभव लगती है’
आपने अब तक कई साक्षात्कार दिए और लिए हैं,
आपका सबसे मुश्किल साक्षात्कार कौन-सा रहा है?
मुझे याद आता है कि मैंने पोलिश कवि चेस्वाव मिवोश का एक
साक्षात्कार लिया था। मैंने सारे प्रश्न उन्हें साक्षात्कार से पहले भेज दिए थे, क्योंकि वह ऐसा चाहते थे। उन्होंने जो
समय तय किया था, उसमें वह बहुत तैयारी से बैठे थे। लेकिन साक्षात्कार के
दरमियान उन्होंने बहुत सारे प्रश्नों के लगभग उत्तर ही नहीं दिए, या ऐसे उत्तर दिए जिनका पूछे गए प्रश्नों से कोई विशेष
संबंध नहीं था। नब्बे वर्ष से ऊपर की उनकी आयु थी...
आपकी क्या आयु थी तब? यह कितने वर्ष
पहले की बात है?
यह आज से करीब दस बरस पहले की बात
है। मैंने उनके कई साक्षात्कार और कविताएं पढ़कर कुछ प्रश्न तैयार किए थे, लेकिन वह
उस रोज अपनी रौ में थे। मैं उनकी कविताओं का हिंदी में अनुवाद कर रहा था। यह
साक्षात्कार उनकी हिंदी में अनुवादित कविताओं की किताब में ही जाना था, लेकिन बात
बनी नहीं। मैंने यह साक्षात्कार लिखकर उन्हें ई-मेल कर दिया था। इसके कुछ दिनों
बाद खबर मिली कि उनकी मृत्यु हो गई। यह उनका अंतिम साक्षात्कार था। मुझे लगा कि
इसे बचाना चाहिए। यह साक्षात्कार अंततः अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ। यही एक मुश्किल
साक्षात्कार था।
आपसे यह साक्षात्कार ‘पहल’ के लिए है। ‘पहल’ बंद होने पर आपने ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित
अपने स्तंभ ‘कभी-कभार’ में ‘पहल’ के महत्व को यह कहते हुए रेखांकित किया था कि आप
कभी ‘पहल’ के लेखक नहीं रहे। इस संबंध को आप
आज कैसे देखते हैं?
देखिए, जब ‘पहल’ निकली तब स्थिति यह
थी कि ‘पूर्वग्रह’ पर तीन तरफ से हमले हो रहे थे। ‘पूर्वग्रह’ के विरुद्ध एक पूरा
अभियान ‘धर्मयुग’ में धर्मवीर भारती और शरद जोशी ने चलाया हुआ था। अज्ञेय भी, जो
हमसे रूठे हुए थे, ‘नया प्रतीक’ में ‘पूर्वग्रह’ पर प्रहार कर रहे थे और तीसरे
ज्ञानरंजन जो वैचारिक वजहों से ‘पूर्वग्रह’ के खिलाफ थे। लेकिन अपने तथाकथित
वैचारिक विरोधियों को लेकर मेरे मन में कभी कोई शत्रुता का भाव नहीं जागा। मेरे
भीतर इस बात का बहुत नैतिक संतोष है कि मैंने सदा अपने वैचारिक विरोधियों की जहां
तक संभव हो मदद करने में कभी कोई कोताही नहीं की। जब ‘पहल’ निकली तब मैंने सोचा कि
ये पत्रिकाएं चलेंगी कैसे? थोड़े दिनों बाद इस तरह की कई पत्रिकाएं बंद भी होना
शुरू हो गईं। हमारे मित्र सोमदत्त जो ‘साक्षात्कार’ के संपादक और मध्य प्रदेश
साहित्य परिषद् के सचिव थे, मैंने उनसे कहा कि एक योजना बनाइए जिसमें कुछ लघु
पत्रिकाओं को लेखकों को पारिश्रमिक देने के लिए हम अनुदान दे सकें। यह अनुदान सबसे
पहले जिन पत्रिकाओं को मिला, उनमें ‘पहल’ थी। लेकिन ‘पहल’ का मेरे बारे में जो रुख
था, वह था। दरअसल, वामपंथियों की यह पुरानी विशेषता रही है कि वे जिस मंच पर होते
हैं, उस पर अपना पूरा वर्चस्व चाहते हैं। दूसरे भी हैं और उन्हें भी अपनी बात कहने
का हक है, यह मानने में उन्हें थोड़ा संकोच होता है। ‘पूर्वग्रह’ हो या भारत भवन,
हमने सब तरह की दृष्टियों का स्वागत किया, सिवाय बहुत संकीर्ण और सांप्रदायिक दृष्टि
रखने वाले व्यक्तियों के। इसे लेकर तमाम आपत्तियां भी थीं। आपत्तियां इस प्रकार की
कि इसमें जनतंत्र नहीं है। जनतंत्र से आशय यह कि यहां वामपंथियों का बहुमत नहीं है।
लेकिन मुझे लगता है कि जनतंत्र एक दृष्टि से तो संभव नहीं है। आज एक दृष्टि का
जनतंत्र बनाने की जो कोशिशें हो रही हैं, उसका हम सब विरोध आखिर क्यों कर रहे हैं,
इसलिए ही तो कि जनतंत्र का वास्तविक अर्थ और रूप बचा रह सके।
इस सबके दूसरी तरफ यह भी सच था कि
ज्ञानरंजन बहुत मेहनत करके ‘पहल’ निकालते और उसकी सामग्री जुटाते थे। इसका आदर
मेरे मन में हमेशा बना रहा। बहुत सारी असहमतियों और विवादों के बीच भी मुझे इसे
लेकर कहीं कोई संदेह नहीं है कि जैसे अपने पूर्वग्रहों के साथ ‘पूर्वग्रह’ एक
महत्वपूर्ण पत्रिका थी, वैसे ही ‘पहल’ भी अपने पूर्वग्रहों के साथ एक महत्वपूर्ण
पत्रिका थी। ‘पहल’ का दृश्य पर होना बहुत बेहतर और विचारोत्तेजक रहा है और इसलिए
मैं हमेशा ‘पहल’ का प्रशंसक रहा हूं, भले ही कभी उसका लेखक नहीं रहा।
आपके कई रूप हैं और आपके कई साक्षात्कार पढ़ने के बाद मैंने
यह गौर किया कि आपके किसी भी रूप पर बात की जाए, बात एक आरोप की शक्ल ले लेती है
और बाद इसके आपकी बात का एक बहुत बड़ा हिस्सा सफाई देने में चला जाता है। मैं चाहता हूं कि इस प्रकार की सफाइयों से प्रस्तुत
साक्षात्कार बिल्कुल मुक्त रहे। क्या इसके लिए
आप मुझे कोई सुझाव देना चाहेंगे?
देखिए, मैं बहुत लक्षित व्यक्ति और
अलक्षित कवि हूं। मेरे विचार पर ज्यादा बात की जाती है, मेरी कविता से उसे जोड़कर
कम देखा जाता है और मेरी अब इसमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है। एक जमाना था जब मैं
सुबह से शाम तक सिर्फ सफाई ही देता रहता था। मैंने मध्य प्रदेश सरकार में रहते और अपने
निर्णयों का बचाव करते हुए करीब तीन हजार नोट-शीट्स लिखी होंगी। मेरी बहुत सारी
शक्ति, बहुत सारा श्रम सफाई देने में गुजरा है। जबकि गलतियां कौन नहीं करता, मैंने
भी की ही होंगी। लेकिन मैंने ऐसी कोई गलती सार्वजनिक क्षेत्र में कभी नहीं की
जिससे दूसरों का अहित हुआ हो या जिसे पतन या नैतिक चूक कहा जा सके। हां, कई बार
रुचि का फेर जरूर हो जाता है।
कृष्ण बलदेव वैद ने अपनी डायरी में एक जगह आपका जिक्र लाते
हुए कहा है कि आप जिस दौड़-भाग — अफसराना मसरूफियत, सामाजिक और
साहित्यिक सरगर्मियों और स्वभावगत उलझनों — के बीचों-बीच इतने किस्म के काम कर लेते हैं कि आपसे
ईर्ष्या होती है। इस बयान की रोशनी में मैं
आपसे यह पूछना चाहता हूं कि आप ईर्ष्या की वजह इस परिदृश्य को कैसे दे पाते हैं?
अव्वल तो मुझे इसका कोई खास इल्म
नहीं है। मुझे नहीं मालूम कि लोग मुझसे ईर्ष्या करते हैं, लेकिन आप कह रहे
हैं तो मान लेते हैं कि करते होंगे। शायद इसलिए करते
होंगे कि उन्हें मेरी सक्रियता रास नहीं आती होगी। जबकि सच यह है कि हिंदी के
अधिकांश लेखकों-पाठकों को मेरी दूसरी सक्रियताओं के बारे में न तो कुछ पता है और न
ही पता करने में उनकी कोई दिलचस्पी है।
ऐसा क्यों लगता है आपको?
मसलन शास्त्रीय संगीत की जो दुनिया
है, नृत्य और ललित कलाओं की जो दुनिया है... उसमें मेरी काफी पैठ और पूछ-परख है। भक्तिकाल
के कवियों को छोड़ दें तो छायावाद के कवियों से लेकर आधुनिक हिंदी के कवियों-लेखकों
तक इस दुनिया में इतनी घुसपैठ कोई नहीं कर पाया, जितनी मैंने की। यह भी ध्यान
दीजिए कि यह घुसपैठ केवल आयोजनों के स्तर तक नहीं है, बल्कि समझ के स्तर पर भी है।
जबकि मुझे संगीत की तकनीक की कोई खास समझ नहीं रही, ड्राइंग में मैं बहुत खराब
रहा, नाचना मुझे आया नहीं... लेकिन सतत आस्वाद से मैंने इन सबमें अपनी समझ विकसित
की और इससे मुझे एक बड़ा लाभ यह हुआ कि साहित्य की जो एक टुच्ची दुनिया है, उससे
मैं बच पाया। हालांकि ऐसा नहीं है कि बाकी कलाओं में ऐसी दुनियाएं नहीं हैं, लेकिन
कम से कम मुझे वहां उसका हिस्सा नहीं बनना पड़ा। यह सब तब है, जब मैं बहुत सारे
कलाकारों का विश्वासपात्र भी रहा हूं।
आत्मकथा लिखेंगे आप?
इसका दबाव तो बहुत है मुझ पर। कई
प्रकाशक पीछे पड़े हुए हैं, लेकिन अभी तक मैंने ऐसा सोचा नहीं है। यह सोचना कि मेरे
जीवन के बारे में दूसरों को जानना चाहिए, इसमें थोड़ा अहंकार है। दूसरी तरफ यह भी है
कि पिछले पचास बरसों में भारत और भारत से बाहर मैं इतने ज्यादा महत्वपूर्ण और
मूर्द्धन्य महानुभावों के संपर्क में और उनमें से बहुतों के इतना करीब रहा हूं कि
इस वृतांत को न लिखना भी उचित न होगा। लेकिन अभी मुझे इस लिखत का कोई रूपाकार
स्पष्ट नहीं है। एक जमाने में जब मैं साठ का होने जा रहा था, तब जरूर मैंने ‘साठ
पर साठ’ शीर्षक से एक आत्मकथात्मक पुस्तक लिखने की सोची थी। पर वह काम हो नहीं
पाया।
आपको ईर्ष्या है?
मैंने इसकी कभी कोई विशेष फिक्र
नहीं की। मेरे पास ईर्ष्या करने के लिए समय नहीं
है। अगर आप कुछ और न कर रहे हों, तब जरूर ईर्ष्या करते रह सकते हैं।
आपको शिकायत है?
देखा जाए तो नहीं है। पहले होती थी।
अब मैं सोचता हूं कि शिकायत करने से होगा क्या? आखिर हमारे समय के बहुत बड़े
लेखकों-कलाकारों का आप उदाहरण लें : मुक्तिबोध, शमशेर, रज़ा, कुमार गंधर्व,
मल्लिकार्जुन मंसूर, स्वामीनाथन... इनमें से किसी को शिकायत नहीं थी।
आपको अफसोस है?
अफसोस तो बहुत हैं। मैंने जितना
किया वह मेरे लक्ष्य के आधे से भी कम है— लगभग हर क्षेत्र में। एक अफसोस तो सबसे व्यापक यह भी है कि
हिंदी समाज में साहित्य और कलाओं के प्रति जो रुचि और लगाव पैदा करने का अभियान
मैंने शुरू किया, वह पूरी तरह विफल हो गया। जब-तब उसका थोड़ा-बहुत असर पड़ता रहा,
लेकिन इस समय का हिंदी समाज सर्वाधिक धर्मांध, सांप्रदायिक, घृणाप्रेरित और हिंसक
समाज बन चुका है। इसमें लेखकों-कलाकारों की कोई अहमियत नहीं। शास्त्रीय संगीत के
वे सारे घराने जो ज्यादातर उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों में थे, अब वहां से उजड़
चुके हैं। अफसोस यही है कि मैं अकेला पड़ गया और मैं अकेले क्या-क्या कर सकता था?
आपको शोक है?
शोक तो कई हैं। एक तो यही है
कि इस कथा-युग में एक भी कथा मैं नहीं लिख पाया।
आपको भय है?
भय तो कोई नहीं है, कुछ आशंकाएं
जरूर हैं कि जिस तरह की शक्तियां आज सत्तारूढ़ हैं, जैसी स्थितियां आज बन गई हैं
उनमें लिखने की आजादी और अवसर तेजी से घटेंगे। हम लोग अपने को भाग्यशाली मानेंगे
कि हमारा वक्त इस मायने में ठीक-ठाक गुजर गया।
आपातकाल तो आपने भी देखा है।
हां। वह बेहद बुरा था, लेकिन मैं एक
उदाहरण से समझाता हूं। मंगलेश डबराल उन दिनों ‘प्रतिपक्ष’ के संपादकीय विभाग में
कार्यरत थे। जॉर्ज फर्नांडिस और कमलेश ‘प्रतिपक्ष’ के संपादक थे
और गिरफ्तार हो चुके थे। ज्ञानरंजन ने मुझे फोन किया,
उन्हें आशंका थी कि मंगलेश पर भी कुछ आंच आ सकती है। मैंने मंगलेश को भोपाल ‘पूर्वग्रह’
में बुला लिया। तीन महीने वह मेरे पास रहे। मैं डिप्टी सेक्रेटरी था। मैं कहना यह
चाह रहा हूं कि अगर आज जैसी स्थितियां होतीं, तब वहां भी छापा पड़ सकता था। सबसे
अधिक गिरफ्तारियां उस दरमियान मध्य प्रदेश में ही हुईं— सोलह हजार। इनमें से एक भी लेखक नहीं था। वेणु गोपाल उन
दिनों भोपाल में ही थे। मैंने उनसे कहा कि आप लोग सरकार के खिलाफ इतनी आग उगलते
रहते हैं, लेकिन सरकार आपको खतरनाक नहीं मानती। दो-दो कौड़ी के पत्रकार जेल में बंद
हैं, लेकिन आप लोग आजाद घूम रहे हैं। इसलिए कह सकते हैं कि आपातकाल में भय तो था,
पर सामान्य जन-जीवन उससे अप्रभावित भी था और फिर वह डेढ़ वर्ष ही तो रहा। इसके
बावजूद लोकतंत्र का दबाव इतना था कि इंदिरा गांधी को चुनाव करवाना पड़ा और उसमें वह
पराजित भी हुईं। अब यह स्थिति नहीं है। अब एक अघोषित आपातकाल है। इसमें कब क्या हो
जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। सत्ता का भय आज सबसे ज्यादा है। एक सर्वथा अप्रत्याशित
का भय है, यह इससे पहले नहीं था। आपातकाल से बाद की सरकारों ने कई सबक भी सीखे। अब
संविधान को वैसे अतिक्रमित करने की जरूरत नहीं है, अब इसे रोज थोड़ा-थोड़ा खुरचकर
कमजोर किया जा सकता है।
आपको प्रेम है?
प्रेम तो मुझे अपार है— जीवन से, मित्रों से, पुस्तकों से, साहित्य से, कलाओं से
और कुछ स्त्रियों से भी। लेकिन प्रेम जो मुझे आज घटता दीखता है, वह भाषा और दृष्टि
से एक साहित्यकार का है। भाषा से प्रेम अब कम हुआ है। साहित्य हम भाषा से भाषा में
भाषा के लिए लिखते हैं, लेकिन भाषा के प्रति लापरवाही आज बहुत बढ़ गई है। इन दिनों
भाषा में तमाम तरह की अभद्रताएं और असावधानियां हो रही हैं।
‘प्रेम खो जाएगा’ शीर्षक से प्रकाशित आपकी एक कविता प्रेम
के खो जाने को उसकी नियति की तरह प्रस्तावित करती है।
क्या आप मानते हैं कि प्रेम खो चुका है? इस प्रसंग में आपकी एक कविता की पंक्तियां
‘प्रेम आसान नहीं है/ फिर भी वही एक उम्मीद है’ भी याद आती हैं।
मेरा मानना है कि कुछ चीजों की
अनिवार्य नियति है... वे समाप्त हो जाएंगी। जैसे जीवन की भी यह अनिवार्य नियति है
कि वह खत्म हो जाएगा। लेकिन इस डर से आप जीना तो नहीं छोड़ देते। प्रेम के साथ भी
यही है। वह क्षीण पड़ जाएगा, बदल जाएगा, खो जाएगा, खत्म हो जाएगा... इस डर से प्रेम
करना बंद नहीं करना चाहिए। इसकी एक जुगत यह भी है कि अपने प्रेम को किसी एक चीज पर
ही एकाग्र न किया जाए।
एक साक्षात्कार में आपने स्वयं को बहुत निर्लज्ज प्रेम-कवि
कहा है? क्या आप बता सकते हैं कि हिंदी में प्रेम-कविता लिखने को निर्लज्जता समझने
की शुरुआत कबसे हुई?
अगर आप हिंदी कविता के साठ के दशक
को थोड़ा ध्यान से देखें, जिसमें एक तरह से मैंने काव्य-प्रवेश किया, उसमें
सामाजिकता का बड़ा आतंक था। यह सामाजिकता पहले की सामाजिकता की तुलना में बहुत अलग
थी और इसका जोर इतना ज्यादा था कि उसमें निजता का कोई पक्ष ही नहीं था। मैं इससे
बहुत त्रस्त हुआ कि यह क्या बात हुई? दो चीजें एक साथ ही होती हैं। एक सामाजिक,
राजनीतिक, आर्थिक संसार हैं जिसमें बहुत सारे घपले, घमासान, विडंबनाएं जारी रहती
हैं... दूसरी तरफ एक सामान्य जीवन का संसार है जिसमें आसक्ति, अभाव, कोमलता,
लालित्य और ललक है। ये दोनों संसार साथ चलते हैं। कविता अगर एक को भूलकर दूसरे का
वरण करे तो यह मानवीय सच्चाई को सरलीकृत करना है, क्योंकि मानवीय सच्चाई इन दोनों
संसारों को मिलाने से ही बनती है।
हिंदी के सामूहिक विवेक पर आपको कितना यकीन है, क्या अब तक
उसने आपकी उस कविता-सृष्टि के साथ न्याय किया है जिसमें ‘कहीं और’ के प्रति आग्रह
और उपस्थित के प्रति अस्वीकार बहुधा झलकता है?
देखिए, अंततः तो विवेक स्थिर नहीं होता है। विवेक कई चीजों को कभी स्वीकार करता है, कभी नहीं भी करता
है। कई चीजों को वह एकदम से स्वीकार कर लेता है, कई चीजों को वह धीरे-धीरे स्वीकार
करता है। कई व्यक्तियों का यह सौभाग्य होता है कि समकालीन विवेक उन्हें स्वीकार कर
लेता है, कई व्यक्तियों का यह दुर्भाग्य होता है कि समकालीन विवेक उन्हें स्वीकार
नहीं कर पाता है।
आपकी कविताओं की पहली किताब प्रकाशित हुए पचास बरस से ऊपर
हो गए हैं, क्या आपको लगता है कि ‘शहर अब भी संभावना है’?
अब मैं इसे इस तरह कहना चाहूंगा कि
अब उम्मीद असंभव लगती है। लेकिन इसलिए ही क्योंकि वह असंभव लगती है, उसे कविता में
करते रहना जरूरी है। यह कुछ-कुछ ऐसा ही है कि सच है हमारी आवाज कोई नहीं सुनता,
लेकिन इसलिए हम अपनी आवाज उठाने से चूक तो नहीं सकते। मैं यह मानता रहा हूं कि कविता
तो प्रथमतः और अंततः उम्मीद की ही विधा है। वह संभावना और स्वप्न की विधा है। वह
कल्पना और विकल्प की विधा है। इसलिए उसे कभी पूरी तरह से नष्ट नहीं किया जा सकता।
आपमें ऊब है?
बहुत है। कुछ चीजों से मुझे
बहुत ऊब होती है। अब लगभग सभी राजनेताओं से मुझे बहुत ऊब होती है। कोई भी राजनेता
मुझे अब सुनने के काबिल नहीं लगता। मुझे टेलीविजन से भी बहुत ऊब होती है। वह
चार-पांच साल हो गए मेरे घर में लगभग बंद है। हिंदी की साठ प्रतिशत पत्रिकाओं से
भी मुझे बहुत ऊब होती है। वे कूड़ा हैं, लेकिन बहुत मनोयोग से निकलती हैं। वे बहुत
मूर्खतापूर्ण ढंग से संपादित होती हैं और उससे भी ज्यादा मूर्खतापूर्ण ढंग से भेजी
जाती हैं। मुझे इससे भी बहुत ऊब होती है कि हिंदी में कभी कोई बहस हुई मानी ही
नहीं जाती है। हम घूम-फिरकर उन्हीं चीजों पर, उन्हीं अवधारणाओं के साथ, वैसी ही
शब्दावली में बार-बार बहस करने लगते हैं, जिन पर पहले भी कई बार बहस कर चुके हैं। बौद्धिक
रिगर के अभाव से भी मुझे बहुत ऊब होती है, जैसा कि एक जमाने में मुझे कलावादी मान लिया
गया। इसके पीछे क्या अवधारणा थी, क्या साक्ष्य थे... आज तक इस पर कोई बात नहीं
हुई। क्योंकि मुझे शत्रु मानना था तो मैं कलावादी हो गया। अब जब पिछले दस-बारह साल
में जो कुछ हुआ, उसका प्रतिरोध करने की बारी आई तब वे कलावादी ही सबसे आगे थे
जिन्हें समाजविरोधी और राजनीति में दिलचस्पी न लेने वाला कहा गया। निंदा में मिलने
वाले रस से भी अब मुझे बहुत ऊब होती है और विचारों में बहुत कम दिलचस्पी और
अफवाहों में बहुत गहरी रुचि रखने वालों से भी।
आपमें तृष्णाएं हैं?
‘तृष्णा तू न गई मेरे मन से।’ लेकिन
मुझमें टुच्ची तृष्णाएं नहीं हैं। पुस्तकों की तृष्णा कम नहीं होती, लेकिन यह
तृष्णा नहीं होती कि उन्हें संभालने-रखने के लिए एक बहुत बड़ा घर हो जाए।
आपमें क्रोध है?
मेरे पिता में क्रोध बहुत था। हम
लोग उनसे बहुत बचते थे। कहा जाता था कि वह जिसे गाली दे दें, उसका काम होकर रहता
था। उनकी डांट के लोग बहुत आकांक्षी रहते थे। उनमें विट भी बहुत था। मैंने उनसे
बहुत कुछ सीखा है। मुझे भी आता है गुस्सा। कभी-कभी बहुत जोर से आता है। कभी-कभी
बहुत मामूली बातों पर भी आता है।
स्थायी गुस्सा है किसी बात को लेकर?
हां है कि इतनी कोशिशों के बावजूद
यह दुनिया सुंदर, न्यायसंगत और समतापूर्ण क्यों नहीं बन सकी। इसे लेकर मेरी कविता
में भी इधर काफी गुस्सा बढ़ा है।
आपमें ग्रंथियां हैं?
पता नहीं, लेकिन लोगों को लगता है
कि मुझे सत्ता के निकट बने रहने का कॉम्प्लेक्स है। अव्वल तो मैंने इसके लिए कोई
प्रयत्न नहीं किए। एक परीक्षा दी और उसमें उत्तीर्ण हुआ। कोई चुनाव तो कभी लड़ा
नहीं। ‘बहुवचन’ के एक अंक में नामवर सिंह पर लिखते हुए मैंने सत्ता के प्रति उनकी
आसक्ति का जिक्र किया तो किसी ने कहा कि आप तो खुद सत्ता के निकट रहे हैं। लेकिन
मैं तो सत्ता का अधिकारी था और मैंने इसे कभी छुपाया तो नहीं। मैंने कभी किसी
राजनेता की सार्वजानिक प्रशंसा नहीं की। अर्जुन सिंह हमारे मुख्यमंत्री और
संस्कृति मंत्री थे, लेकिन मैं कार्यक्रमों में कभी उन्हें धन्यवाद तक नहीं देता
था। मैंने कभी किसी मंत्री को माला नहीं पहनाई। कभी अपने किसी कार्यक्रम में किसी
मंत्री को आमंत्रित नहीं किया। कभी किसी राजनेता के हाथों सम्मानित नहीं हुआ।
आपने शायद कभी किसी राजनेता या
मंत्री की किताब का लोकार्पण भी नहीं किया?
सवाल ही नहीं उठता।
आपके साक्षात्कारों में नामवर सिंह
को लेकर आपसे अक्सर प्रश्न पूछे जाते रहे हैं। प्रस्तुत साक्षात्कार भी इससे अछूता
नहीं है। क्या आपको लगता है कि हिंदी की स्मृति में नामवर सिंह की उन बेईमानियों
को जिनका जिक्र आप भी अक्सर करते रहे हैं, भुला दिया जाएगा और उनकी कुछेक पुस्तकों
और स्थापनाओं को हमेशा याद रखा जाएगा?
उनके पिछले जन्मदिन पर आखिरी बार मेरी
उनसे बात हुई थी। मैंने बधाई देने के लिए उन्हें फोन किया था। वह इंदिरा गांधी
राष्ट्रीय कला केंद्र में राजनाथ सिंह के हाथों सम्मानित होने के लिए जा रहे थे। बाकी
नामवर सिंह से अब मेरा कोई विशेष संपर्क रह नहीं गया है, क्योंकि धीरे-धीरे उनकी
जो गतिविधियां थीं, हरेक की प्रशंसा करने का जो उत्साह था... मुझे उससे बहुत अरुचि
हो गई। नामवर सिंह को एक आलोचक के रूप में निश्चय ही याद किया जाएगा। लेकिन यह भी
कहना ही होगा कि उन्होंने अपनी प्रतिभा और अपनी रुचि के साथ न्याय नहीं किया। वह
अपनी दृष्टि के बंदी होकर रह गए और बाद में उन्होंने अपनी इस दृष्टि के साथ भी
न्याय करना बंद कर दिया। इसलिए उन्होंने अपना यश बहुत गंवाया है। वह जो कर सकते थे
वह उन्होंने बहुत कम किया और जो उन्हें नहीं करना चाहिए था, वह उन्होंने बहुत
ज्यादा किया। लेकिन फिर भी हिंदी के पाठ्यक्रमों के पुनराविष्कार में उनकी भूमिका
रही है। हिंदी का अध्यापन एक नई ऊंचाई तक ले जाया जा सकता है, इसमें उनकी भूमिका
रही है। कुछ प्रतिभाशाली शिष्य भी उनके रहे हैं। समकालीन परिदृश्य में उनकी जो
संलग्नता रही है, वह भी उल्लेखनीय है। इसलिए उन्हें याद तो किया ही जाएगा, लेकिन
उनकी किस पुस्तक के लिए उन्हें याद किया जाएगा यह कहना मुश्किल है।
आपको उनकी कौन-सी पुस्तक सबसे
ज्यादा प्रिय है?
‘इतिहास और आलोचना’...
वह तो काफी पुरानी है।
हां। ‘वाद विवाद संवाद’ भी एक अच्छी
पुस्तक है। लेकिन जिस पुस्तक से उनकी कीर्ति बनी थी — ‘कविता के नए प्रतिमान’ — उसकी छवि अब धूमिल हो चुकी है, क्योंकि उसकी
सारी स्थापनाएं गड़बड़ा गईं और वह पुस्तक कहीं ले नहीं गई।
कृष्ण बलदेव वैद की डायरी में ही आए आपके एक और जिक्र के
बहाने से एक सवाल पूछूं तो आपको हमेशा एक से अधिक श्रोताओं की जरूरत क्यों रहती
है? लगता है कि आपको किसी और का इंतजार है या कहीं और जाने की बेसब्री है।
देखिए, मुझे यारबाशी बेहद पसंद है। चार-पांच
लोग हों तो बहस करने में आनंद आता है। दो ही लोग हों तो कुछ बातें कहने में असहजता
होती है। बाकी बेसब्र तो मैं हूं।
एकांत कम प्रिय है आपको?
नहीं, एकांतप्रिय भी मैं बहुत हूं। लेकिन
मैं एकांत और बेसब्री में तालमेल बैठाना जानता हूं।
क्या चीज आपको ज्यादा मिली है— यारबाशी या एकांत?
दोनों। कमोबेश।
मतलब आपने अपना एकांत हासिल कर
लिया?
हां, लेकिन मुझे ऐसा एकांत प्रिय
नहीं है जो दूसरों को अपवारित करके प्राप्त हुआ हो। ऐसा एकांत हो जिसमें यह
संभावना सदा बनी रहे कि जब मन हो तब यारबाशी की जा सके।
स्केच सौजन्य : रफीक शाह |
कलाओं और कलाकारों पर केंद्रित आपकी कविताओं की किताब ‘उजाला एक मंदिर बनाता है’ में आप कहते हैं कि कलाओं से आपको समय में समयातीत को देखने-पकड़ने और समय से बाहर जाकर समयातीत में विचरने का अवसर मिला। ‘समय से बाहर’ यह आपकी एक आलोचना-पुस्तक का शीर्षक भी है और एक कविता का भी जिसकी यह पंक्ति : ‘समय से बाहर कदम रखना भाषा से भी बाहर जाना है’ मेरे ध्यान में है। ‘समय से बाहर’ को क्या आप यहां कुछ मूर्त, कुछ स्पष्ट करना चाहेंगे?
देखिए, मनुष्यता का एक दुर्लभ पक्ष
यह भी है कि मनुष्य कई समयों में एक साथ रह सकता है— अपनी स्मृति और कल्पनाशीलता के साथ। यह विशेषता दूसरे प्राणियों में
सक्रिय नहीं है। जैसे इक्कीसवीं सदी के कुत्ते को यह याद नहीं आएगा कि सत्रहवीं
सदी में भी कुत्ते रहे होंगे, या ‘महाभारत’ के अंतिम आरोहण में युधिष्ठिर के साथ
एक कुत्ता ही बचा था। इस अर्थ में देखें तो हम याद कर सकते हैं, इसलिए हम बहुसमय
प्राणी हैं। बहुसमयता हमारी एक स्थायी विशेषता है। उसके प्रति हम कितना सजग हैं,
यह और बात है। ज्यादातर लोगों का काम अपने ही समय से चल जाता है। उन्हें कोई परवाह
बाकी समयों की नहीं होती, लेकिन मुझे कविता और कलाओं का एक मुख्य काम बहुसमयता को
व्यक्त करना भी लगता है। कविता में यह धीरे-धीरे बहुत कम होता गया है। कविता में
समकालीनता का वर्चस्व और आतंक इतना बढ़ता गया है कि उसमें बहुसमयता को व्यक्त करने
की गुंजाइश कम पड़ती गई है। नई कविता के दौर में भी जातीय स्मृति को आधुनिक बनाने
का काम कई महत्वपूर्ण कवि कर रहे थे, लेकिन इधर इस प्रकार के प्रयत्न बिल्कुल
नदारद हैं।
क्या वजह है इसकी?
इसकी एक वजह तो यह है कि हम जिस
हिंदी में लिख रहे हैं, उसमें अपनी भाषा की स्मृति की आवाजें बहुत कम हैं। संगीत
और नृत्य बगैर किसी विशेष यत्न के आपको दूसरे समयों में ले जाते हैं, क्योंकि वे
दूसरे समयों से ऐसे जुड़े होते हैं, जैसे वही समय उनका असली समय हो। हमारे साहित्य
में यह नहीं है और गद्य की इसमें बड़ी भूमिका है। गद्य में इस प्रकार की स्मृतियों
के लिए बहुत कम स्थान है— हमारे गद्य
में खासकर। लेकिन मुझे लगता है कि हम सिर्फ अपने समय में ही नहीं रह सकते। हमारी
एक स्वाभाविक और मानवीय आकांक्षा समय के पार जाने की भी है। हम भविष्यद्रष्टा होने
की कोशिश करते हैं। ‘यूटोपिया’ क्या है? वह या तो अतीत में होता है या भविष्य में
होता है। यूटोपिया कभी वर्तमान में नहीं होता। यूटोपिया को देखने की हमारी
स्वाभाविक आदत, हमारी स्वाभाविक विवशता, उससे हमारे स्वाभाविक रिश्ते को ही मैं
‘समय से बाहर’ कहकर व्यक्त करता हूं।
अगर इसे ‘समय से बाहर’ न कहकर कुछ
और कहना होता तब आप इसे क्या कहते?
देखिए, ‘समय से बाहर’ हम तब ही जा
सकते हैं जब हम समय में हों। अपने समय में धंसे बिना आप समयातीत
में नहीं पहुंच सकते। मैंने ऐसी बहुत सारी
कविताएं लिखी हैं जिनमें कोई सामाजिक संदर्भ नहीं है, उनमें आए सारे बिंब आदिम हैं— आकाश, घास, चट्टान, पत्थर, चांद,
तारे, ओस, फूल... इस तरह की कविताएं आज ही लिखी जा सकती थीं। मेरे मन में संस्कृत के प्रति अगाध आकर्षण है। संस्कृत एक
महान भाषा है। पोंगापंथियों और राजभाषा अधिकारियों ने उसे बहुत बर्बाद और भ्रष्ट
किया है। लेकिन संस्कृत में संक्षेप में कुछ कहने की अद्भुत परंपरा है। मैं अपना
अनुभव कहूं तो मैं अपनी एक कविता में ‘विपरीत रति’ नहीं कहना चाहता था। मैंने इसी
अर्थ में ‘मदनारूढ़’ शब्द का प्रयोग किया। यह शब्द आपको हिंदी कविता में शायद कहीं
और नहीं मिलेगा। मैं यहां यह कहना चाह रहा हूं कि संस्कृत में शब्द-निर्माण की
संभावना बहुत अधिक है।
गए पचास सालों में आप कई महत्वपूर्ण और सुरुचिपूर्ण
साहित्यिक आयोजनों के सूत्रधार रहे हैं। इधर
कुछ सालों से लिटरेचर फेस्टिवल्स किसी महामारी की तरह मुल्क में फैले हैं। आप भी अक्सर इस प्रकार के फेस्टिवल्स में नजर आते
रहते हैं। ‘उत्सव’ के इस नए उभार को आप कैसे
देखते हैं?
इसके दो-तीन पक्ष हैं। इस प्रकार के
फेस्टिवल्स ने साहित्य की परिभाषा को बहुत विस्तृत किया है। हम जिस अर्थ में
साहित्यिक आयोजन करते हैं, उस अर्थ में ये साहित्यिक आयोजन नहीं हैं। ये साहित्य
पर केंद्रित नहीं हैं। लेकिन इनकी एक खूबी यह है कि इन्होंने बहुत बड़ी संख्या में
लोगों में सुनने की रुचि और आदत डाली है। इनका दुर्गुण यह है कि इस तरह के सभी
फेस्टिवल्स अंग्रेजी से आक्रांत हैं। एक नया मध्यवर्ग जो भारत में पैदा हुआ है,
जिसके मन में अंग्रेजी का दर्जा बहुत ऊंचा है, वह इनमें नजर भी आता है। इससे
अंग्रेजी के प्रकाशकों को फायदा होता भी नजर आ रहा है। इन फेस्टिवल्स में मेरे
जाने की एक बुनियादी वजह यह सिद्ध करना है कि हिंदी में भी वे सारी खूबियां हैं जो
अंग्रेजी में हैं। यह जता देना है कि अंग्रेजी जानना कोई बड़ी भारी क्षमता नहीं है।
इस प्रकार के फेस्टिवल्स में तथाकथित लोकप्रियता के प्रति भी बहुत आकर्षण है। व्यावहारिक
दृष्टि से यह भले ही सही हो, लेकिन यह एक बुरी बात है। यह आकर्षण गंभीर सहित्य से
विरत करता है। हिंदी में अगर स्वतंत्र रूप से इस प्रकार के आयोजन हों और आयोजकों
के पास स्पष्ट बुद्धि और विजन हो तो यह होना हिंदी के हित में हो सकता है, इसलिए
मैं इस प्रकार के आयोजनों को पूरी तरह खारिज नहीं कर पा रहा हूं।
एक बातचीत और एक लेख में भी आप यह दर्ज करवाते हैं कि हिंदी
में मीडियाकर्स विचारधारा के माध्यम से वैधता और मान्यता की तलाश करते हैं? मैं
आपसे मीडियाकर्स के हित में यह जानना चाहता हूं कि विचारधारा के अलावा हिंदी में
और कौन-कौन से माध्यम हैं जिनके जरिए मीडियाकर्स वैधता और मान्यता प्राप्त कर सकते
हैं?
एक तो मीडियाक्रिटी को पोसने
और बढ़ाने वाली संस्थाएं अब लगभग सभी विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालयों को हिंदी के संदर्भ में मीडियाक्रिटी का स्वर्ग मानना चाहिए। इससे अधिक मीडियाकर्स ऐसे बड़े पदों पर,
अध्यापकीय पदों पर पहले कभी नहीं रहे। पूरे हिंदी अंचल में शायद सिर्फ
दो या तीन हिंदी विभाग हैं, जहां पहले की तुलना में काम करने वाले बचे हुए हैं। आज
हिंदी विभागों का मीडियाक्रिटी से अन्योन्याश्रित संबंध है। वह जमाना गया जब हिंदी विभागों से प्रतिभाशाली लोग निकलते
थे। दूसरा हिंदी की लगभग साठ प्रतिशत पत्रिकाएं भी मीडियाक्रिटी को बढ़ाने
में बड़ा योगदान देती हैं, इनमें से ज्यादातर विचारधारात्मक पत्रिकाएं हैं। तीसरा मीडिया जिसमें मीडियाक्रिटी के सिवाय
कभी कुछ और रहा ही नहीं। अव्वल तो मीडिया की साहित्य में
कोई दिलचस्पी नहीं, अगर है भी तो वह मीडियाकर्स के इर्द-गिर्द ही रहती है...
और...
और आलोचक। नित्यानंद तिवारी
उद्भ्रांत पर किताब संपादित कर देते हैं।
आपको क्या समीकरण नजर आता है इसमें?
देखिए, मीडियाक्रिटी का एक बड़ा
लक्षण यह होता है कि वह आपको घेरती है। वह आपकी नाक में दम कर देती है और
आपकी जिंदगी हराम कर देती है। लेकिन यह बिल्कुल एकतरफा भी नहीं है। हमारे यहां मीडियाकर्स को सहने और उन्हें लगभग पोसने वालों की एक बहुत बड़ी आबादी
है... नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पांडेय, नित्यानंद
तिवारी... ये सब बड़े प्रतिष्ठित लोग हैं, लेकिन इन सबने मीडियाक्रिटी को बहुत बढ़ावा दिया है।
परमानंद श्रीवास्तव का नाम छूट रहा
है।
हां। उनकी तो एक डायरी का लोकार्पण
करने का दुर्भाग्य से मुझे अयोध्या में मौका मिला। उस डायरी में मैंने देखा कि
उन्होंने कीर्ति चौधरी के निधन पर टिप्पणी की हुई थी, जबकि वह जीवित थीं। मैंने यह
बात वहां सार्वजानिक रूप से दर्ज भी करवाई। मेरे कहने का अर्थ यह है कि परमानंद
श्रीवास्तव इतने तुरंता आलोचक थे और उनकी साहित्य में इतनी विशाल रुचि थी कि संभवतः
असावधानीवश वह एकाध लेखक को मार भी देते थे। वह कोई डेढ़ सौ पृष्ठ की किताब रही होगी और उसमें लगभग दो हजार नाम रहे
होंगे... दो हजार जरा सोचिए तो...
इधर आप हिंदी के कई प्रगतिशील लेखकों से हिंदी के कई
प्रगतिशील और गैर-प्रगतिशील लेखकों की जीवनियां लिखवा रहे हैं। यह ख्याल आपको कैसे आया?
इसके पीछे बुनियादी बात यही है कि
कैसे समाज की दिलचस्पी उसके महत्वपूर्ण लेखकों-कलाकारों में पैदा की जाए।
सारे विरोध के बावजूद आप अपने विरोधियों का खास ख्याल रखते
हैं। इस लोकतांत्रिकता के सूत्र कहां हैं?
यहां यह मैं फिर दुहरा दूं कि मैं
अपने विरोधियों को अपना शत्रु नहीं मानता। लोकतांत्रिकता मुझमें इसलिए है क्योंकि
मैं सिर्फ हिंदी साहित्य के संसार में थोड़े ही रहता हूं। विश्व साहित्य का भी एक
संसार है और अगर साहित्य ही आपको बेहतर इंसान न बना पाए, तब फिर आखिर इसका औचित्य
ही क्या है।
क्या आप आत्मरत हैं?
बिल्कुल नहीं हूं, ऐसा तो नहीं कह
सकता। हर लेखक को थोड़ी आत्मरति तो चाहिए ही। लेखक बने रहने के लिए यह जरूरी है,
लेकिन बस इतनी ही... इससे ज्यादा नहीं। मैं अपनी बात करूं तो कह सकता हूं कि मैं
जिन परिस्थितियों में लेखक बना रहा, ज्यादातर लोगों को उन परिस्थितियों में लेखक
बने रहना जरूरी नहीं लगता। मैं पैंतीस बरस भारतीय प्राशासनिक सेवा में रहा और इन
पैंतीस बरसों में मैंने इस सरोकार से कभी अपने को दूर नहीं किया कि मेरा बुनियादी
सरोकार साहित्य ही है। यह धीमे-धीमे हुआ कि मेरे जीवन का साहित्य के सिवाय और कोई
अर्थ रह ही नहीं गया। जीवन तो भौतिक है... पैर सूज गए हैं... रात को नींद नहीं आती
है... यह सब ठीक है, लेकिन मेरे लिए जीवन तो वही है जो साहित्य से साहित्य में
मुझे मिला है। यह एक दूसरा जीवन है— भौतिक जीवन से
अलग। मैं इस जीवन को न तो कभी भूला और न ही इसके प्रति अपार कृतज्ञता मेरे मन में कभी
कम हुई। मैं जो भी हूं साहित्य की संतान हूं, अपने माता-पिता की संतान होने के
अलावा।
क्या आप आनंदवादी हैं?
आनंदवाद का तो एक पूरा दर्शन है। मैं
उस अर्थ में आनंदवादी नहीं हूं जिस अर्थ में जयशंकर प्रसाद थे, लेकिन आनंद में
मेरी दिलचस्पी है और मेरी उत्सवप्रियता को लेकर मेरा आखेट भी होता रहा है। मुझे
लगता है कि जीवन उत्सव मनाने के लिए ही है और साहित्य का काम भी जीवन का उत्सव
मनाना है।
कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने आपके कविता-संग्रह ‘दुख
चिट्ठीरसा है’ पर केंद्रित एक आलेख में कहा है कि आपकी स्थिति मौजूदा काव्य-दृश्य
में कुछ-कुछ सुमित्रानंदन पंत और अज्ञेय की-सी है, जिनकी काव्य-यात्रा के बाद के
दौर में बहुत कुछ ऐसा है, जिसे निशाना बनाकर उनकी कविता को निरस्त करने का उत्साह
अर्जित किया जा सकता है... आप इस सार से कहां तक सहमत हैं?
मेरा ख्याल है कि सुमित्रानंदन पंत
की इतनी सक्रियता नहीं थी, जितनी अज्ञेय की थी। इसलिए अज्ञेय का उदाहरण एक हद तक
ठीक है, लेकिन अज्ञेय की यह शिकायत थी कि उन पर जो भी आक्रमण किए गए, वे उनका
आलोचनात्मक ध्वंस नहीं करते थे। लांछन ही उन पर ज्यादा लगाए गए। लिखकर किसी ने कुछ
खास नहीं किया— अज्ञेयविरोधी योद्धाओं ने भी। जहां तक मेरा प्रश्न है मुझ
पर अफसर कवि होने का आरोप बरसों तक लगता रहा, बावजूद इसके कि ‘पूर्वग्रह’ में मेरी
किसी पुस्तक की कभी कोई समीक्षा नहीं छपी, जबकि मैं उसका संस्थापक-संपादक था। यह
एक नीति-निर्णय था। ऐसे सारे लेखों को भी हम वापस कर देते थे जिनमें संपादकीय
चापलूसी के ढंग निकाले गए होते थे। हमने ख्याति-विस्तार, प्रशंसा और सहमति के पत्र
नहीं प्रकाशित किए। ‘पूर्वग्रह’ के एक सौ एक अंक मैंने संपादित किए। विश्व कविता
समारोह, एशियाई कविता समारोह, भारतीय कविता समारोह सहित मैंने सौ से ज्यादा
कविता-पाठ के आयोजन करवाए, लेकिन इनमें कभी खुद कविता-पाठ नहीं किया जबकि लोग बहुत
इसरार करते थे। लेकिन अब ये बातें बताता कौन फिरे कि तथ्य ये हैं।
आप भी साहित्य अकादेमी पुरस्कार
वापस करने वाले साहित्यकारों में से एक हैं, लेकिन आपकी पुस्तकों पर आपके परिचय
में इस तथ्य का उल्लेख पूर्ववत जा रहा है? इस संदर्भ में अगर इंतजार हुसैन जिन्हें
उनके उपन्यास ‘बस्ती’ पर पाकिस्तान का सबसे बड़ा पुरस्कार आदमजी एवार्ड मिला और
जिसे उन्होंने वापस कर दिया, को देखें तो मिलने और वापस करने दोनों का उल्लेख
इंतजार हुसैन की किताबों पर प्रकाशित उनके परिचय में किया जाता है।
लौटाने का जिक्र करना मुझे फिर से
यश लूटने जैसा लगता है। लेकिन अगर आगे यह उल्लेख भी हो सके तो अच्छा ही रहेगा।
वैसे अगर किसी आयोजन में कोई इस तथ्य का उल्लेख करता है कि मुझे साहित्य अकादेमी
पुरस्कार मिला है, तब मैं तत्काल यह बता जरूर देता हूं कि मैंने उसे लौटा दिया है।
इस संसार में — साहित्य और कलाओं के संसार में — एक बहुत सक्रिय और संपन्न आयु तक आ
जाने के बाद मौजूदा हिंदी साहित्य संसार को लेकर कौन-सी बात आपको इसके प्रति सबसे
ज्यादा आश्वस्त करती है?
हिंदी समाज में असल में आश्वस्त
करने के लिए अब कुछ है नहीं। यह सबसे ज्यादा धर्मांध और सबसे ज्यादा साहित्य से
मुंहफेरे हुए समाज है। यह सबसे ज्यादा सांप्रदायिक, जातिवादग्रस्त और घृणा को
पोसने वाला समाज भी है। इस समाज का मध्यवर्ग अपनी मातृभाषाओं से जितनी दूर जा सकता
था, जा चुका है। इस समाज में सामाजिक सुधार का कोई अभियान गुजरे पचास-साठ सालों
में कभी चला ही नहीं। हिंदी समाज इन दिनों एक बहुत त्रस्तकारी समाज है। इसलिए
हिंदी समाज से अलग हमें हिंदी भाषा को देख सकना चाहिए। हिंदी भाषा हिंदी समाज का
ही उत्पाद नहीं है या कि समाज ही उसका प्रतिफलन नहीं है। वह उससे कुछ स्वतंत्र भी
है और यहीं आशा करने के लिए भी कुछ न कुछ शेष है। मसलन हिंदी साहित्य की अपनी जो
परंपरा है, वह तो व्यवस्था-विरोधी परंपरा है। इसमें इधर-उधर भले ही थोड़े-बहुत
बहकावे रहे हों, लेकिन मूलतः वह व्यवस्था-विरोधी ही रही है। मैं यह बात कई बार याद
दिलाता रहता हूं और यह बात सबसे पहले अज्ञेय ने कही थी कि हिंदी में खड़ी बोली जो
उसकी केंद्रीय बोली बन गई है, वह खड़ी सिर्फ इसलिए ही नहीं कही जाती है कि वह अक्खड़
है या कि ब्रज और अवधी के मुकाबले इसमें सांगीतिकता कम है और यह लट्ठमार जैसी है।
यह इसलिए भी खड़ी है, क्योंकि यह सदा सत्ता के विरुद्ध खड़ी रही है। यह एक बड़ा गुण
है भाषा का और यह भी कि इसमें समावेशिता भी बहुत है। अनुवाद की स्थिति हिंदी में
बहुत खराब है, लेकिन दूसरी तरफ यह भी सच है कि अगर आप हिंदी जानते हों और कोई दूसरी
भारतीय भाषा न जानते हों, तब भी मोटे तौर पर आप यह जान सकते हैं कि इस वक्त भारतीय
साहित्य में क्या हो रहा है। अनुवाद की समस्याएं अपनी जगह हैं, लेकिन हिंदी इस
मामले में बहुत आतिथेय भाषा है। एक दुःख यह भी है कि हिंदी से लगाव अब नहीं है।
हिंदी सम्मेलनों, हिंदी अकादेमियों, हिंदी विभागों, हिंदी के नाम पर चलने वाली
सारी संस्थाओं और हिंदी के नाम पर दिए जाने वाले पुरस्कारों में पाखंड-व्यापार सतत
चलता रहता है। इस सबसे हिंदी का बहुत अहित हुआ है और हो रहा है। एक जमाने में
हिंदी को फैलाने में मीडिया की बड़ी भूमिका थी। बड़े-बड़े लेखक अखबारों के संपादक थे,
लेकिन अब लगता है कि मीडिया हिंदी को नष्ट करने के अभियान में बहुत जी-जान से जुटा
हुआ है कि कैसे एक-एक करके इस भाषा की सारी मर्यादाएं भंग कर दी जाएं। इस दृश्य
में आश्वस्त होने को कुछ है नहीं।
इधर हिंदी में कुछ लघु लेकिन
वैकल्पिक प्रकाशक सामने आए हैं, कुछ बड़े अंग्रेजी प्रकाशकों ने, कुछ बेहतर और
गंभीर अंग्रेजी वेबसाइट्स ने अपने हिंदी उपक्रम शुरू किए हैं, लिटरेचर फेस्टिवल्स
पर हमने बात की ही... यह सब देखते हुए क्या आपको नहीं लगता कि बाजार के दखल से
हिंदी की व्यापकता और उसमें संभावनाएं बढ़ी हैं?
देखिए, बाजार का आना बुरी बात नहीं
है। लेकिन इसका एक अर्थ तो यह है कि हिंदी का बेहतर काम-काज सबको बहुत आसानी से
सुलभ हो जाए। अभी तो स्थिति यह है कि हिंदी का महत्वपूर्ण काम आम लोगों तक पहुंचता
ही नहीं है। अगर उन्हें इसके बारे में पता भी चले, तब भी वह उन्हें मिलता नहीं है।
हिंदी की किताबों की दुकानें ही नहीं हैं...
किताबें तो अब ऑनलाइन भी मंगाई जा
सकती हैं।
हां, लेकिन इस ओर अभी और भी बहुत
कुछ करना बाकी है। मैं आपके प्रश्न पर आऊं तो अंग्रेजी के प्रकाशक अपने जो हिंदी
उपक्रम प्रस्तुत या प्रस्तावित कर रहे हैं, मुझे लगता है कि वे बहुत ज्यादा
गद्यकेंद्रित और अगंभीर हैं और हिंदी प्रकाशकों को तो कुछ सूझता ही नहीं है। गंभीर
चीजें भी लोकप्रिय हो सकती हैं, यह उन्हें लगता ही नहीं है। इनकी भूमिका इस दृश्य
में मुझे बहुत संदिग्ध लगती है।
सरकारी खरीद के पक्षधर हैं आप?
नहीं, इसे तो बंद होना चाहिए। मैंने
तो बल्कि इसकी शुरुआत भी की थी, जब मैं लोक शिक्षण संचालक था।
हिंदी के लेखक की रीढ़ कैसे सीधी
होगी?
यह मानकर चलना चाहिए कि किसी भी समय
में ज्यादातर की तो रीढ़ झुकी हुई ही होती है। कुछ ही लोग होते हैं जिनकी रीढ़ सीधी
होती है। लेकिन सारे झुकी हुई रीढ़ वाले खराब लेखक भी हों, यह जरूरी नहीं है...
हालांकि इसकी संभावना कम ही है कि झुकी हुई रीढ़ वाले बेहतर लेखक हों, पर कभी-कभी
वे कुछ बेहतर काम भी कर देते हैं। सीधी रीढ़ वाले भी हमेशा रीढ़ सीधी ही रखते हों,
यह भी जरूरी नहीं। हमेशा सीधी रीढ़ रखने वाले लेखक संख्या के अनुपात में बहुत कम
हैं, लेकिन यह भी सच है कि उनसे ही साहित्य टिकता है। इस समय को अगर देखें तो
इसमें बड़ा भारी विचारधारात्मक आलोड़न है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि हिंदी का कोई भी
महत्वपूर्ण लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पाले में गया हो। हिंदी का एक भी महत्वपूर्ण
लेखक इनके साथ नहीं है। दुर्भाग्य से यह बात बाकी भारतीय भाषाओं के लिए सच नहीं
है। मसलन कन्नड़ में भैरप्पा जैसे लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ हैं। यह
उम्मीद का मुकाम है कि हिंदी क्षेत्र में अब तक ऐसा नहीं हुआ है। यहां यह भी कहना
जरूरी है कि यह सिर्फ वाम-दृष्टि वालों का मामला नहीं है, बल्कि जिन्हें
वाम-विरोधी दृष्टि का माना जाता है वे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ नहीं
हैं, भले ही उसकी बौद्धिक स्वीकृति और अकादेमिक एकाधिकार बढ़ रहा हो।
आपकी कविताएं कम इतिहास की मांग करती हुई कविताएं लगती हैं,
इसकी क्या वजह है?
इतिहास से क्या आशय है, यह मुझे आज
तक समझ में नहीं आया। अगर इतिहास-बोध का एक अर्थ जातीय स्मृति को कविता में सक्रिय
रखना है, तब मेरी कविता तो जातीय स्मृति में ही रची-पगी है। उसमें व्यक्तियों और
जगहों के नाम भले ही नहीं हैं। लेकिन यह तो अपनी-अपनी शैली और अपना-अपना मिजाज है।
मेरी कविता के संदर्भ में किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया है, हालांकि कोई क्यों ध्यान
दे, आखिर आपकी पात्रता क्या है? लेकिन फिर भी अगर कोई ध्यान दे तो देख सकता है कि
उसमें ऐसी अनेक उक्तियां, बिंब, मुहावरे, पद, शब्द और युग्म हैं जो पहले की कविता
के हैं, बल्कि मैं तो यह कहूंगा कि यह सब कुछ मेरी कविता में मेरी पीढ़ी के किसी भी
कवि की तुलना में सबसे ज्यादा है। भवभूति, कालिदास, ग़ालिब, सूरदास, तुलसीदास, देव,
घनानंद की अंतर्ध्वनियां मेरी कविता में हैं।
आप जातीय स्मृति में चले गए, मैं
कुछ और पूछ रहा था। ‘इतिहास हमें उतना ही चाहिए, जितना कि पड़ता है दाल में नमक’ और
‘उन्हें घर-बिस्तर/ रोटी-पानी/
राहत-मरम्मत और नींद की दरकार थी/ इतिहास की नहीं/ जिसे बदलने की उम्मीद से/ वे
लड़ने गए थे’ ये आपकी ही कविता-पंक्तियां हैं न?
देखिए, कई बार कवि अपनी कविता में
एक ऐसी मुद्रा भी लेता है जो जरूरी नहीं कि उसी की हो... और फिर आज सारी दुनिया का
काम बहुत थोड़े इतिहास से ही चल रहा है, बल्कि इस समय या तो इतिहास की दुर्व्याख्या
हो रही है या फिर ऐतिहासिक विस्मृति है। इसे भी एक उदाहरण से समझिए... चित्रकला की
मुगल शैली अकबर के दरबार में विकसित हुई। मुगलों ने सबसे पहले फारस से चित्रकार
बुलाए। वे मिनिएचर चित्रकार थे। उनसे भारतीय चित्रकारों ने सीखना शुरू किया। इस्लाम
में तो अल्लाह या पैगंबर का चित्र नहीं बनाया जा सकता। यह वर्जित है, इसलिए
राजा-महाराजाओं और भू-दृश्य के चित्र ही बनाए गए। लेकिन भारतीय चित्रकारों ने
राधा-कृष्ण और सारे मिथकों के चित्र बनाने शुरू किए। अकबर ने वाल्मीकि कृत रामायण
का एक फारसी अनुवाद कमीशन किया। उस समय तक पुस्तकें तो छपती नहीं थीं। एक या दो
प्रतियों में कृति की पांडुलिपि ही रह जाती थी। इसलिए एक प्रति को चित्रित या
अलंकृत करना भी जरूरी था। इसके लिए ग्वालियर, राजस्थान और कश्मीर से चित्रकार
बुलाए गए। वे सब अपनी-अपनी स्थानीय शैलियां लेकर अकबर के दरबार में आए और उन्होंने
मिल-जुलकर एक साझा शैली विकसित की। यह शैली ही मुगल शैली कहलाती है। आज इस इतिहास
को जानने में किसकी दिलचस्पी है कि मध्यकालीन चित्रकला की एक इतनी बड़ी शैली असल
में वाल्मीकि कृत रामायण के फारसी अनुवाद के चित्रण के बहाने विकसित हुई। गुलाम मोहम्मद
शेख ने इस पर एक व्याख्यान दिया है। यह इतिहास-बोध आखिर कहां गायब है? क्या
इतिहास-बोध एक वैचारिक प्रत्यय भर है? इतिहास को आखिर आप कैसे समझ रहे हैं? अगर
जनसंघर्ष का इतिहास-बोध है, तब तो इतिहास में बहुत जनसंघर्ष है —
वैदिक काल से लेकर अब तक —
इसे आप पहचान भी सकते हैं, लेकिन बहुत सारा जनसंघर्ष ऐसा भी है जो जनसंघर्ष जैसा
नहीं भी लग सकता है, पर वह भी इतिहास का कारक और प्रेरक रहा है। इसलिए इतिहास-बोध
जब आप कहते हैं, तब कोई ठीक अर्थ इससे नहीं निकलता है और यह एक भ्रामक पद प्रतीत
होता है।
आपके द्वारा संचालित भारत भवन, भोपाल के जनविरोधी
रुख पर कभी ‘पहल’ में प्रहार करते हुए ज्ञानरंजन ने कलावादियों की जो खासियत बताई थी
कि ‘वे सारी दुनिया के दुःख पर कला के कंगूरे बना देना चाहते हैं’ आप इस खासियत
में आज क्या संशोधन करना चाहेंगे?
देखिए, न तो ‘पहल’ ने और न
ज्ञानरंजन ने कभी कोई तथ्य दिए जिनसे भारत भवन का जनविरोधी होना साबित होता हो।
भारत भवन एक साहित्यिक संस्था भर नहीं था, वह बहुकलाकेंद्र था : उसमें स्वतंत्र
भारत में पहली बार आदिवासी लोक कलाकारों की कृतियों को शहराती कलाकारों की कृतियों
के समकक्ष और समकालीन मानते हुए जगह दी गई थी। उसमें बुंदेलखंडी, छतीसगढ़ी, मालवी
में पहली बार ब्रेख्त, सैमुएल बैकेट, कालिदास आदि के पूरे नाटक प्रस्तुत किए गए। वहां
के आयोजनों में शमशेर बहादुर सिंह, कृष्णा सोबती, नामवर सिंह, कुंवर नारायण,
केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, पुरुषोत्तम अग्रवाल, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद,
अज्ञेय, सुभाष मुखोपाध्याय, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, शंख
घोष, अरुण कोलटकर, दिलीप चित्रे, अयप्पा पणिक्कर, श्री श्री, अख्तर उल ईमान, अली
सरदार जाफ़री आदि आए और आते रहे। क्या इन्हें जनविरोधी कहना तर्क और तथ्यसंगत था?
वैसे ये सब प्रत्याख्यान ब्योरेवार तभी कर दिए गए थे, और अगर ज्ञानरंजन की बात
करें तो खुद उनका साहित्य मध्यवर्गीय जीवन का साहित्य है। उन्हें जनजीवन का चितेरा
लेखक नहीं कहा जा सकता। उनके लिखे में जो सुघड़ता, परिष्कार और कलात्मकता है... वह
उसे आम आदमी के या जनप्रिय साहित्य के अनुकूल नहीं बनाती है। यह और बात है कि ज्ञानरंजन
ने बहुत सारे जनवादियों को मंच और स्थान दिया है, लेकिन वह स्वयं जनसंघर्ष के
चितेरे नहीं हैं। कलावाद, यथार्थवाद, जनवाद, जनसंघर्ष, प्रतिबद्धता, पक्षधरता...
ये सब बहुत गोल-मोल पद हैं और इनके मनमाने अर्थ निकाले जा सकते हैं।
मनमाने कैसे?
मनमाने ऐसे कि जैसे आप कहें
मुक्तिबोध और नागार्जुन दोनों ही जनवादी कवि हैं, लेकिन मुक्तिबोध और नागार्जुन दो
ध्रुवांत हैं और उनके बीच जो दूरी है उसे आप कैसे पाटेंगे? संप्रेषणीयता का जो गुण
नागार्जुन में है, उसका घोर अभाव मुक्तिबोध में है। मुक्तिबोध की प्रसिद्धि और
कीर्ति को छोड़ दीजिए। वह अब तक कठिन काव्य के प्रेत कवि ही हैं। उन्होंने जिस
लालित्य का ध्वंस किया, उसका हिंदी कविता में पुनर्वास हुआ। मंगलेश डबराल इत्यादि
मुक्तिबोध की तुलना में लालित्य के ही कवि हैं। मुक्तिबोध का कोई अनुयायी नहीं, वे
तो बिल्कुल भी नहीं जो ऐसा होने का दावा करते हैं। साहित्य में द्वैत धारदार होने
की विशेषता के बावजूद बहुत अप्रासंगिक होता है। उससे बड़ी चमक पैदा होती है। कलावाद
और जनवाद को एक साथ कहने से मित्र और शत्रु वाला प्रभाव पैदा होता है। लेकिन साहित्य
में ऐसा कुछ होता नहीं है, सारी दुनिया में नहीं होता तो यहां कैसे हो जाएगा। जिस
जनसंघर्ष को अपना प्रमुख मुद्दा या सरोकार बनाकर पूरी सोवियत क्रांति हुई और सत्तर
वर्षों तक एक नया मनुष्य बनाने का दावा किया गया, वह दावा सत्तर वर्ष बाद खुद ही
ध्वस्त हो गया। किसी अमेरिका ने या सारे पूंजीवादी देशों ने मिलकर इसे ध्वस्त नहीं
किया। साम्यवाद किसी युद्ध में पराजित नहीं हुआ, वह अपने ही अंतर्विरोधों और अपनी
ही खामियों से भरभराकर गिर पड़ा। इन सत्तर वर्षों में जो महत्वपूर्ण साहित्य पैदा
हुआ, वह सारा का सारा सोवियत सत्ता से असहमति का साहित्य है। ज्यादा से ज्यादा एक
मायकोव्स्की का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने बहुत कम उम्र में ही आत्महत्या कर
ली। बाकी अन्ना अख्मातोवा, मरीना स्वेतायेवा, बोरिस पास्तरनाक, ओसिप मांदेल्स्ताम जैसे लेखक
सोवियत सत्ता से अहमत थे। इस
पर हम विचार क्यों नहीं करते? उस वक्त हंगरी, चेकोस्लाविया और
पोलैंड में सोवियत शिकंजे के बावजूद संसार की सबसे बेहतर कविता लिखी गई, और यह
ध्यान देने योग्य है कि यह साम्यवाद की समर्थक कविता नहीं थी। इस फालतू तर्क से
यहां काम नहीं चलेगा कि इस कविता को पूंजीवाद ने प्रचारित किया। लोगों को मूर्ख मत
समझिए। तर्क दीजिए। उस समय जनसंघर्ष का अर्थ था जन के लिए, उसकी गरिमा, अस्मिता और
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष और यह कहना कि सत्ता और समाज एक ही चीज नहीं हो सकते, एक
ही नहीं होने देने चाहिए। सोवियत संघ के इस दावे से कि सोवियत सत्ता ही सोवियत
समाज भी है, खिन्न होकर रूसी समाज ने अपने को दूसरे माध्यमों में व्यक्त करना शुरू
कर दिया और इसका परिणाम यह हुआ कि सोवियत सत्ता अंततः गिर गई।
हिंदी में कथित कलावादी लेखकों के जिस समूह के
आप प्रधान सेनापति रहे और हैं, मुझे लगता है कि वे आपकी काव्य-भाषा और आलोचना से सबसे
कम सीखते हुए व्यक्तित्व हैं। हालांकि वे यों करने के
लिए पूर्णत: स्वायत्त हैं, लेकिन क्या वजह है कि आपके संवादधर्मी संप्रेषण की वजह
से आपके चाहनेवालों और पाठकों की आपके समूह से बाहर भी कोई कमी नहीं, लेकिन आपके
समूह में शामिल बाकी कवियों-लेखकों का इस समूह से बाहर कोई पाठक-वर्ग अब तक नहीं
बन पाया है। आखिर वे क्यों इतने अपाठ्य हैं? मैं यहां नाम लेकर भी बात कर सकता हूं
: वागीश शुक्ल, मदन सोनी, ध्रुव शुक्ल, उदयन वाजपेयी, शिरीष ढोबले, पीयूष दईया...
आपकी ही भाषा में कहूं तो क्या आपको नहीं लगता कि आपके अधिकार या साधनों की,
साहित्य और कलाओं के प्रति आपके अटूट और अथक लगाव की वजह से ही इन नामों की
वामपंथी विचारों की केंद्रीयता वाले हिंदी साहित्य संसार में थोड़ी-बहुत जगह बन पाई
है?
इस प्रश्न में अनेक आकलन बहुत
अतर्कित आत्मविश्वास से किए गए हैं, यह जाहिर है। अव्वल तो हिंदी में कलावाद कभी
ठीक से आया नहीं : हमारे सभी लेखक, फिर उनका विचारधारात्मक रुझान या मुखौटा कुछ भी
हो, साहित्यवादी हैं जिसे कलावाद का ही प्रच्छन्न रूप कहा जा सकता है। वे जो
जनजीवन और जनसंघर्ष का नामजाप करते रहते हैं उनका उनके ठोस रूपों और आंदोलनों से
कोई ठोस संबंध, शिरकत या संवाद का, हिस्सेदारी और सहकारिता का कभी विशेष रहा नहीं।
नक्सलवाद के शुरुआती दौर में जरूर उसका लेखकों से कुछ संबंध बना था। लेकिन उसके
बाद हिंदी अंचल में ही जो जनांदोलन हुए, उनमें जेपी आंदोलन को छोड़कर, किसी में
हिंदी लेखक की कोई भूमिका नहीं रही है : नर्मदा आंदोलन इसका उदाहरण है।
हमें कलावादी शायद इसलिए कहा गया कि
हम हिंदी में पहले ऐसे लोग थे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य,
आदिवासी कला, आधुनिक ललित कला, रंगमंच आदि को गंभीरता से लेना शुरू किया। मुझे याद
नहीं आता कि जिन्हें निराधार कलावादी कहकर लांछित किया जाता है, उनमें से किसी ने
कभी अपने को कलावादी बताया हो या कि कला की ऐसी स्वायत्तता की हिमायत की हो जो
समाज-निरपेक्ष हो, हालांकि ऐसी समाज-निरपेक्ष कला में यकीन करने का हक बनता है और
संसार में कई मूर्द्धन्यों का ऐसा विश्वास रहा है। यह अपने आपमें समाज-विरोधी
वृत्ति नहीं कही-सिद्ध की जा सकती। लेकिन दुर्भाग्य से हम सभी अंततः एक तरह की
सामाजिकता के मारे हुए लोग हैं।
यह कहना भी सरासर नाइंसाफी है कि
मैं किसी समूह का प्रधान सेनापति हूं या था। मैं अपनी दृष्टि और कला-रुचि के लिए
संघर्षरत रहा हूं और वे अपनी दृष्टि और रुचि के लिए। उनमें से अनेक के आपस में और
मुझसे गहरे मतभेद रहे हैं। लेकिन संघर्ष को युद्ध की शक्ल देने का काम आदतन
प्रगतिशीलों-जनवादियों ने किया जिनकी अपनी सेनाएं हैं और उन्हें ध्वस्त करने के
लिए हमेशा किसी शत्रु की दरकार होती है, उसका होना उनकी युयुत्सा को
उत्तेजित-पोषित करता है। वे ही सेनाएं और सेनापति कल्पित करते हैं। यह बहुत
जाना-पहचाना हथकंडा है जिसका बहुत भयानक और बेशर्म इस्तेमाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ और उसकी पोषित-समर्थित शक्तियां आज धड़ल्ले से कर रही हैं। वे अपने से असहमतों
को देशद्रोही, राष्ट्र-विरोधी आदि बताकर नष्ट करने पर तुले हैं।
जिस लेखक-समूह को कलावादी कहकर आप
लांछित कर रहे हैं, उसका कोई पाठक-वर्ग नहीं है, यह निष्कर्ष आपने अपने पूर्वग्रह
के रहते निकाला है, जबकि यह सही नहीं है। उनका अपना पाठक-वर्ग है और उसके होने का ठोस
सबूत गाहे-बगाहे मिलता रहता है। उनमें संप्रेषणीयता का अभाव भी वैसा नहीं है, जैसा
आपको लगता है। यह मत भूलिए कि जिन्हें आप प्रगतिशील-जनवादी कहते हैं, उनकी जगह भी
हिंदी समाज में सीमित ही है।
मैंने ऐसे लेखकों को जगह दी है,
लेकिन इसलिए नहीं कि वे किसी गुट के हैं, बल्कि इसलिए कि उनमें से हरेक
प्रतिभाशाली है : भले ही कई बार मैं उनसे असहमत भी होता रहा हूं और वे मुझसे। लेकिन
ऐसा मैंने — रिकॉर्ड के लिए कह दूं — और अनेक लेखकों के साथ भी किया है
जिनसे मैं असहमत रहा हूं। साहित्य को इस मामले में राजनीति से अलग होना चाहिए जिसमें
प्रतिपक्ष को शत्रु मानकर प्रहार किए जाते हैं। साहित्य में लेखकों के बीच शत्रुता
को कोई स्थान नहीं दिया जाना चाहिए, मैंने कभी नहीं दिया।
लेकिन इन कथित कलावादी लेखकों की
कोई विशेष जगह आपकी सारी शक्ति और आपके सारे समर्थन के बावजूद हिंदी में बन नहीं
पाई, जबकि हिंदी में कई ऐसे लेखक हैं जिन्होंने वाम विचार के साथ न रहकर भी बहुत
उल्लेखनीय काम किया है और जितना हिंदी में रहकर कमाया जा सकता है, उतना नाम कमाया
है। मैं यहां भी कुछ नाम ले लेता हूं : कुंवर नारायण, कैलाश वाजपेयी, निर्मल
वर्मा, सुरेंद्र वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी, अलका सरावगी...
जितनी जगह बनी है नाकाफी है, लेकिन
इस जगह को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह हिंदी की आलोचना और रसिकता पर प्रतिकूल
टिप्पणी है कि उसमें ऐसे लेखकों के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। आपके हिसाब से मेरी
कोशिश इस संदर्भ में विफल हुई सो हुई होगी, मेरी विफलताओं की गाथा बहुत लंबी है।
क्या आपने कभी अपमानित महसूस किया है?
हां, दो-तीन बार। एक बार तो तब जब
मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ ने एक प्रस्ताव पारित किया। यह प्रस्ताव भारत भवन
और मेरे विरुद्ध था। हुआ यह कि मुझे हरिशंकर परसाई की एक ट्रंक कॉल आई। उन्होंने
मुझसे कहा कि तुम जो कर रहे हो करते रहो, वह बिल्कुल ठीक है। मैं तुम्हारे साथ
हूं, लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ ने आज तुम्हारे विरुद्ध प्रस्ताव पारित किया है और
मुझे इसका खेद है। मैंने सोचा कि मैं तुम्हें यह बता दूं कि तुम इससे विचलित मत
होना...। हरिशंकर परसाई से मेरा कभी कोई गहरा व्यक्तिगत संबंध नहीं रहा। वह मेरे
पहले साहित्य संपादक जरूर रहे, लेकिन मेरी उनसे कभी कोई घनिष्ठता नहीं रही। मुझे
यह बहुत खराब लगा कि उन्हें मुझे फोन करके यह सब कहना पड़ा।
दूसरी बार तब जब मेरा प्रमोशन ड्यू
था और सरकार में सब लोग इस पर सहमत थे कि मुझे ही भारत सरकार का संस्कृति सचिव
होना चाहिए। इस मौके पर मुझसे कहा गया कि कुछ मुश्किलें हैं और हम आपको नियुक्त
नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन अगर आप प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे दें तो हम आपको
अशोक वाजपेयी के रूप में नियुक्त कर सकते हैं— ऑन ए कॉन्ट्रेक्टचुअल बेसिस। मैंने उनसे कहा कि मुझे इसमें
कोई समस्या नहीं है। तब उन्होंने कहा कि आप सोच लीजिए। मैंने पत्नी और रज़ा साहब से
फोन पर बात की और अपना निर्णय उन्हें बता दिया। लेकिन इतने बड़े स्तर पर बातचीत
होने के बाद, तीस वर्ष से अधिक तक प्रशासनिक सेवा करने के बाद और उसके प्रमुख के
यह कहने के बाद कि तुमसे अधिक योग्य कोई नहीं है और सबकी तुम्हारे नाम पर सहमति
है... फैसला मेरे पक्ष में नहीं हुआ और न ही मुझे इसका कोई कारण बताया गया। इससे
मैंने काफी अपमानित महसूस किया।
तीसरी बार तब जब पुरस्कार वापसी के
प्रसंग में भारतीय जनता पार्टी के एक मंत्री ने यह कहा कि पुरस्कार लौटाने के लिए
लेखकों को पंद्रह-पंद्रह लाख रुपए कांग्रेस पार्टी की तरफ से मिले।
आपमें और आपके कवि में भी थकने के बावजूद हताशा को न
स्वीकार करने का उत्साह नजर आता है। क्या यह
उत्साह परंपरा के प्रति गहन आसक्ति से आया है, या इसका स्रोत कहीं और है?
इसका स्रोत कुछ परंपरा में है और
कुछ स्थिति में भी है। आज हमारी सारी आस्थाएं और अपेक्षाएं लगभग ध्वस्त हो चुकी
हैं। चाहे तथाकथित जनसंघर्ष वालों की आस्थाएं और अपेक्षाएं हों, चाहे उनसे असहमतों
की... सब की सब आज एक ही इतिहास के घूरे पर पड़ी हुई हैं। यह वह मुकाम है, जहां
बहुत आसानी से उम्मीद का दामन छोड़ा जा सकता है कि बेकार है उम्मीद करना...।
वह दुनिया जो हमने बनाई थी और
जिसमें हम पले-बढ़े, जिसमें हमने कुछ जोड़ने की कोशिश की... वह दुनिया अब पूरी तरह
हमारे काबू और हमारी समझ से बाहर निकल चुकी है। वह इस तेजी से बदल रही है कि उस पर
अब हमारा कोई बस नहीं है। यह एक शुद्ध यथार्थवादी आकलन है, लेकिन साथ ही मनुष्यों की
— और साहित्य और कलाओं की भी — एक बुनियादी मुश्किल यह है कि वे उम्मीद और विकल्प की
कल्पना करना छोड़ नहीं सकते। इस परिस्थिति में भी जब ऐसा करते रहने का कोई आधार
नहीं बचा है, हमारी स्थिति कुछ इतनी अतिरंजित हो गई है कि इसके बारे में अतिरंजना
के मुहावरे के बगैर बात ही नहीं की जा सकती। एक और बात यह है कि जिसे हम तथाकथित
सामाजिक संसार कहते हैं, उसके समानांतर एक रोजमर्रा का जीवन-व्यापार भी चलता रहता
है और वह हमारे तथाकथित सामाजिक संसार से अप्रभावित भी रहता है। यह जो साधारण जीवन
है, वह इतनी आसानी से बदलने वाला नहीं है। वह इतनी जल्दी नष्ट होने वाला भी नहीं
है। तब आखिर इस जीवन को हम अलक्षित क्यों करें? साहित्य का काम तो वैसे भी जो
अलक्षित है या जो अलक्षित रह जाएगा — इतिहास द्वारा भी — उसकी शिनाख्त करना और हो सके तो उसे भाषा में लक्ष्य करना
है। यह करना साहित्य का लगभग नैतिक धर्म है।
कभी उपन्यास लिखने की इच्छा नहीं होती आपकी?
नहीं। मुझे लगता नहीं कि मैं उसे
साध पाऊंगा।
आपको दो में एक चुनना पसंद नहीं है, आपने अज्ञेय और
मुक्तिबोध दोनों को चुना है। आपका कृतित्व इसका
साक्षी है कि आपका काम एक से नहीं चलता है, लेकिन फिर भी अगर शब्दाधिक्य या
शब्दसंकोच में से कोई एक चुनना हो तो आपका चयन क्या होगा?
चुनना तो शब्दसंकोच चाहिए, पर
कभी-कभी शब्दाधिक्य भी जरूरी होता है।
उपस्थिति या अनुपस्थिति में से कोई
एक चुनना हो तो?
उपस्थिति।
और अंतर्ध्वनि या पूर्वग्रह में?
अंतर्ध्वनि।
स्तुति या क्रांति में?
दोनों नहीं, लेकिन अगर चुनना ही हो
तो क्रांति।
गरिमा या आभिजात्य में?
गरिमा।
इन दिनों आपका प्रिय शब्द कौन-सा है?
साहस।
क्या कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके बारे में आप सोचते हैं कि आपसे
पूछे जाएं, लेकिन आपसे कभी पूछे नहीं गए?
मुझसे जो प्रश्न नहीं पूछे गए उनकी सूची बनाना कठिन है, लेकिन
कुछ अभी सूझते हैं :
- आप कविता में विचारधारा के विरोधी रहे हैं, पर क्या उनके बिना संगत विचार संभव है?
- आप पिछले चालीस बरसों से अज्ञेय-शमशेर-मुक्तिबोध की वृहत्त्रयी पर जिद कर अड़े रहे हैं, यह आपकी आलोचना-दृष्टि की जड़ता या गतिहीनता का प्रमाण नहीं है?
- हिंदी आलोचना की भाषा और शैलियां हिंदी रचना की तुलना में कम परिवर्तित कम नवाचारी रही हैं, आप इसका क्या कारण मानते हैं?
- आपका कलाओं के प्रति रुझान और उनमें गहरी पैठ की कोशिश क्या आपको साहित्य से दूर ले गई है?
- बावजूद आपकी पैरवी के तथाकथित सृजनात्मक आलोचना की हिंदी जगत में जगह नहीं बन पाई तो आपको इसका क्या कारण लगता है?
- आपको रूपवादी माना जाता रहा है, लेकिन आपने अपनी आलोचना में रूप-विश्लेषण कम किया है? यह विपर्यास क्यों?
- आप बरसों कांग्रेसी सत्ता के साथ रहे हैं और अब भारतीय जनता पार्टी की सत्ता के घोर-मुखर विरोधी हैं। क्या इसके पीछे मुख्य तत्व कांग्रेस-प्रेम रहा है?
- आपने लगभग आक्रामक होकर कविता और कला में जटिलता और अमूर्तन की वकालत की है, लेकिन आपकी कविता की आलोचना में इन्हें प्रधान-तत्व नहीं कहा जा सकता। ऐसा क्यों?
- साहित्य में रहस्य और विस्मय क्या आपको इस समय भी प्रासंगिक लगते हैं, जबकि इनके नाम पर भयानक अत्याचार हो रहे हैं?
- इधर बढ़ी आपकी सामाजिक सक्रियता और मुखरता आपकी कविता से मेल खाती नहीं लगती, क्या आपकी कविता और सामाजिक आचरण में द्वैध है?
- आपने विधिवत आलोचना लिखने के बजाय बीस बरसों से लगातार एक अखबारी स्तंभ लिखना तय किया, क्या इसने आपको व्यवस्थित आलोचना के मार्ग से विरत किया है?
अगर यहां थोड़ी जगह, थोड़ा समय और थोड़ा धीरज और
होता तो इन प्रश्नों को पूछा गया मानकर इनके उत्तर जरूर देता... लेकिन यह साक्षात्कार
पहले ही कुछ लंबा हो गया है!
इन प्रश्नों और उत्तरों के बाद भी
आपसे पूछने को बहुत कुछ है... आपकी देह और गेह में रेड्यूस
की गई कविता के बारे में, आपकी पूर्वग्रहयुक्त आलोचना के बारे में, आपके मददगार-उदार-लोकतांत्रिक
व्यक्तित्व के बारे में, आपके संस्कृतिकर्म के बारे में, फाशीवाद के इस दौर में
आपके प्रतिरोध के बारे में और आपके प्रिय कवियों-लेखकों-कलाकारों के बारे में...
लेकिन मैं जो कुछ भी अब आपसे पूछूंगा वह सब आपसे अब तक कई बार पूछा जा चुका है और उसके
जवाब आपकी ओर से कई बार पाए जा चुके हैं। कोई
भी इस दुहराव को व्यर्थ नहीं कहेगा, लेकिन मुझे लगता है कि आपको बहुत कहना पड़ा है। बहुत लिखने के बावजूद आप भी खुद को बुनियादी तौर पर एक
बोलता हुआ और एक बातूनी आदमी मानते हैं। क्या आपको कभी यह नहीं लगता कि
आपने कुछ कम कविता की होती, कुछ कम आलोचना की होती, कुछ कम संस्कृतिकर्म किया
होता, कुछ कम कला की होती, कुछ कम संवाद किया होता तो यह आपके लिए ज्यादा बेहतर
होता?
नहीं। कम से मेरा काम नहीं
चलता है, बल्कि मुझे उल्टा लगता है कि मुझे और बहुत करना चाहिए था। कम करने से काम
बेहतर होता है, यह मुझे नहीं लगता है। रघुवीर सहाय की कविता-पंक्ति है : ‘कम से
कम’ वाली बात न हमसे कहिए।
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