यह उसके जीवन में विनोद कुमार शुक्ल की कविता के आगमन से बहुत पूर्व की बात है। वह इस संसार की कई पुस्तकों को पढ़ चुका था, लेकिन विनोद कुमार शुक्ल के काव्य-संसार से अब तक अपरिचित था। वह अपनी जड़ों से निर्वासित था. वह वृक्ष से छूटे हरे की तरह था-- एक रोजमर्रा के भटकाव में क्षण-क्षण रौंदा जाता हुआ, वह अपना रंग खो रहा था। वह सूखी लकड़ी के रंग का हो गया था, या कहें वह लकड़ी हो गया था।
पुस्तकों में पुनर्वास दूसरों के बहाने उन छूट चुकीं स्थानीयताओं में पुनर्वास था जिनके विषय में वह प्राय: सोचता रहता था और जहां अब लौट सकना संभव नहीं था। नई स्थानीयताओं में पुनर्वासित होकर वह अपने वास्तविक पड़ोस को खो रहा था। इस तरह पुनर्वास में पड़ोस होते हुए भी अनुपस्थित था। वहां आवाजाही नहीं थी। सुख-दु:ख थे, लेकिन उनकी पूछताछ नहीं थी। वहां सब रोग अकेलेपन से शुरू होते थे और उसके हिस्से की व्यथा देकर उसके अकेलेपन से विदा हो जाते थे। व्यथा का आकार चाहे आकाश हो जाए पड़ोस को उसके संदर्भ में दृश्य में नहीं आना था तो नहीं आना था।
वह पुस्तकों में रहने लगा था। आस-पास का शोर और आत्महीनताएं और अन्याय और अविवेक उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता था। वह पुनर्वास की प्रत्यक्ष के साथ कोई संगति स्थापित नहीं कर पा रहा था। यह भी कह सकते हैं कि इसमें उसकी कोई रुचि नहीं थी। वह एक सुघड़ स्मृतिलोक में स्वप्नवत रहता था। हालांकि इसके समानांतर जो मूल यथार्थ था, वह बहुत हिंस्र और भयावह था।
पुनर्वास में अपने अध्यवसाय से वह जो स्मृतिलोक रच रहा था उसमें उन छूट चुकीं स्थानीयताओं की कल्पना थी जहां एक ही रोज में कई-कई सूर्योदय और सूर्यास्त थे। वह गर्म दोपहरों को अपने तलवों के नीचे अनुभव करता था और यह गर्म एहसास उसके कपड़ों से नमक की तरह लिपटा रहता था। उसके सिर पर सतत एक बोझ होता था और आगे हत्या की आशंकाएं। यह भयावह के समानांतर भयावह था।
इस समानांतरता में सतत जीते हुए वह एक रोज विनोद कुमार शुक्ल की कविता से परिचित हुआ...
इस मनुष्य होने के अकेलेपन में मनुष्य की प्रजाति की तरह लोग थे...
और...
लोगों तक पहुंचने की कोशिश में
दो चार लोगों ने मुझे सबसे अलग किया
मुझको सुनसान किया
बड़ा नुकसान किया
लोगों की बात करने की कोशिश में
एकदम चुपचाप किया
इस काव्य-संसार में वह उतरा तो उतरता ही चला गया। कुछ तैरा और फिर डूब गया। उसने पाया कि वह छूट चुकी स्थानीयताओं को पा चुका है। उसका अनुभव अपेक्षा से कुछ अधिक और अनिर्वचनीय पा लेने के भयभीत जैसा था। इस आस्वाद के बाद वह बहुत वक्त तक चुपचाप रहा। बस...
मानुष मैं ही हूं इस एकांत घाटी में
यहां मैं मनुष्य की आदिम अनुभूति में सांस लेता हूं
ढूंढ़कर एक पत्थर उठाकर
एक पत्थरयुग का पत्थर उठाता हूं
कलकल बहती नदी के ठंडे जल को
चुल्लू से पीकर पानी का प्राचीन स्वाद पाता हूं
मैं नदी के किनारे चलते-चलते
इतिहास को याद कर भूगोल की एक पगडंडी पाता हूं
संध्या की पहली तरैया केवल मैं देखता हूं.
चारों तरफ प्रकृति और प्रकृति की ध्वनियां हैं
यदि मैंने कुछ कहा तो अपनी भाषा नहीं कहूंगा
मनुष्य ध्वनि कहूंगा.
एक प्रदीर्घ मौन के बाद उसने पाया कि वह पृथ्वी में सहयोग और सहवास का अर्थ पा चुका है।एकांत का अर्थ और एक स्थानीयता में सार्वभौमिक विस्तार पा चुका है। कुछ संसार स्पर्श कर बहुत संसार स्पर्श कर लेने की चाह का उसने वरण कर लिया है और अब वह घर और संसार को अलग-अलग नहीं देख पा रहा है। उसे यह सृष्टि बहुत संभावनापूर्ण लग रही है, हालांकि हिंसा बहुत है...
ऐसे छोटे बच्चे से लेकर
जिनके हाथ सांकल तक नहीं पहुंचते
घर का कोई भी दौड़ता है दरवाजा खोलने
जिसे सुनाई देती है दरवाजा खटखटाने की आवाज.
थोड़ी देर होती दिखाई देती है तो चारपाई पर लेटे-लेटे
घर के बूढ़े-बूढ़ी चिंतित हो सबको आवाज देते हैं
कि दरवाजा खोलने कोई क्यों नहीं जाता?
पर ऐसा होता है कि दरवाजा खुलते ही
स्टेनगन लिए हत्यारे घुस आते है
और एक-एक को मारकर चले जाते हैं
ऐसा बहुत होने लगता है
फिर भी दरवाजे के खटखटाने पर कोई भी दौड़ पड़ता है
और दरवाजा खटखटाए जाने पर
दरवाजे बार-बार खोल दिए जाते हैं
पहाड़ों, जंगलों, पेड़ों, वनस्पतियों, तितलियों, पक्षियों, जीव-जंतु, समुद्र और नक्षत्रों से अपरिचय रखने के बावजूद उसने पाया कि वह धरती को जानता है। उसने पाया कि अपरिचित भी आत्मीय हैं। सब आत्मीय हैं और सब जान लिए जाएंगे मनुष्यों से। वह मनुष्य को जानता है।
वह विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ चुका था... और इसके बाद वह लगातार नई-नई स्थानीयताओं में पुनर्वासित होता रहा। इन नई स्थानीयताओं से पहले छूट चुकीं स्थानीयताओं को वह दूसरों के बहाने पुस्तकों में पाता था और मूल यथार्थ से कटकर एक सुघड़ स्मृतिलोक में स्वप्नवत रहता था। अब वह बदल चुका था। अब वह संसार को स्मृतिलोक-सा बनाना चाहता था। इसके लिए जो अवयव चाहिए, उन्हें इस संसार से ही पाना चाहता था। वह अब पुस्तकों में कम और संसार में ज्यादा रहने लगा था। यह दृष्टि विनोद कुमार शुक्ल के काव्य-संसार से गुजरने के बाद आई थी...
बहुत कुछ कर सकते हैं जिंदगी में का काम बहुत था
कुछ भी नहीं कर सके की फुर्सत पाकर
मैं कमजोर और उदास हुआ
ऐसी फुर्सत के अकेलेपन में दु:ख हुआ बहुत
पत्नी ने कातर होकर पकड़ा मेरा हाथ
जैसे मैं अकेला छूट रहा हूं उसे अकेला छोड़
बच्चे मुझसे आकर लिपटे अपनी पूरी ताकत से
मैंने अपनी ताकत से उनको लिपटाया और जोर से
पत्नी बच्चों ने मुझे नहीं अकेला छोड़ा
फिर भी सड़क पर गुजरते जाते मैं
हर किसी आदमी से अकेला छूट रहा हूं
सबसे छूट रहा हूं
एक चिड़िया भी सामने से उड़कर जाती है
अकेला छूट जाता हूं
चूंकि मैं आत्महत्या नहीं कर रहा हूं
मैं दुनिया को नहीं छोड़ रहा हूं
अब वह अपने एक प्रतिरूप को पुस्तकों में विस्थापित कर प्रकट और मूल यथार्थ से जूझ रहा था। रोज गुजर रहे थे और विनोद कुमार शुक्ल उसकी पाठकीय दिनचर्या की परिधि से छूट चुके थे। इस छूटने से मिल पाना वैसे ही गैर मुमकिन था जैसे छूट चुकी स्थानीयताओं से मिल पाना। हालांकि पुनर्वास अब कम कष्टदायी था और पड़ोस कम असहनीय। लेकिन उसका प्रतिरूप उसके मार्गदर्शन के बगैर आश्रयवंचित था। उसने इस प्रतिरूप के कुछ और प्रतिरूप बनाए और उन्हें विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों और अन्य कविता-संग्रहों में अलग-अलग रखकर छोड़ दिया और इस संसार को पढ़ने लगा, यह सोचकर कि विनोद कुमार शुक्ल के इन उपन्यासों और कविता-संग्रहों को वह कभी ‘आदिवास’ में पढ़ेगा। यह एक सुंदर कल्पना थी कि यह आदिवास इस संसार से बाहर नहीं होगा। वह आगामी उम्रों में होगा, एक रोज इस संसार में ही संभव होगा... लेकिन वह हर उस जगह से बहुत दूर कर दिया गया जो उसकी अतीव कल्पना में बहुत पवित्रता और विस्तार में थी। वह ‘विस्थापन’ की बहुत गर्म सुबहों में बहुत जल्दी उठकर विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों और कविता-संग्रहों को पढ़ता और रात तक एकाकी और उदास रहता था। वे प्रेम में ‘नहीं होने’ के दिन थे...
उसका जीवन एक रोजमर्रा में विनोद कुमार शुक्ल का बहुत ऋणी है। वह असंख्य अर्थों में वंचित रहता अगर वह विनोद कुमार शुक्ल के सृजन के समीप न गया होता। संभवत: जीवितों के संसार में बहुतों के ऐसे विचार होंगे, लेकिन वह यह तथ्य उजागर करता है-- वे उसे सबसे बढ़कर प्रिय हैं। उसकी कभी उनसे कोई मुलाकातें नहीं रहीं. कभी कोई संवाद नहीं रहा. उसने कभी उन्हें सशरीर नहीं देखा। वह बस उस ‘सृजन’ का साक्षी रहा है, जहां वह एक ‘बुकमार्क’ बनकर वर्षों से रह रहा है...
[प्रस्तुत टिप्पणी 'पाखी' के विनोद कुमार शुक्ल पर एकाग्र अंक में प्रकाशित है और इसमें प्रयुक्त समग्र काव्य-पंक्तियां विनोद कुमार शुक्ल के तीसरे कविता-संग्रह ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ (1992, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) से ली गई हैं।]
पुस्तकों में पुनर्वास दूसरों के बहाने उन छूट चुकीं स्थानीयताओं में पुनर्वास था जिनके विषय में वह प्राय: सोचता रहता था और जहां अब लौट सकना संभव नहीं था। नई स्थानीयताओं में पुनर्वासित होकर वह अपने वास्तविक पड़ोस को खो रहा था। इस तरह पुनर्वास में पड़ोस होते हुए भी अनुपस्थित था। वहां आवाजाही नहीं थी। सुख-दु:ख थे, लेकिन उनकी पूछताछ नहीं थी। वहां सब रोग अकेलेपन से शुरू होते थे और उसके हिस्से की व्यथा देकर उसके अकेलेपन से विदा हो जाते थे। व्यथा का आकार चाहे आकाश हो जाए पड़ोस को उसके संदर्भ में दृश्य में नहीं आना था तो नहीं आना था।
वह पुस्तकों में रहने लगा था। आस-पास का शोर और आत्महीनताएं और अन्याय और अविवेक उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता था। वह पुनर्वास की प्रत्यक्ष के साथ कोई संगति स्थापित नहीं कर पा रहा था। यह भी कह सकते हैं कि इसमें उसकी कोई रुचि नहीं थी। वह एक सुघड़ स्मृतिलोक में स्वप्नवत रहता था। हालांकि इसके समानांतर जो मूल यथार्थ था, वह बहुत हिंस्र और भयावह था।
पुनर्वास में अपने अध्यवसाय से वह जो स्मृतिलोक रच रहा था उसमें उन छूट चुकीं स्थानीयताओं की कल्पना थी जहां एक ही रोज में कई-कई सूर्योदय और सूर्यास्त थे। वह गर्म दोपहरों को अपने तलवों के नीचे अनुभव करता था और यह गर्म एहसास उसके कपड़ों से नमक की तरह लिपटा रहता था। उसके सिर पर सतत एक बोझ होता था और आगे हत्या की आशंकाएं। यह भयावह के समानांतर भयावह था।
इस समानांतरता में सतत जीते हुए वह एक रोज विनोद कुमार शुक्ल की कविता से परिचित हुआ...
इस मनुष्य होने के अकेलेपन में मनुष्य की प्रजाति की तरह लोग थे...
और...
लोगों तक पहुंचने की कोशिश में
दो चार लोगों ने मुझे सबसे अलग किया
मुझको सुनसान किया
बड़ा नुकसान किया
लोगों की बात करने की कोशिश में
एकदम चुपचाप किया
इस काव्य-संसार में वह उतरा तो उतरता ही चला गया। कुछ तैरा और फिर डूब गया। उसने पाया कि वह छूट चुकी स्थानीयताओं को पा चुका है। उसका अनुभव अपेक्षा से कुछ अधिक और अनिर्वचनीय पा लेने के भयभीत जैसा था। इस आस्वाद के बाद वह बहुत वक्त तक चुपचाप रहा। बस...
मानुष मैं ही हूं इस एकांत घाटी में
यहां मैं मनुष्य की आदिम अनुभूति में सांस लेता हूं
ढूंढ़कर एक पत्थर उठाकर
एक पत्थरयुग का पत्थर उठाता हूं
कलकल बहती नदी के ठंडे जल को
चुल्लू से पीकर पानी का प्राचीन स्वाद पाता हूं
मैं नदी के किनारे चलते-चलते
इतिहास को याद कर भूगोल की एक पगडंडी पाता हूं
संध्या की पहली तरैया केवल मैं देखता हूं.
चारों तरफ प्रकृति और प्रकृति की ध्वनियां हैं
यदि मैंने कुछ कहा तो अपनी भाषा नहीं कहूंगा
मनुष्य ध्वनि कहूंगा.
एक प्रदीर्घ मौन के बाद उसने पाया कि वह पृथ्वी में सहयोग और सहवास का अर्थ पा चुका है।एकांत का अर्थ और एक स्थानीयता में सार्वभौमिक विस्तार पा चुका है। कुछ संसार स्पर्श कर बहुत संसार स्पर्श कर लेने की चाह का उसने वरण कर लिया है और अब वह घर और संसार को अलग-अलग नहीं देख पा रहा है। उसे यह सृष्टि बहुत संभावनापूर्ण लग रही है, हालांकि हिंसा बहुत है...
ऐसे छोटे बच्चे से लेकर
जिनके हाथ सांकल तक नहीं पहुंचते
घर का कोई भी दौड़ता है दरवाजा खोलने
जिसे सुनाई देती है दरवाजा खटखटाने की आवाज.
थोड़ी देर होती दिखाई देती है तो चारपाई पर लेटे-लेटे
घर के बूढ़े-बूढ़ी चिंतित हो सबको आवाज देते हैं
कि दरवाजा खोलने कोई क्यों नहीं जाता?
पर ऐसा होता है कि दरवाजा खुलते ही
स्टेनगन लिए हत्यारे घुस आते है
और एक-एक को मारकर चले जाते हैं
ऐसा बहुत होने लगता है
फिर भी दरवाजे के खटखटाने पर कोई भी दौड़ पड़ता है
और दरवाजा खटखटाए जाने पर
दरवाजे बार-बार खोल दिए जाते हैं
पहाड़ों, जंगलों, पेड़ों, वनस्पतियों, तितलियों, पक्षियों, जीव-जंतु, समुद्र और नक्षत्रों से अपरिचय रखने के बावजूद उसने पाया कि वह धरती को जानता है। उसने पाया कि अपरिचित भी आत्मीय हैं। सब आत्मीय हैं और सब जान लिए जाएंगे मनुष्यों से। वह मनुष्य को जानता है।
वह विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ चुका था... और इसके बाद वह लगातार नई-नई स्थानीयताओं में पुनर्वासित होता रहा। इन नई स्थानीयताओं से पहले छूट चुकीं स्थानीयताओं को वह दूसरों के बहाने पुस्तकों में पाता था और मूल यथार्थ से कटकर एक सुघड़ स्मृतिलोक में स्वप्नवत रहता था। अब वह बदल चुका था। अब वह संसार को स्मृतिलोक-सा बनाना चाहता था। इसके लिए जो अवयव चाहिए, उन्हें इस संसार से ही पाना चाहता था। वह अब पुस्तकों में कम और संसार में ज्यादा रहने लगा था। यह दृष्टि विनोद कुमार शुक्ल के काव्य-संसार से गुजरने के बाद आई थी...
बहुत कुछ कर सकते हैं जिंदगी में का काम बहुत था
कुछ भी नहीं कर सके की फुर्सत पाकर
मैं कमजोर और उदास हुआ
ऐसी फुर्सत के अकेलेपन में दु:ख हुआ बहुत
पत्नी ने कातर होकर पकड़ा मेरा हाथ
जैसे मैं अकेला छूट रहा हूं उसे अकेला छोड़
बच्चे मुझसे आकर लिपटे अपनी पूरी ताकत से
मैंने अपनी ताकत से उनको लिपटाया और जोर से
पत्नी बच्चों ने मुझे नहीं अकेला छोड़ा
फिर भी सड़क पर गुजरते जाते मैं
हर किसी आदमी से अकेला छूट रहा हूं
सबसे छूट रहा हूं
एक चिड़िया भी सामने से उड़कर जाती है
अकेला छूट जाता हूं
चूंकि मैं आत्महत्या नहीं कर रहा हूं
मैं दुनिया को नहीं छोड़ रहा हूं
अब वह अपने एक प्रतिरूप को पुस्तकों में विस्थापित कर प्रकट और मूल यथार्थ से जूझ रहा था। रोज गुजर रहे थे और विनोद कुमार शुक्ल उसकी पाठकीय दिनचर्या की परिधि से छूट चुके थे। इस छूटने से मिल पाना वैसे ही गैर मुमकिन था जैसे छूट चुकी स्थानीयताओं से मिल पाना। हालांकि पुनर्वास अब कम कष्टदायी था और पड़ोस कम असहनीय। लेकिन उसका प्रतिरूप उसके मार्गदर्शन के बगैर आश्रयवंचित था। उसने इस प्रतिरूप के कुछ और प्रतिरूप बनाए और उन्हें विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों और अन्य कविता-संग्रहों में अलग-अलग रखकर छोड़ दिया और इस संसार को पढ़ने लगा, यह सोचकर कि विनोद कुमार शुक्ल के इन उपन्यासों और कविता-संग्रहों को वह कभी ‘आदिवास’ में पढ़ेगा। यह एक सुंदर कल्पना थी कि यह आदिवास इस संसार से बाहर नहीं होगा। वह आगामी उम्रों में होगा, एक रोज इस संसार में ही संभव होगा... लेकिन वह हर उस जगह से बहुत दूर कर दिया गया जो उसकी अतीव कल्पना में बहुत पवित्रता और विस्तार में थी। वह ‘विस्थापन’ की बहुत गर्म सुबहों में बहुत जल्दी उठकर विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों और कविता-संग्रहों को पढ़ता और रात तक एकाकी और उदास रहता था। वे प्रेम में ‘नहीं होने’ के दिन थे...
उसका जीवन एक रोजमर्रा में विनोद कुमार शुक्ल का बहुत ऋणी है। वह असंख्य अर्थों में वंचित रहता अगर वह विनोद कुमार शुक्ल के सृजन के समीप न गया होता। संभवत: जीवितों के संसार में बहुतों के ऐसे विचार होंगे, लेकिन वह यह तथ्य उजागर करता है-- वे उसे सबसे बढ़कर प्रिय हैं। उसकी कभी उनसे कोई मुलाकातें नहीं रहीं. कभी कोई संवाद नहीं रहा. उसने कभी उन्हें सशरीर नहीं देखा। वह बस उस ‘सृजन’ का साक्षी रहा है, जहां वह एक ‘बुकमार्क’ बनकर वर्षों से रह रहा है...
[प्रस्तुत टिप्पणी 'पाखी' के विनोद कुमार शुक्ल पर एकाग्र अंक में प्रकाशित है और इसमें प्रयुक्त समग्र काव्य-पंक्तियां विनोद कुमार शुक्ल के तीसरे कविता-संग्रह ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ (1992, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) से ली गई हैं।]
Avinash bhaiya aapko Badhai iss lekhan ke liye
ReplyDeleteआपके जीवन और आपके साहित्य की शाखा-प्रशाखा
ReplyDeleteबहुत गहरी है अविनाश जी। श्री विनोद कुमार शुक्ल जी
की पहचानगोई में आपकी भी पहचान वाबस्ता है। कविता
की शास्त्रीयता में न जाकर कविता के संदर्भ में कहूं तो
शुक्ल जी की कविताएं मौलिक जीवन और उसके अदीम,
मुग्धकर व लालित्यपूर्ण ओज से लबरेज़ है । यहाँ जीवन
यापन भी है और अपनी जड़ों की खोजबीन भी । तुम्हारा
शुक्ल जी की कविताओं से यूं जुड़ना जैसे एक विरल संयोग
सा हो…! जैसे उनकी कविताओं में तुम रचे बसे हो वैसी ही
तुम्हारी इस विवेचना में वे भी रचे बसे हैं। आपका तो बहुत
उपकार किया विनोद कुमार शुक्ल जी ने पर वे सार्थक से भी
लगे आपकी उनके प्रति भावनाओं में।
श्री विनोद कुमार शुक्ल जी की कविताएं ज़रूर पढेंगे।