Friday, August 21, 2015

युवा कविता : एक अपील




इतिहासबोध के लिए एक क्रमभंग 
अच्युतानंद मिश्र
*

मित्रो,

...गए दिनों हिंदी में युवा कविता को लेकर एक बहस की स्थिति बनीयह बहस किसी सार्थक संवाद में नहीं बदल सकी तो उसके कुछ निश्चित कारण थेसवाल युवा कविता के भीतर से भी उठाए गए और बाहर से भीकुछ बातें बहुत प्रायोजित और सुनिश्चित योजना के तहत कही गईं कुछ टिप्पणियों का मंतव्य युवा कविता को सिरे से खारिज करना था तो कुछ इस बात पर सहमत थे कि हिंदी में किसी भी पहले समय की अपेक्षा अधिक अच्छी कविताएं लिखी जा रही हैंयह बेहतर ही होता कि हम उन कारणों पर कुछ गंभीरता से विचार करतेएक तरह से युवा कविता के इस वर्तमान परिदृश्य को लेकर एक कंफ्यूजन की-सी स्थिति बरकरार है 

यह तो हम सब स्वीकार करेंगे ही कि हिंदी कविता अपने सबसे गहन संकट के दौर में हैइस संकट का स्वीकारबोध अगर हमारे वरिष्ठ कवियों में नहीं है तो इसके लिए युवा कवि जिम्मेदार नहीं हो सकतेवर्तमान कविता के परिदृश्य को अगर हमारे वरिष्ठ कवियों ने राजनीति के पीछे चलने वाली खबर की तरह बना दिया है तो हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि यह हमें विरासत में मिला है इस विरासत का हमें क्या करना है, यह भी हमें ही सुनिश्चित करना होगा

यहां युवा कविता से मेरी मुराद उन कवियों से है जिन्होंने नई सदी में लिखना आरंभ किया

हिंदी के युवा कवियों को एक दोहरे संकट से गुजरना पड़ रहा हैवे कविता में जिन प्रवृत्तियों का विरोध कर रहे हैं, जीवन जीने की प्रक्रिया में वही प्रवृत्तियां उन पर बलात थोपी जा रही हैं समूचा साहित्यिक परिदृश्य एक सांस्थानिक उपक्रम में बदल चुका हैपुरस्कारों की राजनीति से शुरू होकर नौकरी पाने तक की प्रक्रिया एक विशाल दलदल का रूप ले चुकी हैयुवा कविता इसी दमघोंटू परिदृश्य में विकसित हो रही है विरोध के कई स्तर निर्मित हो चुके हैं और हर स्तर का अपना व्यक्तिगत तर्क है

नई सदी की युवा कविता के विषय में यह कहा जा रहा है कि वह विषयाक्रांत हुई है कुछ वरिष्ठ कवियों को ऐसा अगर लगता है तो क्या उन्होंने समय रहते इसकी पड़ताल करने की जरूरत समझीहिंदी की युवा कविता के विषय में इस तरह की मुद्रा और आक्रामकता भरे तेवर दरअसल इस बात की तस्दीक करते हैं कि युवा कविता से जिनका संबंध कभी कभार का होता है, वे कविता के समयबोध को पहचानने में किस तरह चूक जाते हैंवे फूल-पत्ती एवं समयबोध से मुक्त कविता को ही कविता का मूल विषय मानने लगते हैं वे युवाओं से यह अपेक्षा रखते हैं कि वे इसे स्वीकार करें 

बूढ़ा गिद्ध पंख क्यों फैलाए पूछने वाले अब खुद पंख फैला रहे हैंयुवा कविता को संरक्षण देने का यह नायाब तरीका उन्होंने ढूंढ़ निकाला है

हम इसे उपयुक्त नहीं मानते बल्कि हम यह चाहते हैं कि इस नए समय की गंभीर व्याख्या हो और मौजूदा संकट को उसकी मूल संरचना से पकड़ा जाए इस संदर्भ में हमारा स्पष्ट मानना है कि हमारा समय एक नई गति को रच रहा है आठवें दशक के कवियों ने यह कहां सोचा होगा कि उनके उत्तरकाल में कविताओं के पाठक उन्हें यू ट्यूब  पर देख-सुन सकेंगेअगर रूप बदलेगा तो विषय भी बदलेंगे और विषयों के प्रकट होने की गति भी स्पष्ट है उससे सही तालमेल नहीं बना सकने की स्थिति में यह गति-स्थिति हमें विषयाक्रांत ही नजर आएगी

समूची दुनिया में बड़े पैमाने पर कला रूपों में परिवर्तन हो रहा हैहमारी संवेदना का आयाम अधिक विस्तृत हुआ हैज्ञान के संवेदनात्मक रूपांतरण की मुक्तिबोधीय परिकल्पना में उस रूपांतरण की गति का प्रश्न भी जुड़ गया है हर क्षण हर पल हमारे मस्तिष्क पर जितने तरह के हमले हो रहे हैं, उसने शांत मस्तिष्क की मानवीय परिकल्पना को ही उलट दिया हैपहले के कवि के पास गांव से शहर तक आने के वृहद् अनुभव थेउसमें एक खास तरह का रोमान भी मौजूद होता था इक्कीसवीं सदी में विस्थापन का समूचा मनोविज्ञान बदल गया मध्यवर्गीय परिवार की समूची परिकल्पना बदल गई ऐसे में स्मृतियों में मौजूद संबंध और वास्तव के संबंधों के बीच की दूरी अधिक गहरी हुई है और कवि के अनुभव अधिक कटु आज के युवा कवि के पास दो ही रास्ते नजर आते हैं, या तो वह अपने समय की बेचैनी को उसकी मूल गति के साथ पकड़ने का प्रयत्न करे या मार्मिकता के नए क्षितिजों के विस्तार से संवेदना के नए आयाम रचे 

कई बार परंपरा से आलोचनात्मक संवाद भी यथार्थ की नई मंजिलें तय करता हैइतिहास भले क्रमिकता में जीवित रहता हो, इतिहासबोध के लिए क्रमभंग एक अनिवार्य शर्त होती है

आज की युवा कविता का यह बदला हुआ परिदृश्य एक व्यापक संवाद की मांग करता है, इसलिए कि वह एक संक्रमण काल से गुजर रही हैपुरानी कविता को सिर्फ इसलिए दुहराना ठीक नहीं होगा कि वह एक धीमी गति की दुनिया को रेखांकित करती थीअगर कविता किसी पुरानी मीनार से देखने पर विषयाक्रांत दिखती है तो दिखे युवा कविता की तो सीधी मुठभेड़ अपने समय से है उस समय से जिसे महज राजनीतिक संकल्पना बनाकर कविता को उसके पीछे दौड़ने वाले घोड़े में बदला जाना उसे स्वीकार नहींसिर्फ राजनीतिक घटनाक्रम ही हमारी चेतना को प्रभावित नहीं कर रहे हैं, सामाजिक-सांस्कृतिक रूपाकारों में आए परिवर्तन भी हमें बदल रहे हैं

हमने जब आंखें खोलीं तो सिर्फ बाबरी मस्जिद का विध्वंस या रूस के विघटन की चीख ही नहीं सुनी बल्कि हमें कम्प्यूटर युग और सूचना क्रांति के परिणामों से भी बावस्ता होना पड़ा हमारे मस्तिष्क के समक्ष इस कृत्रिम मस्तिष्क को पैदा कर, हमें किस किस्म के विलगाव में रख दिया गया है, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए

इन तमाम बातों के आलोक में मेरा मानना है कि युवा कविता को लेकर एक सार्थक बहस और रचनात्मक संवाद की दरकार हैनब्बे के दशक के कवियों ने अपने से पहले के कवियों के साथ कोई आलोचनात्मक संबंध विकसित नहीं किया ऐसे में पिछले पच्चीस साल की कविता एक क्रमिक विस्तार का रूप लेती गई नई सदी में अगर यह क्रम टूटता है तो इस टूटन को ही, सही परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किए जाने की जरूरत है 

युवा कविता की यह कोशिश अपने अस्तित्व की पहचान की कोशिश है इसमें उसका समयबोध भी शामिल है
*** 

एक युवा कवि की यह अपील एक नई ऊर्जा वाले कर्म का प्रारंभ है। यह प्रारंभ तमाम गलतबयानियों, आलस्य और दुरभिसधियों को समझने में सहायक है। एक व्यापक अर्थ में इसमें एक ऐसा कर्तव्य, विवेक और समयबोध उपस्थित है जो हमें खंडित होने से बचा लेने को तत्पर है। यह समय हिंदी के युवा कवियों के लिए अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने का नहीं बल्कि उसे मूर्त करने का है। उम्मीद है कि यह अपील इस मायने में दूर तलक जाएगी...

Saturday, June 20, 2015

‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ पर पंकज चतुर्वेदी की एक कविता


आइए 

समलैंगिकता एक प्यार है
इंसान का इंसान से
ज़रूरी नहीं लैंगिकता का
ख़याल रखकर किया जाए

एक समाचार चैनल पर
समलैंगिकता पर बहस में
बाबा रामदेव ने कहा :
यह भारतीय संस्कृति के खि़लाफ़ है
अप्राकृतिक है
मानसिक विकृति है
और अगर सुप्रीम कोर्ट, सरकार और लोग
यह नहीं समझते
तो वे भी भारतीय संस्कृति के खि़लाफ़ हैं

समलैंगिकों के प्रवक्ता का कहना था
कि दुनिया के मशहूर मनोवैज्ञानिकों की राय है
कि समलैंगिक सम्बन्ध
दिमाग़ी ख़राबी नहीं
बल्कि इंसान की
ख़ास आंतरिक बनावट का नतीजा हैं

एक और समलैंगिक ने
एक पत्रिका में अपने इंटरव्यू में पूछा
कि खजुराहो, दहोद और मोधरा की मूर्तियों में
और हमारे प्राचीन ग्रंथ ‘कामसूत्र’ में
समलैंगिकता के रहे होने के सुबूत मिलते हैं
फिर कैसे इसे कुछ लोग
पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित परिघटना बताते हैं

बहरहाल, चैनल पर बाबा रामदेव ने
आगे कहा :
समलैंगिकता की व्याधि से
छुटकारे का उपाय है
प्राणायाम

समलैंगिकों के पैरवीकार ने
अपने तर्कों से
बाबा को मुत्मइन करने की
काफ़ी चेष्टा की
पर अंत में खीजकर कहा :
क्या प्राणायाम, प्राणायाम
प्राणायाम से कुछ नहीं होता है

मगर बाबा इस बात पर अड़े रहे
कि प्राणायाम से
सब ठीक हो सकता है

आइए रामदेव जी !
बावजूद इसके कि वे लोग प्राणायाम जानते हैं
प्राणायाम के राजपथ पर
भारतीय संस्कृति की
छतरी के नीचे
उन्हें धकियाते हुए चलें !
***
साभार : कवि के सद्यः प्रकाशित कविता-संग्रह ‘रक्तचाप और अन्य कविताएं’ से 

Sunday, June 7, 2015

कि जैसे मुझे इसका भी पता था



इस मंच पर विराजमान ये सभी लोग
खोए हुए लोग हैं

इनके नाम के बातस्वीर इश्तिहार भी
शायद निकले हुए हों

जो मनुष्य अभी अध्यक्षता कर रहा है
सबसे ज्यादा खोया हुआ पुरुष है

उसका सब कुछ उससे खो गया है

वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी की यह कविता मैं नामवर सिंह को जब जब मंच पर देखता हूं, याद आती है। हालांकि शनिवार 6 जून 2015 की शाम साहित्य अकादेमी सभागार, नई दिल्ली में नामवर अध्यक्ष नहीं, ‘विशिष्ट उपस्थिति’ थे। लेकिन उनका सब कुछ अब उनसे खो गया है, इसकी सूचना वह अपनी प्रत्येक उपस्थिति में दर्ज करवा ही देते हैं। इस बार प्रसंग था ‘आलोचना’ के दो अंकों (53-54) के प्रकाशन के उपलक्ष्य में ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ विषय पर केंद्रित परिचर्चा। वक्ताओं में गोपाल गुरु का भी नाम था, लेकिन वह क्यों नामौजूद रहे इसकी कोई जानकारी इस कार्यक्रम के दरमियान नहीं दी गई। आज से करीब दो माह पूर्व इसी सभागार में बीसवें देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह का संचालन करते हुए अशोक वाजपेयी ने साहसिकता को व्यर्थ बताते हुए कहा था कि आजकल कहीं बुलाए जाने पर न आने के कारण बहुत हो गए हैं, ब्लड प्रेशर भी उनमें से एक है। अशोक वाजपेयी नाम का व्यक्तित्व जब बोलता है या जब ‘कभी-कभार’ लिखता है तो लगता है बहुत जूस पीकर बोल रहा है या बहुत बादाम खाकर लिख रहा है। उसके लिखे या बोले में उसके मौजूदा समय का कोई संकट और बेचैनी नहीं होती, या ‘आलोचना’ के नए संपादक अपूर्वानंद के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ नहीं होता। वर्ना क्या वजह रही इस कार्यक्रम का संचालन अशोक वाजपेयी ने नहीं लघुप्रेमकथाकार रवीश कुमार ने किया। इस तरह देखें तो... या न भी देखें तो क्या फर्क पड़ता है...

सभागार दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं-शोधकर्ताओं और प्राध्यापकों से खचाखच भरा था, मुहावरे में कहें तो तिल रखने की भी...

अपूर्वानंद ने कार्यक्रम की शुरुआत ‘आलोचना’ के परिचय से और यह कहते हुए की कि जो जितना ही नौजवान है, वह उतना ही फर्श पर बैठे। विनोद तिवारी को बैठने को सीट नहीं मिल रही थी और उधर अपूर्वानंद बता रहे थे कि कैसे गए दिनों में दुनिया भर में ब्लॉगर्स की हत्याएं हुई हैं। उन्होंने यह भी कहा, ‘‘कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो सकती है कि क्यों एक साहित्यिक आलोचना की पत्रिका समाज वैज्ञानिक विषय पर अपने अंक केंद्रित करे, लेकिन ‘आलोचना’ की दिलचस्पी बतौर पत्रिका राजनीति में हमेशा से रही है।’’ ‘आलोचना’ की दिलचस्पी बतौर पत्रिका नामवर सिंह में भी हमेशा से...

लेकिन ‘आलोचना’ की दिलचस्पी अब कविता में क्यों नहीं है... इस प्रश्न के उत्तर के लिए मुझे एक बार पुन: असद ज़ैदी को याद करना होगा :

एक कविता जो पहले ही से खराब थी
होती जा रही है अब और खराब

कोई इंसानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती
एक स्थायी दुर्घटना है
सारी रचनाओं को उसकी बगल से
लंबा चक्कर काटकर गुजरना पड़ता है

मैं क्या करूं उस शिथिल
सीसे-सी भारी काया का
जिसके आगे प्रकाशित कविताएं महज तितलियां हैं और
सारी समालोचना राख

मनुष्यों में वह सिर्फ मुझे पहचानती है
और मैं भी मनुष्य जब तक हूं तब तक हूं

फिलहाल ‘प्राइम टाइम’ शुरू हुआएंकर : रवीश कुमार और उनके साथ थे आदित्य निगम, राजनीतिशास्त्री (सीएसडीएस), अनुपमा रॉय, राजनीतिशास्त्री (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय), हिलाल अहमद, राजनीतिशास्त्री (सीएसडीएस) और नामवर सिंह, प्रधान संपादक, आलोचना। रवीश ने कहा कि आप सबके पास छह-छह मिनट हैं। इसमें ही आपको ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ लेना है। इसके बाद सवाल-जवाब का दौर होगा। उन्होंने कहा कि वह एक किस्म के उत्तरवाद से घिर गए हैं और इससे निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं आता। उनका आशय ‘नार्थ’ से था ‘आंसर’ से नहीं। यह कहकर कि नार्थ के लोग रोज बनने वाले इतिहास में उन्हें मौकापरस्त लगते हैं, उन्होंने यह भी कहा, ‘‘मैं सजग हूं, भावुक नहीं हूं।’’ बाकी जो है सो तो...

आदित्य निगम ने रवीश से कहा कि ये स्टूडियो नहीं है और यहां कमर्शियल ब्रेक और तालियों की जरूरत नहीं है। आपने चार मिनट को बढ़ाकर छह मिनट किया, इसके लिए शुक्रगुजार हूं। आदित्य नर्वस और लड़खड़ाए हुए नजर आए। ऐसे मौकों पर ऐसे व्यक्तित्वों को शराब पीकर आना चाहिए, क्योंकि छह मिनट में ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ होश में नहीं लिया जा सकता। वह बारह मिनट बोले और उन्होंने इस बीच राजनीति और सियासत का फर्क समझाया। उन्होंने कहा कि राजनीति समाज में हर जगह चलती है, लेकिन सियासत हर जगह नहीं होती। वह एक लम्हा है जो यकायक होता है और बने-बनाए खेल को बिगाड़कर चला जाता है। उन्होंने दो प्रस्थापनाएं भी दीं, लेकिन वे यकायक समझ में नहीं आईं और बना-बनाया खेल बिगाड़कर चली गईं।

बाद इसके न जाने क्यों रवीश कुमार ने नामवर सिंह को बोलने को कहा? नामवर ने कहा, ‘‘मैं वक्ता नहीं हूं, लेकिन आदेश हुआ है तो बोलूंगा। राजनीति मेरा विषय नहीं है। मैं साहित्य का विद्यार्थी हूं। साहित्य में यह देखा जाता है कि कंटेंट और फॉर्म एक दूसरे को कैसे प्रभावित करते हैं। मैं ऐसे ही राजनीति को भी जांचता हूं।’’ उन्होंने चुनाव को फॉर्म और तानाशाही को कंटेंट बताया या बताना चाहा। उन्होंने गजब अय्यारी दर्शाते हुए दबी जुबान में नरेंद्र मोदी की तुलना हिटलर से की। यहां गौरतलब है कि कुछ रोज पूर्व भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान समारोह में नामवर सिंह ने नरेंद्र मोदी की प्रशंसा की थी। नामवर छह मिनट ही बोले और उन्हें देखकर लगा कि यह शख्स दो मिनट में भी ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ ले सकता है।       

रवीश कुमार ने बर्लिन का एक संस्मरण सुनाते हुए कहा कि अब वहां कोई हिटलर को याद नहीं करता। उन्होंने नामवर सिंह को पुरानी शब्दावली का व्यक्ति बताया और अनुपमा रॉय को पुकारा।

अनुपमा ने रवीश की अमरोहा वाली रिपोर्ट की तारीफ की, अपूर्वानंद को धन्यवाद दिया और कहा कि मैंने ‘आलोचना’ के ये दोनों अंक ठीक से नहीं पढ़े हैं। लेकिन नामवर जी कह रहे हैं तो जरूर ये अंक अविस्मरणीय होंगे। अनुपमा को देखकर लगा कि वह जन-तंत्र-तंत्र-जन-जन-तंत्र-तंत्र-जन... में ही छह मिनट गुजार देंगी। लेकिन वह जल्द ही फॉर्म में आईं और कंटेंट में भी जब उन्होंने कहा कि राज्य समाज से पृथक नहीं है। शक्ति का वितरण जिस तरह हुआ है उसी का संचित स्वरूप राज्य है। जनतांत्रिकता का पर्याय केवल लोकतांत्रिक संप्रभुता है। उनके संदर्भ चुराए हुए लग रहे थे, लेकिन मुझे यकीन है कि अगर उन्हें छह मिनट से ज्यादा वक्त मिला होता तो उन्होंने स्रोत जरूर बताए होते।

हिलाल अहमद ने कहा कि मैं मुसलमान हूं। मुसलमान कभी शासक थे, अब शासित हैं और आज उनके लिए सच्चर कमीशन की वही अहमियत है जो ‘कुरआन’ और ‘हदीस’ की है। उन्होंने मुसलमानों को लेकर भारतीय समाज में मौजूद पूर्वाग्रह और कॉमनसेंस के फर्क को समझाने के लिए ‘थ्री इडियट’ और ‘पीके’ का सहारा लिया। सुनकर ताज्जुब हो सकता है कि इस सबके लिए उन्होंने महज आठ मिनट खर्च किए।

‘प्राइम टाइम’ के बाद संपन्न हुए सवाल-जवाब वाले राउंड में मैं सभागार से बाहर चला आया। वातानुकूलन में कुछ गड़बड़ी थी और गर्मी से सिर भन्नाने लगा था। वक्त अब कुछ इस कदर है कि सारे सवालों के जवाब मिनटों में दिए जा सकते हैं। हर शै पर मक्खियां मंडरा रही हैं। जीवन की सारी मिठास पर अब मक्खियों का शोर है। अभीष्टों को चढ़ाए गए चढ़ावे पर मक्खियां हैं। पूर्वजों को अर्पित किए गए पुष्पों पर मक्खियां हैं। हमारा कीचड़ तक मक्खियों ने ले लिया, हमारा दलदल तक...

मैं श्रीराम सेंटर की ओर बढ़ गया। कवि निलय उपाध्याय अपनी किताब ‘गंगोत्री से गंगासागर तक’ खड़े होकर बेच रहे थे। इस पुस्तक का लोकार्पण तीन दिन पहले गोविंदाचार्य करने वाले थे, किया नहीं। एक दिन पहले प्रकाशक ने इस किताब को बेचने से मना कर दिया और सारी किताबें निलय के सिर पर पटक गया।

मैं श्रीराम सेंटर रंगमंडल द्वारा प्रस्तुत यूरीपीडिज का नाटक ‘मीडिया’ देखने पहुंचता हूं। वह भी अपने विन्यास और प्रस्तुतिकरण में बहुत खराब प्रतीत होता है। बाहर आता हूं एक कवि मिलता है और देवीप्रसाद मिश्र की एक कविता याद आती है :

सारे सांस्कृतिक हादसे श्रीराम सेंटर के आस-पास ही होते हैं
वहीं एक ने मेरा कॉलर यह कहते हुए पकड़ लिया
कि तुम कहते हुए घूम रहे हो
कि मुझे कवि होने की जिद नहीं करनी चाहिए

मैंने यह कहा तो था
लेकिन इस मरदूद तक यह बात पहुंची तो कैसे

मैंने जान छुड़ाने के लिए उससे कह दिया
कि मैंने आपके बारे में सिर्फ यह कहा था
कि आपको मनुष्य होने की जिद नहीं करनी चाहिए

घबराहट में निकली मेरी इस बात को
उसने इलहाम में निकली बात मान लिया
और मुझसे ज्यादा घबरा गया
कि इस कमबख्त को इसका भी पता था...  
***