Friday, January 1, 2016

2015 की पंद्रह किताबें



जैसे सब वर्ष अंतत: गुजर जाते हैं वैसे ही वर्ष 2015 भी गुजर गया। संसार में गुजर जाना एक शाश्वत क्रिया है, लेकिन इस गुजर जाने को एक विश्लेषक दृष्टि से देखना प्राय: समय की मांग है। गुजरे हुए की पड़ताल में जरूरी नहीं कि यह सदिच्छा सब बार निहित ही हो कि आगे उन गलतियों के दोहराव से बचा जाए जो हो चुकी हैं, और यह भी कि भविष्य में उस सकारात्मकता और सजगता से ऊर्जा पाई जाए जो गुजरे हुए में थी ...और यह करके स्वप्नों और उम्मीदों के नए रास्ते खोले जाएं। यह बात वैसे तो सभी कार्य-क्षेत्रों पर लागू होती है, लेकिन अगर केवल हिंदी साहित्य तक ही इस कथ्य को सीमित करें, तब बेशक यह कहा जा सकता है कि यह अब भी संभावना है।
 

कुछ बेहतर किताबों, पुरस्कार-चर्चाओं, पुरस्कार-वापसी और अन्य लोकप्रिय विवादों से सार्थक, जीवंत और गर्म रहा यह साल जाते-जाते पूरे हिंदी-जगत को शोकाकुल कर गया। तीन महत्वपूर्ण कवि इस वर्ष के अंतिम चार महीनों में दिवंगत हुए — सितंबर में वीरेन डंगवाल और दिसंबर के शुरू में रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ और दिसंबर के अंत में पंकज सिंह इस जहां को गुडबाय कह गए।

इस दुःख और क्षति के साथ देखें तो इन दिनों हिंदी साहित्य बड़ी अजीब बहसों से गुजर रहा है। जहां तक नजर जाती है शब्द ही शब्द हैं और लेखक होना इतना आसान है कि महज कुछ हजार रुपए खर्च कर कोई भी लेखक बन सकता है। लोकप्रिय उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक ने एक बातचीत में कहा कि जो लिखता है, वह लेखक होता है। इसी बातचीत में आगे उन्होंने अपने लिखने को अपना व्यापार बताया। हिंदी में लेखक होना इतना खुदगर्ज, इतना मूल्यहीन और इतना चालू कभी नहीं था, जितना आज है।

कथाकार अनिल यादव ने गए साल कहा था : ‘‘न इज्जत है, न रॉयल्टी है, न ग्लैमर है फिर भी हिंदी में कविता, कहानी का हैजा है। लेखक कहलाने, भीड़ में पहचाने जाने से लेकर अमर होने तक की आकांक्षाओं के चलते बड़ी मात्रा में किताबें आ रही हैं। ऐसी किताबें छापना-छपवाना असल में अधकचरे अरमानों की प्रोसेसिंग है। एक तरह से ये छपने-दिखने के अवसरों का दुरुपयोग भी है।’’

इस दृश्य में 2015 से पंद्रह उल्लेखनीय किताबें चुनना एक सुविधाजनक रास्ता लग सकता है
लेकिन असल में यह बेहद असुविधाजनक है, क्योंकि कथा-कविता से इतर प्रत्येक वर्ष की तरह इस वर्ष भी हिंदी में कुछ उल्लेखनीय नजर नहीं आ रहा। इसकी भरपाई के लिए इस कथ्य में ‘पुनश्च’ के अंतर्गत इस वर्ष की पंद्रह ऐसी उल्लेखनीय रचनाएं जोड़ने की कोशिश की गई है, जो पत्र-पत्रिकाओं या ब्लॉग्स में प्रकाशित हुईं। फिर भी यहां यह जोड़ना जरूरी है कि यह चयन-दृष्टि व्यक्तिगत रुचियों और सीमाओं का मामला-भर है, कोई अंतिम राय या निर्णय नहीं। 
 
जयशंकर प्रसाद की एक कविता-पंक्ति है कि ‘‘छलना थी लेकिन उसमें मेरा विश्वास घना था’’ ...इस तर्ज पर कहें तो कह सकते हैं कि इस वर्ष भी हिंदी में कविता के नाम पर व्यापक छलावा हुआ। बहुत सारे कवितावंचित कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। उन सबके नाम जानने के लिए ‘दैनिक जागरण’ में प्रकाशित ओम निश्चल का सर्वेक्षणालेख ‘औसत का राज्याभिषेक’ पढ़ा जाना चाहिए। लेकिन औसत की भीड़ में अगर कविता चाहिए तो इस वर्ष प्रकाशित इन चार कविता-संग्रहों को पढ़ना जरूरी है :

कविता
 
कुमारजीव (कुंवर नारायण)
जिद (राजेश जोशी)
रक्तचाप और अन्य कविताएं (पंकज चतुर्वेदी)
लुका-झांकी (दर्पण साह)
*

पुन: एक कविता-पंक्ति के आश्रय से ही बात करें तो गजानन माधव मुक्तिबोध की एक कविता-पंक्ति है कि ‘‘दुनिया में नाम कमाने के लिए कोई फूल नहीं खिलता है’’ ...लेकिन हिंदी में यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ कवि नाम कमाने के लिए कहानियां लिखने लगते हैं। इस प्रकार के कहानीकारों से परहेज करते हुए यह पाया जा सकता है कि लोदी रोड से लेकर दरियागंज तक दौड़ने के बावजूद इस वर्ष के हिंदी के चार महत्वपूर्ण कहानी-संग्रह तक हाथ नहीं लगते। स्वयं प्रकाश के ‘छोटू उस्ताद’ को पढ़कर निराशा हाथ लगती है। अंत में दो ठीक-ठाक कहानी-संग्रह ही नजर आते हैं :
 
कहानी
 
जलमुर्गियों का शिकार (दूधनाथ सिंह)
हलंत (हृषिकेश सुलभ)
*
 
मलयज की एक कविता-पंक्ति है कि ‘‘व्यर्थता अर्थ का वह कुंवारापन है जिसे भोगा नहीं गया’’ ...इस पंक्ति के प्रकाश में देखें तब देख सकते हैं कि उपन्यासों के अगर अंश छप जाए तो उनके बारे में एक राय कायम की जा सकती है, जैसे अब तक अप्रकाशित गीत चतुर्वेदी और अनिल यादव के उपन्यासों के बारे में क्रमश: अच्छी और बुरी राय कायम हो चुकी है। लेकिन अगर अंश सामने नहीं आएं तो बहुत सारे उपन्यासों को उठाकर पछताने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं होता। अलका सरावगी का उपन्यास ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ अपनी रायटिंग नहीं मार्केटिंग की वजह से इस वर्ष चर्चा में रहा, लेखिका ने लगभग इसे आवाज लगा-लगाकर, दरवाजे खटखटा-खटखटाकर बेचा। इसलिए इस उपन्यास को इसकी लेखिका के भरोसे ही छोड़कर इस वर्ष आए दो अन्य उपन्यासों को इस सूची में दर्ज करना चाहिए :

उपन्यास
 

पहाड़ (निलय उपाध्याय)
बनारस टॉकीज (सत्य व्यास)
*
 

पुन: एक कविता-पंक्ति के आश्रय से ही बात करें तो अज्ञेय की एक कविता-पंक्ति है कि ‘‘जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है’’ ...हिंदी में सारा समीक्षात्मक-समालोचनात्मक कर्म इस पंक्ति के ही आदर्श वैभव में गर्क है। समीक्षाएं संबंधों की मारी हैं और समालोचना सर्वथा अपाठ्य है। हिंदी में आलोचना की हालत वही है जो टी.वी. सीरियल्स में एक्टिंग की है — करनी किसी को नहीं आती, लेकिन कर सब रहे हैं। बमुश्किल इस वर्ष प्रकाशित आलोचना की दो किताबें ही उल्लेखनीय नजर आती हैं :  

आलोचना
 

जीने का उदात्त आशय (पंकज चतुर्वेदी) 
हिंदी आलोचना में कैनन-निर्माण की प्रक्रिया (मृत्युंजय)
*

कविता-पंक्तियां यहां बहुत हो रही हैं, लेकिन इसे एक कविता-विरोधी समय में कविता के पुनर्वास के रूप में लिया जाना चाहिए... तो शमशेर बहादुर सिंह की एक कविता-पंक्ति है कि ‘सूर्य मेरी अस्थियों के मौन में डूबा’ ...हिंदी में ‘आत्मकथा की संस्कृति’ भी रही है और इस पर पंकज चतुर्वेदी ने शोध-कार्य भी किया है। लेकिन यह संस्कृति प्रतिवर्ष पल्लवित नहीं होती। हिंदी में आत्मकथाएं अभावग्रस्तता के शिल्प में संदिग्ध और हास्यास्पद होने को अभिशप्त हैं। लिहाजा इस क्रम में इस प्रकार की एक आत्मकथा को चुनना पड़ रहा
है जिसके चयन की पीछे अभावग्रस्तता का शिल्प बड़ी भूमिका अदा कर रहा है। यह आत्मकथा संदिग्ध और हास्यास्पद दोनों ही है, लेकिन कैसे इसके लिए इसे पढ़ना ही होगा : 

आत्मकथा
 

जमाने में हम (निर्मला जैन)
*

रघुवीर सहाय की एक कविता-पंक्ति है कि ‘इस दुःख को रोज समझना क्यों पड़ता है’ ...डायरी अपने दुःख को रोज समझने का रास्ता है। अनु सिंह चौधरी की ‘मम्मा की डायरी’ को बेहतर मानते हुए भी इस क्रम से बाहर रखना पड़ रहा है, क्योंकि निदा नवाज की डायरी अपने बयानों से ज्यादा बेचैन करती है। अपने छात्रों पर लिखे गुरु विश्वनाथ त्रिपाठी के संस्मरण अपने गद्य की वजह से ग्राह्य हैं। प्रभात रंजन की ‘कोठागोई’ को किस विधा में रखा जाए, यह एक संकट है। इस संकट को एक खासियत की तरह भी झेला जा सकता है। इस वर्ष की यह सबसे चर्चित और पठनीय हिंदी कृति है। कृष्ण कल्पित विरचित ‘कविता-रहस्य’ के आगे ...उर्फ नया काव्य-शास्त्र भी जुड़ा हुआ है। आगामी कवियों को समर्पित यह कृति अगर शास्त्र न भी मानी जाए तब भी इसे कविता के बारे में एक सुदीर्घ कविता मानकर पढ़ा जा सकता है : 

डायरी/ संस्मरण/ विविध
 

सिसकियां लेता स्वर्ग (निदा नवाज)
गुरुजी की खेती-बारी (विश्वनाथ त्रिपाठी)
कोठागोई (प्रभात रंजन)
कविता-रहस्य (कृष्ण कल्पित)
* 

पुनश्च :

1)  प्रकृति करगेती की कहानी ‘ठहरे हुए लोग’ (हंस, जनवरी-2015)

2)  प्रियंवद की सलवटें ‘मेरी इच्छाएं मेरा तर्क हैं’ (पाखी, अप्रैल-2015)

3)  आशुतोष भारद्वाज की डायरी (http://sidmoh.blogspot.in, 6 अप्रैल 2015)

4)  योगेंद्र आहूजा से संवाद ‘सारी मानवीयता दांव पर लगी है’ (पाखी, मई-2015)

5)  भालचंद्र जोशी की कहानी ‘आने वाले कल का खूनी सफर’ (कथादेश, जून-2015)

6)   कपिला वात्स्यायन का आलेख ‘भारतीय कला : समग्रता की खोज’ (नया ज्ञानोदय, जून-2015)

7)  भगवान सिंह की कृति ‘कोसंबी : कल्पना से यथार्थ तक’ पर सियाराम शर्मा का आलेख ‘तुम्हीं कहो यह अंदाजे-गुफ्तगू क्या है’ (अकार-41)

8)  विश्वनाथ त्रिपाठी का आलेख ‘आंखें वे देखी हैं जबसे’ (तद्भव-30)

9)  योगेंद्र आहूजा की कहानी ‘मनाना’ (पहल-100)

10)  देवी प्रसाद मिश्र की कविताएं (पहल-100)

11)  शिवेंद्र की कहानी ‘कहनी’ (पल प्रतिपल-78)

12) अनिल यादव की कहानी ‘दंगा भेजियो मौला’ पर संजीव कुमार का आलेख ‘दंगे में आएंगे’ (हंस, सितंबर-2015)

13)  रश्मि भारद्वाज की कविताएं (सदानीरा-9)

14)  वीरेन डंगवाल की एक कविता ‘रामपुर बाग की प्रेम-कहानी’ के बहाने आशुतोष कुमार (जलसा-4)
 
15)  शुभम श्री की डायरी (जलसा-4)

***
'दि संडे पोस्ट'' में प्रकाशित 
तस्वीर : अनुराग वत्स