Friday, January 31, 2014

सूक्तियों और कटूक्तियों का वटवृक्ष




कवि  कृष्ण कल्पित की इन दिनों चर्चित काव्य-कृति 'बाग-ए-बेदिल' की  ओम निश्‍चल लिखित यह समीक्षा भी प्रकाशित होते ही इन दिनों चर्चित हो गई है। एक पृथुल काया वाली कृति की महज 900 शब्दों की यह समीक्षा कृति और कृतिकार के साथ कितना न्याय कर पाई, यह प्रश्न विचारणीय है और यह प्रश्न भी कि कृतिकार के लिए समीक्षा कितनी अनिवार्य है और आस्वादक के लिए वह खुद क्या है, रचना या सूचना… 







कृष्‍ण कल्‍पित साहित्‍य और मीडिया के अंत:पुर के निवासी हैं, मीडिया, सिनेमा और साहित्‍य के मर्म को जानने-समझने वाले हैं पर वे साहित्‍य में केवल इसलिए नहीं जाने जाते कि वे क्‍या लिखते हैं, क्‍यों लिखते हैं बल्‍कि इसलिए भी कि वे अपने दोस्‍तों-दुश्‍मनों के लिए क्‍या लिखते हैं। एक दौर था पॉकेट संस्करण में छपी शराबी की सूक्‍तियां देखकर लगा था कि ये सूक्‍तियों में कटूक्‍तियां कहने से हिचकने वाला इंसान नहीं है। कविता चाहे उन सूक्‍तियों में क्षीण रही हो, पर जमाने की चाल पर लानत भेजने की प्रवृत्ति उसमें अवश्‍य झलकती थी। साहित्‍य में उसकी कितनी चर्चा हुई, नहीं हुई यह दीगर बात है पर कल्‍पित के भीतर के कवि की उलझनों का बयान वह जरूर करती थी। ‘एक शराबी की सूक्‍तियां’ को बीज वक्‍तव्‍य मानें तो 'बाग-ए-बेदिल' ऐसी सूक्‍तियों-कटूक्तियों का वटवृक्ष है।

इधर अर्से से मोबाइल पर फेसबुक पर सार्त्र, पार्थ, कबीर, रैदास, मीर, गालिब आदि इत्‍यादि के संदर्भों संबोधनों के साथ लगातार कुछ न कुछ लिखकर वे दोस्‍तों को भेजते रहते थे। इनमें कभी कविता होती, कभी कटाक्ष। कभी अपनी आवाजाहियों की खबर होती कभी खबर लेने वालों की खबर। कभी उनके भीतर बात बात पर बिदक जाने वाले ऐसे जीव के दर्शन भी होते जिसे यह दुनिया सिरे से बेगानी लगती। कुछ लोग उनकी सदैव हिट लिस्‍ट में रहे आए। जैसे अज्ञेय, अशोक वाजपेयी, ओम थानवी या अन्‍य कलावादी। जिससे भी वे रूठ जाएं उसकी ऐसी तैसी निश्‍चित है। पर यह उस आशुकवित्‍व की परंपरा से अलग है जब समस्‍यापूर्तियों के दौर में एक कवि सम्‍मेलन में हितैषी के एक कविता-कटाक्ष से आहत होकर आशुकवि गयाप्रसाद शुक्‍ल सनेही ने वहीं पर एक कवित्त ‘ऐसे हितैषी की ऐसी की तैसी’ सुना कर उनसे अपना हिसाब किताब बराबर कर लिया था। एक कवि-प्रतिभा व्यवस्‍था और सत्ता से तो बैर रखती है पर साहित्‍य और कला की ही दुनिया के कुछ जाने-पहचाने चेहरों से उनकी ऐसी अदावत दिखती है कि उनकी चर्चा भर चलने से कल्‍पित के भीतर हलचल-सी मच जाती है। ऐसे कई सबूतों से 'बाग-ए-बेदिल' भरी है। कभी कभी सोचता हूं कि ऐसे चलते-फिरते किरदार न होते तो कल्‍पित की कविता कितनी बेजान होती!

लेकिन जिन-जिन लेखकों कवियों को उन्‍होंने 'बाग-ए-बेदिल' का प्रेरणास्रोत माना है और कई जगहों पर उनका आभार ज्ञापन भी किया है, देखकर हैरत होती है कि ऐसी व्‍यक्‍तिवादी विद्वेषवादी इबारतों से कविता का भला क्‍या रिश्‍ता ? पर ये तो कल्‍पित ही जानें या इसकी प्रेरणा देने वाले। इसीलिए शायद उनके यहां कुछ सीप-शंखों का जखीरा है तो कुछ घोंघे और कंकड़-पत्‍थर भी। लिहाजा 'बाग-ए-बेदिल' की पृथुल काया में जहां कृष्‍ण कल्‍पित के कवित्‍व का प्रमाण देने वाली कुछ बेहतरीन गजलें हैं, पद हैं, रुबाइयां हैं, साहित्‍यिक कटाक्ष हैं, वहीं निजी हिसाब-किताब चुकता करने और कविता का शीलभंग करने वाली पदावलियां भी हैं जो कविता की दुनिया में अन्‍यत्र देखने को नहीं मिलतीं।



पुस्‍तक में दर्ज लंबी भूमिका को उन्‍होंने 'आवारगी का काव्‍यशास्‍त्र' कहा है। शायद उनके ध्‍यान में ‘सलीका चाहिए आवारगी में’ जैसी पद रचना रही हो। आवारगी की इस शास्‍त्र चर्चा में वे बुद्ध के गृह त्‍याग एवं राहुल सांकृत्‍यायन की घुमक्‍कड़ी की चर्चा करते हैं और पूछते हैं कि क्‍या बिना किसी धुआंधार आवारगी के निराला ने आनंद भवन की ऐय्याश अट्टालिकाओं पर गुरु हथौड़ा प्रहार किया था। सारांश यह कि आवारगी जैसे विचारों के रचनात्‍मक आविर्भाव के लिए कोई अपरिहार्य तत्‍व  हो। कल्पित ने अध्‍ययन को भी आवारगी की संज्ञा से ही अभिहित किया है। उनका वश चले तो 'बाग-ए-बेदिल' को शैतानी आयतों की तरह शैतानी श्‍लोक कहें। वे भले ही कहें कि यह आत्‍मरक्षार्थ रचित है, किसी दुश्‍मन, किसी भू-खंड या कीर्ति को विजित करने के लिए नहीं, किंतु खेल-खेल में लिखी गई आवारगी की इन कविताओं में ’खेलन मैं को काको गोसैंयां’ का भाव ही प्रबल है। वे प्रहार करते हैं और प्रहार का सुख भी लेते हैं । उनके शब्‍दों में यह गद्य गजल है या फिर कोई असमाप्‍त कविता। पर अंतत: वे इस स्‍वाभिमान से भरे जरूर हैं कि एक बढ़ई के बेटे का दुनिया कुछ नहीं बिगाड़ सकती। कभी-कभी उनकी गजलों के कुछ अशआर हमारी चेतना में दबे पांव जगह बना लेते हैं जो धोखादेह तरीके से हमें उनका आशिक भी बना देते हैं। मिसाल के तौर पर : 

शायरी है नहीं गदादारी
ये हुनर मांगकर नहीं मिलता
खुद ही मरना है, खुद ही रोना है
आजकल नौहागर नहीं मिलता

कभी किसी साहित्‍यकार ने कहा था कि आगे चलकर कविता-कर्म और कठिन होता जाएगा। आज यह सहज संभाव्‍य हो गया-सा लगता है। कल्पित की यह शाइरी ऊपर से बेशक खंड-खंड पाखंड पर्व का उपहास करती दिखती हो, पर भीतर से इस शायरी की आत्‍मा भी खंडित लगती है। सुपरिचित कवि अरुण कमल ने बाग-ए-बेदिल की दिल खोलकर तारीफ की है तथा इसे एक बीहड़, सघन वन-प्रांतर के रूप में देखा है, किंतु इस दीवान को देखकर लगता है, एक बड़ी संभावना वाला कवि इस दीवान की पृथुल काया में कहीं दबकर रह गया है। वह दु:ख की लहर से कम, ईर्ष्‍या और निजी खुन्‍नस से ज्‍यादा परिचालित है, जिसने इस दीवान को एक 'शिकायतनामे' में बदल दिया है। इसके बावजूद 'बाग-ए-बेदिल' कुछ अच्‍छी गजलों, नज्‍मों, रुबाइयों, चौपदों और चम्‍पू किस्‍म की रचनाओं के लिए याद किया जाएगा, यद्यपि आलोचना में इसकी जगह कहॉं मुकर्रर होगी, कह सकना कठिन है। 

शुक्रिया 'शुक्रवार'। वहीं से साभार।

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